- एंटीबॉयोटिक दवाओं की सही डोज के बारे में 90 प्रतिशत डॉक्टर्स खुद नहीं जानते

- डब्ल्यूएचओ ने एंटीबॉयोटिक दवाओं को लेकर जारी की थी गाइडलाइंस

- इन दवाओं से कैंसर, टीबी, एड्स जैसी बीमारियां हमें आसानी से घेर सकती हैं

- एंटीबायोटिक दवाओं का कुछ सालों में दिखाई पड़ने लगता है असर

LUCKNOW: मेडिसिन्स के बारे में लोगों की जानकारी सीमित ही है, लेकिन हर घर में एक-दो डॉक्टर मौजूद हैं। आपको कोई दिक्कत हुई नहीं, चार लोग बता देंगे फलानी-फलानी दवाई ले लो, फटाफट आराम मिल जाएगा। फ्री की इस एडवाइस के चक्कर में लोग धड़ल्ले से एंटीबायोटिक दवाएं खुद खरीद कर खा रहे हैं। इसका असर एक-दो दिन में नहीं, बल्कि दो से तीन साल में नजर आता है।

डॉक्टर्स भी जिम्मेदार हैं

जल्दी राहत पाने के लिए बिना सलाह की प्रवृत्ति के साथ ही डॉक्टर भी जानबूझकर बिना जरूरत के हाई लेवल की एंटीबायोटिक्स को धड़ल्ले से प्रिस्क्राइब कर रहे हैं। अब इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने भी माना है कि एंटीबायोटिक दवाओं के कम होते असर केलिए डॉक्टर्स भी जिम्मेदार हैं। इसके लिए एसोसिएशन ने डॉक्टर्स को टारगेट करते हुए एक कैम्पेन लांच किया है। इससे पहले डब्ल्यूएचओ ने भी एंटीबायोटिक दवाओं के लिए गाइडलाइंस जारी की हैं।

बात यहां एंटीबायोटिक पॉलिसी की है

लखनऊ आईएमए के जनरल सेक्रेटरी डॉ। विजय कुमार ने बताया कि चेन्नई में हुए कार्यक्रम में डब्ल्यूएचओ की गाइडलाइंस की जानकारी दी गई थी। कहा गया था कि हर हॉस्पिटल की अपनी एक एंटीबायोटिक पॉलिसी हो। ऐसा न हो कि नया डॉक्टर कोई भी दवा प्रिस्क्राइब कर दे क्योंकि गिनी-चुनी ही दवाएं हैं और बिना जरूरत के हाई लेवल की एंटीबायोटिक देने के कारण ही रजिस्टेंस डेवलप हो रहा है। नियम यह है कि बेसिक दवाएं ही दी जाएं और असर न हो तो नेक्स्ट लेवल की दवा दी जाए, लेकिन यह फालो नहीं हो रहा। इसी कारण ये गाइडलाइंस आई हैं।

ताकि बेअसर न हो जाएं दवाएं

वल्लभ भाई पटेल चेस्ट इंस्टीटय़ूट दिल्ली के डायरेक्टर और केजीएमयू के पल्मोनरी विभाग के पूर्व एचओडी प्रो। राजेन्द्र प्रसाद के अनुसार, एंटीबायोटिक दवाओं के अधिक इस्तेमाल का सीधा मतलब है 'दवाओं का असर खत्म हो जाना'। लेकिन मेडिसिन्स के अधिक इस्तेमाल के बाद शरीर में बैक्टीरिया के खिलाफ बनने वाले सुरक्षा चक्र के प्रति बैक्टीरिया ऑटो इम्यून हो जाते हैं और उन पर दवाओं का असर खत्म होने लगता है। जिसके कारण कैंसर, टीबी, एड्स जैसी बीमारियां हमें आसानी से घेर सकती हैं। एमडीआर और टीडीआर टीबी इस बात का ही प्रमाण है कि दवाओं का प्रयोग सही समय पर नहीं किया गया या बिना यूज के ही इन्हें दिया गया जिसके कारण ये दवाएं ही बेअसर हो गई।

इसलिए क्0 दवाओं को किया बाहर

जरूरी ब्00 दवाओं में से हाल ही में दस दवाओं को हटाया गया है क्योंकि इनका असर लोगों पर अब कम हो रहा है। ओफ्लॉक्सिन दवा टीबी के मरीजों को दी जाती है। इसे जरूरी दवाओं की सूची से बाहर करना इसलिए जरूरी हो गया कि अगर किसी साधारण मरीज को टीबी हो गई तो इस दवा का बाद में उस पर असर नहीं होगा। डॉक्टर्स के मुताबिक साधारण जुखाम या सिरदर्द के लिए एंटीबायोटिक नहीं लेनी चाहिए, क्योंकि ऐसा करने का मतलब होगा भविष्य के लिए खुद को और बीमार करना। शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए अच्छा है कि खाने में पौष्टिक आहार और विटामिन-सी की मात्रा बढ़ायी जाए।

