इस शहर की तस्वीर बनाने के लिए लाल किला, हुमायूँ का मक़बरा, इंडिया गेट, राष्ट्रपति भवन, संसद भवन और क़ुतुब मीनार जैसे भव्य और ऐतिहासिक इमारतों की तस्वीर ही दिमाग में उभरती है।

क्यों दिल्ली का नाम सुनते ही राजघाट, इंदिरा गांधी संग्राहलय और यहाँ तक कि अक्षरधाम जैसा भव्य मंदिर लोगों की ज़हन में अमिट छाप नहीं छोड़ पाता? इसके पीछे आख़िर क्या वजह है? इस सवाल का जवाब इस शहर की सियासत की गहराई में झांकने पर ही मिलता है.Delhi architecture

कई शासनों के बीच करवटें बदलने वाले इस शहर के वास्तुकलात्मक माथे पर आज भी मुग़ल वास्तुकला का ताज है, इसका शरीर जैसे ब्रितानी महाराजाओं की चौड़ी छाती-सा लगता है और लड़खड़ाते हुए पांव ढुलमुल लोकतांत्रिक शासन का आभास दिलाते हैं।

ब्रितानी शासकों ने अपनी शानो शौक़त का प्रदर्शन करने के लिए कई भव्य इमारतें खड़ी कीं मगर आज़ादी के बाद जब दिल्ली को आधिकारिक रूप से स्वतंत्र भारत की राजधानी माना गया, तो लोकतांत्रिक शक्ति प्रदर्शन के लिए ऐसी कोई इमारत नहीं खड़ी की गई, जिसे भारत की या राजधानी की पहचान कहा जा सके।

क्यों आज़ादी के बाद भारत की राजधानी में जो ढांचे खड़े किए गए, वो इतने भव्य नहीं थे, जितने कि ब्रितानी वास्तुकारों की बनाई हुई इमारतें? आज़ाद भारत की वास्तुकला को आख़िर किन बातों ने प्रभावित किया?

ब्रितानी वास्तुकला और ‘लुट्यंस की दिल्ली’

1911 में जब ब्रिटिश राज ने कलकत्ता से दिल्ली का रुख़ किया और उसे राजधानी बनाने की ठानी, तो दिल्ली को एक नायाब प्रशासनिक चेहरा मिला। फिर शुरु हुआ दिल्ली में सरकारी इमारतों को खड़ा करने का दौर।

जब दिसंबर 1911 में किंग जॉर्ज पंचम ने दिल्ली की आधारशिला रखी तो उस पर लिखा गया, "ये मेरी तमन्ना है कि जब नई राजधानी की रूपरेखा बनाई जाए, तो इस शहर की ख़ूबसूरती और प्राचीन छवि को ख़ास ध्यान में रखा जाए ताकि यहां की नई इमारतें इस शहर में खड़ी होने लायक लगें."

इस बात में कोई दो राय नहीं है कि दिल्ली की ख़ूबसूरत और ऐतिहासिक मुग़ल वास्तुकला ने ब्रितानी शासकों का मन मोह लिया था। ब्रितानी शासक जब नई राजधानी बसाने दिल्ली आए तो सबसे पहले इस बात पर चर्चा हुई कि शहर में किस जगह को ब्रितानी प्रशासन का केंद्र बनाया जाए। गहन चर्चा के बाद आख़िरकार पहाड़ीनुमा रायसीना गांव को ब्रिटिश राज के तख़्त के लिए चुना गया।

12 मार्च, 1912 को टाउन प्लैनिंग कमिटी बनाई गई, जिसमें तीन अहम शख़्सों को शहर की योजना बनाने की ज़िम्मेदारी दी गई। उनमें से एक थे एडविन लुट्यंस, जो कि ब्रिटेन के एक जाने-माने वास्तुकार थे। एडविन लुट्यंस ने हरबर्ट बेकर के साथ मिलकर रायसीना की पहाड़ी और उसके आस-पास के इलाक़े को भारत में ब्रितानी सत्ता का केंद्र बनाया।

