शुरुआत करते हैं बनारस से. यहां  एक दिन फ्लाइट्स में सवार होकर 228 महिलाएं आती हैं. ये महिलाएं किसी बड़ी या रईस फैमिली से नहीं हैं. इनके बारे में जो भी सुनता है, हैरान रह जाता है. दरअसल, इन्हें सोसाइटी में एक खास शब्द से पुकारा जाता है. अछूत.

जी हां, ये 228 महिलाएं जिन परिवारों से हैं, वो पुश्त दर पुश्त सिर पर मैला ढोने का काम करते रहे हैं. इन्होंने कभी मंदिर की दहलीज नहीं लांघी. सोसाइटी में इन्हें या इनकी फैमिली के दूसरे मेंबर्स को किसी बाऊ साहब या पंडित जी के घर के दरवाजे पर बैठने तक की परमीशन नहीं. इनके हाथ का छुआ तो कोई छूना भी पसंद नहीं करता. मगर अब इनका वक्त बदल चुका है. ये सभी एरोप्लेन में सफर करके बनारस पहुंची हैं. क्यों! सुनकर हैरानी हो रही है ना?

मंदिर में VIP दर्शन

'आई एम टोटली निरक्षर'

हैरानी वाली बात अब हम बताने जा रहे हैं. ये सिर्फ एरोप्लेन में ही नहीं बैठीं बल्कि ये पहुंची काशी विश्वनाथ मंदिर में दर्शन-पूजन करने. ये वही मंदिर हैं जहां वर्षों तक अछूतों को मंदिर की गली से गुजरने की भी परमीशन नहीं थी. मगर समय तो बदलता है न साहब. मंदिर के नियम बदले तो इन महिलाओं की तकदीर क्यों नहीं बदल सकती. काशी आने के बाद सुबह-सुबह इन सब ने गंगा स्नान किया. फिर जुलूस के रूप में पहुंची विश्वनाथ मंदिर.

यहां इनका स्वागत हुआ. हमेशा वीआईपी लोगों की विजिट वाले इस मंदिर में एक घंटे के लिए सिर्फ इनको स्पेशल ट्रीटमेंट दिया गया. मंदिर के बड़े पुजारियों ने इन्हें विधिवत दर्शन कराया. इसके बाद सभी महिलाएं अन्नपूर्णा मंदिर और फिर राजघाट स्थित संत रविदास मंदिर में भी दर्शन को पहुंची.

सुलभ इंटरनेशनल की पहल

मैला ढोने वाले परिवारों को एरोप्लेन में बैठा कर देश के सभी बड़े मंदिरों में दर्शन कराना कोई आसान सोच नहीं थी. मगर इसे पूरा कर दिखाया सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गनाईजेशन (एसआईएसएसओ) और इसके फाउंडर पद्म विभूषण डॉ. बिन्देश्वर पाठक ने. डॉ. पाठक ने भी काफी समय पहले प्लान बनाया कि अछूत कहे जाने वाले परिवार की महिलाओं को समाज की मुख्य धारा से जोड़ा जाए. उनके लिए समाज में बनाए गए बंधन, नियम और कानून अब खत्म हों. इसके लिए ही

उन्होंने इन महिलाओं को राजस्थान के कई डिस्ट्रिक्ट से चुना और एक जत्थे के रूप में लेकर एक शहर से दूसरे शहर दर्शन करा रहे हैं. वाराणसी में आया एक जत्था तो एक शुरुआत मात्र है. डॉ. पाठक के इस इनेशिएटिव को अब वो ब्राह्मण भी वक्त के बदलाव के रूप में स्वीकार कर रहे हैं, जो अब तक इन्हें छूना तक नहीं पसंद करते थे.

'आई एम टोटली निरक्षर'

ब्राह्मणों के संग किया भोजन
विश्वनाथ मंदिर में दर्शन-पूजन के बाद इन महिलाओं ने काशी के ब्राह्मणों के साथ अगल-बगल बैठ कर भोजन भी किया. ये वही काशी है जहां ब्राह्मण अछूत की छाया पडऩे पर भी गंगा में दोबारा स्नान किया करते रहे हैं. मगर आज वक्त बदला हुआ है. इन महिलाओं के चेहरे पर एक अजब मुस्कान नजर आती है. क्योंकि इनके वो ख्वाब पूरे हो रहे हैं, जिसे वो देखने से भी डर जाती थी कि कहीं किसी ने उन्हें इस तरह का बड़ा ख्वाब देखते देखा तो नहीं. भारत के तमाम बड़े मंदिरों में दर्शन पूजन को निकला मैला ढोने वाले परिवारों की इन महिलाओं का ये जत्था काशी में इस खास आवभगत के बाद अपने अगले पड़ाव को निकल गया. ये कहते हुए कि वक्त बदलता है.

न्यूयार्क तक पहुंच चुकी हैं ये
आप भले यकीन न करें मगर सुलभ इंटरनेशनल ने इन महिलाओं की न सिर्फ तकदीर बल्कि सामाजिक तस्वीर बदलने में काफी मेहनत की है. डॉ. बिन्देश्वर पाठक बताते हैं कि यूनाइटेड नेशंस के इन्विटेशन पर इससे पहले वह राजस्थान के अलवर डिस्ट्रिक्ट की ही 36 महिलाओं को न्यूयॉर्क (अमेरिका) भी ले गए थे. ये तो सिर्फ एक शुरुआत है. देश में 1993 में ही मैला ढोने पर प्रतिबंध के साथ कानून बना मगर ये कानून कागजों में है. आज भी देश में एक लाख से ज्यादा परिवार ये मान कर चल रहे हैं कि यही उनकी किस्मत है. इस सोच के साथ समाज के लोगों की सोच बदलने की जरुरत है. आज ये महिलाएं और इनके परिवार के लोग सम्मान के साथ जीना सीख रहे हैं. इनके बच्चे पढ़ रहे हैं. अभी वक्त लगेगा मगर बदलाव जरुर होगा.

Report by: Ravindra Pathak

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