नेक्स्ट ख्0 साल तक नई एंटीबायोटिक नहीं

व‌र्ल्ड की कोई भी फार्मा कम्पनी नेक्स्ट ख्0 इयर्स तक नई एंटीबायोटिक तैयार नहीं करने वाली। हाल ही में एंटीबायोटिक के अधिक इस्तेमाल को रोकने के लिए यह अभियान शुरू किया गया। जिसमें कार्टून पात्र चाचा चौधरी और साबू के जरिए भी दवाओं को रोकने के लिए संदेश जारी किया है। अभियान के प्रमुख डॉ। आशीष पाठक कहते हैं कि थर्ड जेनरेशन एंटीबायोटिक दवाओं के बाद अब चौथे चरण की एंटीबायोटिक दवाएं बाजार में आने में कम से कम ख्0 साल का समय लगेगा, इस आधार पर हमें मौजूद दवाओं के सहारे ही निरोगी रहना होगा।

शेड्यूल-एच इसीलिए जरूरी है

एंटीबायोटिक के अधिक प्रयोग को रोकने के लिए ही सरकार ने दवाओं का नया शेड्यूल-एच जारी किया, जिसके आधार पर ही दवा विक्रेताओं को दवा बेचने के निर्देश दिए गए हैं। लेकिन मेडिकल स्टोर्स इसको लेकर सहमत नहीं हैं। इसमें लगभग ब्भ् साल्ट की दवाएं जिनमें एंटीबायोटिक मेडिसिन्स भी हैं, को ओवर द काउंटर सेल से प्रतिबंधित किया गया है और डॉक्टर, मरीज की जानकारी भी मेडिकल स्टोर मालिकों के लिए जरूरी कर दी गई है। लेकिन दवा विक्रेता मई से फिर इस नियम के विरुद्ध हड़ताल की तैयारी में हैं।

डॉक्टर्स को नहीं मालूम, क्या है सही डोज

संजय गांधी पीजीआई के प्रो। निर्मल गुप्ता ने बताया कि इंडिया में जो दवा बिकती है, उसके साथ उसकी डोज व अन्य जानकारी भी नहीं दी जाती, लेकिन विदेशों में सभी दवाओं के साथ डोसेज की जानकारी होती है। बच्चे, एडल्ट, प्रे्रग्नेंट वीमेन में डोसेज की जानकारी का पर्चा दवा के साथ होता है। सभी डॉक्टर्स को इसको पढ़ना मंडेटरी होता है। हमारे यहां पर एक प्रोडक्ट मोनोग्राफ ही नहीं है। कोई पढ़ना भी चाहे तो नहीं पढ़ सकता। 90 परसेंट डॉक्टर्स को एंटीबायोटिक और उसकी सही डोज की जानकारी ही नहीं है। एक ही दवा की 80 साल और ख्भ् साल के मरीज में अलग-अलग डोज है। किडनी, लिवर की बीमारियों के मरीजों को अलग डोज दी जाती है।

यह हैं आंकड़े

- हॉस्पिटल्स में जन्म लेने वाले 70 परसेंट बच्चे एस टाइफी के शिकार होते हैं। जिसकी एक वजह इन्हें बेवजह एम्पिलिसलिन दवाओं का दिया जाना है।

-सेक्सुअल ट्रांसमिटेट डिजीज सेंटर (एसटीआई) पर काम करने वाले ब्भ् परसेंट में ट्रेटासाइक्लिन, सिप्रोफ्लॉक्सिन और पेन्सिलीन के प्रति रजिस्टेंस देखी गई है।

- बर्थ के फ‌र्स्ट फोर वीक्स में ही दस लाख बच्चे हर साल मर जाते हैं।

- इसमें से क्9,000 ब्लड सेपिस नामक संक्रमण के शिकार होते हैं।

- फ्0 परसेंट न्यू बार्न बेबीज में यह संक्रमण मदर को दी गई एंटीबायोटिक से मिलता है।

देश में लिवर और किडनी के मरीजों की बड़ी संख्या सिर्फ गलत दवा लेने के कारण होती है। इसके लिए जरूरी है कि देश में दवाओं के ट्रेड नेम बंद होने चाहिए। अभी एक ही दवा भ्0 कम्पनियां अलग-अलग नामों से बनाती हैं। हर ड्रग का जो फार्मालॉजिकल नाम होता है किसी भी व्यक्ति को उसे प्रिस्क्राइब करने की परमीशन तब तक न मिले, जब तक कि वह उसका प्रोडक्ट मोनोग्राफ न पढ़ ले। साथ ही दवा की दुकान पर ओवर द काउंटर पाबंदी लगनी चाहिए।

- प्रो। निर्मल गुप्ता,

एसजीपीजीआई

हमने लखनऊ में डॉक्टर्स को इन गाइडलाइंस के बारे में जानकारी दे दी है। इसी कारण केमिस्ट पर भी दवा ओवर द काउंटर बिक्री पर रोक लगाने की भी बात है। उम्मीद है कि डॉक्टर्स सही तरह से दवा लिखेंगे ताकि मरीजों का फायदा हो।

- डॉ। विजय कुमार,

सेक्रेटरी, लखनऊ आईएमए