और इसी प्रक्रिया के दौरान बनाए गए विशालकाय शाही ढांचे… जैसे कि ऑल इंडिया वॉर मेमोरियल (जिसे अब इंडिया गेट के नाम से जाना जाता है), वॉयसराय हाउस (जो भारतीय स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रपति भवन बना), वायसराय हाउस के ईर्द-गिर्द दो विशाल सचिवालय (जिन्हें अब नॉर्थ और साउथ ब्लॉक कहा जाता है), संसद भवन और कई अन्य भव्य इमारतें.edwin lutyens

लुट्यंस की वास्तुकला और निर्माण कार्यों के लिए ब्रितानी शासनकाल में उनकी खूब प्रशंसा हुई, यहां तक कि आज भी जब दिल्ली की वास्तुकला के बारे में बात की जाती है, तो शहर को ‘लुट्यंस दिल्ली’ की संज्ञा दी जाती है। लेकिन आपको ये जान कर हैरानी होगी कि जिस वास्तुकला को लेकर उनकी इतनी तारीफ़ की जाती है, वे ख़ुद उसके पक्ष में ही नहीं थे।

झुकना पड़ा लुट्यंस को

भारत में मौजूद मुग़ल वास्तुशिल्प ने एक ओर जहां सभी ब्रितानी शासकों का दिल जीत लिया था, वहीं लुट्येन्स को भारतीय वास्तुकला ख़ास पसंद नहीं आई।

तत्कालीन वायसराय लॉर्ड हार्डिंग ने नई इमारतों में मुग़ल वास्तुकला के तत्व जोड़े जाने पर ज़ोर न दिया होता तो आज शायद राष्ट्रपति भवन, नॉर्थ ब्लॉक और साउथ ब्लॉक की शक्ल कुछ और होती।

लॉर्ड हार्डिंग की ज़िद के आगे लुट्यंस को झुकना पड़ा और उन्हें अपनी इमारतों में यूरोपीय वास्तुकला के साथ-साथ भारतीय वास्तुकला से भी प्रेरणा लेनी पड़ी।

यही वजह है कि ब्रितानी इमारतों में एक तरफ़ आधुनिक तत्वों से प्रेरित खंभा और ख़िड़कियां दिखाई देती हैं, तो वहीं राजपूत और मुग़ल वास्तुकला से प्रभावित छज्जे, छतरी और जालियां भी दिखाई देती हैं। और फिर वायसराय हाउस (राष्ट्रपति भवन) के ऊपर बना गुंबदनुमा ढांचा सांची स्तूप की याद तो दिलाता ही है। लेकिन वायसराय हाउस ही कारण बना लुट्यंस और हरबर्ट बेकर के बीच हुई एक बड़ी नोंक-झोंक का।

हुआ यूं कि लुट्यंस चाहते थे कि वायसराय का शाही भवन रायसीना पहाड़ी के ऊपर विराजमान अकेला एक ढांचा हो, ताकि उसे शासकों के प्रभुत्व का प्रतीक माना जाए। लेकिन बेकर चाहते थे कि सचिवालय भी उसी सतह पर बनाया जाए, ताकि नागरिकों को ये संदेश जा सके कि प्रशासनिक और प्रबंधक शाखाएं एक साथ मिलकर लोगों के लिए काम करेंगीं।

इस बहस में आख़िरकार बेकर की ही बात ऊपर रखी गई लेकिन उसका नतीजा ये हुआ कि वायसराय हाउस जाने वाली सड़क की ऊंचाई की वजह से भवन ओझल हो जाता है। इसके बाद लुट्यंस और बेकर के रास्ते अलग हो गए।

कनॉट प्लेस के निर्माणकर्ता रॉबर्ट टॉर रसैल का नाम भी इस शहर की बनावट की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। कनॉट प्लेस की बनावट घोड़े की नाल की बनावट से मेल खाती है और इसके ढ़ांचे की प्रेरणा ब्रिटेन में स्थित रॉयल क्रीसेंट से ली गई थी।

कनॉट प्लेस या सीपी को दिल्ली का दिल कहा जाता है और वास्तुकार स्नेहांशु मुखर्जी के शब्दों में कहें तो ये दिल्ली का ड्रॉइंग रूम है। पिछले कुछ सालों में शहर में खड़े किए गए एक से एक शॉपिंग मॉल्स भी सीपी की कशिश उससे छीन नहीं पाएं हैं।

आज़ादी के बाद क्या आज़ाद हुई वास्तुकला?

