हिटलर के बारे में जर्मनी में जहां लोग आम तौर पर बात करना पसंद नहीं करते, वहां उन पर उपन्यास लिखना और उसका इस कदर लोकप्रिय होना खासा दिलचस्प है.

इस काल्पनिक उपन्यास के मुताबिक हिटलर सत्तर साल बाद कोमा से बाहर आते हैं और पहुंच जाते हैं आज के बर्लिन में जहां लोग उन्हें हिटलर का हमशक्ल समझ लेते हैं. वो जर्मनी की सड़कों पर टहल रहे हैं और लोगों से मज़ाक कर रहे हैं.

हिटलर आधुनिक बर्लिन को देखकर भ्रम में पड़ जाते है और सोचते हैं कि सारे रूसी सैनिक कहां चले गए? सड़कों पर इतने साइकिल सवार हेल्मेट पहने क्यों घूम रहे हैं?"

हिट है उपन्यास

हिटलर शहर में घूमते हैं. वो वहां अपना प्रिय अखबार 'द पीपल्स आब्जर्बर' खोजते हैं. लेकिन उन्हें केवल तुर्की के अखबार मिलते है.

एक दुकानदार उनसे कहता है "चोरी मत करना." हिटलर पूछते है, "क्या मैं अपराधी जैसा नज़र आता हूं?" दुकानदार जवाब देता है, "नहीं, आप हिटलर जैसे दिखते हो."

इसके बाद हिटलर एक लोकप्रिय राजनेता बन जाते हैं. वह तुर्क मूल के एक जर्मन एंकर के साथ टीवी पर एक टॉक शो में हिस्सा भी लेते हैं. वहां वो कुत्तों से होने वाली गंदगी की बात करते हैं, जो आम लोगों के सरोकारों से जुड़ा विषय है.

यह दृश्य तिमुर वर्मस के एक उपन्यास "ही इज बैक" का है जो खूब लोकप्रिय हो रहा है. अब तक इसकी चार लाख प्रतियां बिक चुकी हैं.

यही नहीं, इसका ऑडियो वर्जन भी बाजार में है और 28 भाषाओं में इसका अनुवाद किया जा रहा है. इस पर फिल्म बनाने की भी तैयारी है.

इसे जर्मन उपन्यासों की श्रृंखला में सबसे अनोखा उपन्यास माना जा रहा है.

उपन्यास पर बहस

लेकिन इस लेकर ये भी सवाल उठाया जा रहा है जो व्यक्ति यहूदी नरसंहार जैसी त्रासदी के लिए जिम्मेदार था, क्या वो हास्य विनोद का पात्र हो सकता है. कुछ लोगों का कहना है कि ये जर्मनी में बदलते हुए नजरिए को दर्शाता है.

उपन्यास में हिटलर चार्ली चैपलिन की तरह नज़र आते हैं. लेकिन वास्तविक जीवन में हिटलर बतौर इंसान काफी बेचैन करते हैं.

कार्निला फिडलर जर्मन अखबार "ज्यूड डॉ्यचे त्साइदुंग" में लिखती हैं कि किताब की सफलता का श्रेय इसकी साहित्यिक गुणवत्ता से ज्यादा बेचैन करने वाली हिटलर की छवि को जाता है. हिटलर को कॉमेडी पात्र के रूप में दिखाया जाए या फिर बुराई के प्रतीक के रुप में, इतिहास की सच्चाई को बदला नहीं जा सकता.

वहीं किताब के लेखक तिमुर वर्मस कहते हैं, "मैंने हिटलर को इंसान के रूप में पेश किया है ताकि जर्मनी के लोग उनके बारे में नए सिरे से सोचें. इससे पहले हिटलर को क्रूर और बर्बर रुप में दिखाया जाता रहा है."

उन्होंने बीबीसी को बताया, "पिछले साठ सालों से ज्यादा समय में हमनें यह सीखा है कि हिटलर एक बहुत बुरे व्यक्ति थे. अपनी इस जानकारी के आधार पर हम यह नहीं सोच सकते कि हिटलर ने कुछ ठीक भी किया होगा. जर्मनी की जनता ने हिटलर को अपना नेता चुना था और लोग मूर्खों को नहीं चुनते."

आलोचकों की आशंका

उपन्यास के आलोचकों का कहना है कि हिटलर की वास्तविक छवि और उपन्यास में उसके मानवीकरण के बीच धुंधली लकीर है जो पाठकों की सहानुभूति से मिट सकती है. ऐसे कहीं उसे स्वीकार्यता न मिल जाए, आलोचक इस आशंका से बेचैन हैं.

इन मुद्दों पर जर्मनी में बहस हो रही है. इतने बरसों में लोगों के देखने का नज़रिया बदला है. साहित्यकार रुडोल्फ हार्जो़ग कहते हैं कि युद्ध की विभीषिका के बाद हिटलर के बारे में लोगों की पहली प्रतिक्रिया यही थी कि वह बहुत बर्बर थे.

वो कहते हैं, "हिटलर लोगों को सम्मोहित कर लेते थे. इसलिए सारा दोष हिटलर का है. इसमें लोगों की क्या गलती है? इससे इस बात को समझना और भी मुश्किल हो जाता है कि लोग एक मसख़रे की बात मानने को क्यों तैयार थे? जिसके कारण जर्मन लोग यहूदियों के नरसंहार में लोग शामिल हो गए. मैं इस बात को नहीं मानता. मैं इस विचार से वाकई सहमत नहीं हूं."

एक यहूदी कॉमेडियन ऑलिवर पोलक ने बीबीसी को बताया, "मुझे समझ में नहीं आ रहा कि लोगों को हंसी क्यों आ रही है? लोग हिटलर को मजाकिया क्यों समझ रहे हैं?"

उनका कहना है कि हिटलर के बारे में कोई शालीन मज़ाक नहीं हो सकता है.

बहरहाल इस बहस के बीच जर्मनी के लोगों को हिटलर की वापसी पर आधारित फंतासी वाला उपन्यास और उनका मजाकिया अंदाज बेहद पसंद आ रहा है.

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