जाने माने संरक्षण वास्तुकार एजीके मेनन बताते हैं कि आज़ादी के बाद का वक़्त दिलचस्प था क्योंकि वो एक ऐसा समय था कि जब भारतीय वास्तुकारों के पास मौक़ा था अपनी एक अलग पहचान बनाने का। लेकिन ऐसा हुआ नहीं, जिसका नतीजा शहर की वर्तमान वास्तुकला की विविधता में देखने को मिलता है।

1947 में जब भारत ब्रितानी चंगुल से आज़ाद हुआ, तब भारतीय लोगों में एक देशभक्ति की लहर दौड़ रही थी, और इस भावना से यहां के वास्तुकार भी अछूते नहीं रहे थे। कोई नहीं चाहता था कि भारत के भविष्य का चेहरा बीते हुए कल की याद दिलाए। लेकिन फिर जितना निर्माण कार्य ब्रितानी शासनकाल के दौरान दिल्ली में हो चुका था, उसे मिटाया भी नहीं जा सकता था।

विदेश से पढ़ाई कर देश आए कुछ भारतीय वास्तुकारों पर आधुनिक शैली ने अपनी छाप छोड़ी थी, और वे चाहते थे कि आधुनिकता की लहर भारत की वास्तुकला को भी छुए। तभी तो आज़ादी के बाद हुए निर्माण कार्य में देशज तथा पश्चिमी शैली की मिश्रित छटा दिखाई देती है।

सर्वोच्च न्यायालय भवन, कृषि भवन, विज्ञान भवन, उद्योग भवन और रेल भवन जैसा निर्माण कार्य इस बात का एक प्रमाण है। इन इमारतों में छज्जे और छतरियों के साथ-साथ गुंबदों को भी प्राथमिकता दी गई।

क्यों नहीं बने भव्य ढांचे?

जाने-माने वास्तुकार स्नेहांशु मुखर्जी बताते हैं कि आज़ादी के बाद का माहौल बिलकुल अलग था क्योंकि भारत साम्राज्यवादी शासन से लोकतंत्र की ओर अग्रसर हुआ था।

विशालकाय और भव्य इमारतों से अपने साम्राज्य का प्रभुत्व दिखाना एक ओर जहां ब्रितानी शासकों की प्राथमिकता थी, वहीं आज़ाद भारत नेताओं की प्राथमिकता लोगों को दबाना नहीं, बल्कि उन्हें प्रशासन के क़रीब लाने की थी।

स्नेहांशु मुखर्जी कहते हैं, “आज़ाद भारत के राजनेता रूस के समाजवादी ढांचे से बेहद प्रभावित हुए थे और इस रवैये का प्रतिबिंब उस वक्त की वास्तुकला में भी दिखाई पड़ता है। महात्मा गांधी बेहद सादगीपसंद व्यक्ति थे और उनके व्यक्तित्व का प्रतिबिंब उनकी समाधि में झलकता है। हालांकि राजघाट काफ़ी मशहूर है और हर दिन हज़ारों लोग वहां गांधी दर्शन करने जाते हैं। लेकिन चूंकि वो एक भव्य और विशाल स्मारक नहीं है, तो वो लोगों के मन पर उतनी गहरी छाप नहीं छोड़ पाता जितना कि इंडिया गेट या राष्ट्रपति भवन.”

ब्रितानी शासकों ने दिल्ली का निर्माण केवल एक प्रशासनिक मक़सद से किया जबकि आज़ादी के बाद सरकार की चिंता ये थी कि पाकिस्तान और बाकी जगहों से आए लाखों शरणार्थियों को आवास कैसे प्रदान किया जाए। यानी साम्राज्यवाद और सामाजवाद के बीच का ये सफ़र दिल्ली की वर्तमान पहचान बन कर रह गया।

हालांकि एजीके मेनन इस बात पर फ़ख़्र महसूस करते हैं कि दिल्ली की वास्तुकला पिछले 63 सालों में इतनी विविध हो चुकी है कि यहां के वास्तुकार पूरे विश्व को एक पाठ पढ़ा सकते हैं।

वे कहते हैं, “हमारी ताकत हमारी लोकतांत्रिक विविधता में ही है। अगर देखा जाए तो लुट्यंस और बेकर ने भी तो अपनी वास्तुकला में एक तरह का मिश्रण ही पैदा किया था। आज भी आधुनिक और सांस्कृतिक तत्वों का मिश्रण दिल्ली में देखने को मिलता है और ये ही हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि है। लेकिन ये दुःखद बात है कि पश्चिमी देशों ने हमें हर बात में एक तुलना करने की आदत सी डाल दी है, जिसके कारण हम अपने बहुमूल्य वास्तुकला की विविधता को वो महत्व नहीं दे पा रहे हैं, जो हमें देना चाहिए.”

आज़ादी के बाद राज रवेल जैसे प्रख्यात भारतीय वास्तुकारों ने वास्तुकला के क्षेत्र में कई एक्सपेरिमेंट किए, जिसने कई ख़ूबसूरत और विविध इमारतों को जन्म दिया।

‘वास्तुशिल्प के साथ सौतेला व्यवहार’

ज़्यादातर वास्तुकार मानते हैं कि आज़ाद भारत में जवाहरलाल नेहरू के बाद शायद ही किसी और नेता को शहर की वास्तुकला के विषय में दिलचस्पी लेते देखा गया।

सरकारों के उदासीन रवैए को दुखद बताते हुए एजीके मेनन कहते हैं कि वास्तुकला के साथ हमेशा ऐसा व्यवहार किया गया जैसे कि एक अनाथ बच्चे के साथ समाज में किया जाता है।

हाल ही में दिल्ली में आयोजित हुए राष्ट्रमंडल खेलों का उदाहरण देते हुए वे कहते हैं, “ये शर्म की बात है कि दिल्ली सरकार ने जिन वास्तुकारों को चुना, उनमें से ज़्यादातर विदेशी सहकर्ता थे मगर उन्होंने बनाया क्या? शहर के सांस्कृतिक पहचान को खदेड़ने वाले भद्दे ढांचे! हाल ही में पटना सरकार ने एक संग्राहलय बनवाने के लिए पांच विदेशी वास्तुकारों को चुना जिससे ये संदेश जाता है कि आज़ादी के 63 साल बाद भी हमारी मानसिकता उपनिवेशी शक्तियों के अधीन है। मुझे यक़ीन है कि आज अगर कोई नई राजधानी बनाई जाती है, तो सरकार विदेशी वास्तुकारों को ही महत्ता देगी.”

उनका कहना है कि जहां दूसरे देशों की सरकार अपने वास्तुकारों को प्रोत्साहित करती है, वहीं हमारी सरकार ने स्वदेशी वास्तुकारों की अद्भुत क्षमता को परखने की कोशिश ही नहीं की।

उदारीकरण का प्रभाव

दिल्ली में तेज़ी से बढ़ते निर्माण कार्य के बीच 1973 में दिल्ली अर्बन आर्ट्स कमीशन की स्थापना की गई। इस कमीशन का मक़सद था शहर की कलात्मक ख़ूबसूरती का संतुलित रूप से विस्तार करना और निर्माण कार्य की गति पर ब्रेक लगाना ताकि शहर की पहचान को खोने से बचाया जा सके।

स्नेहांशु मुखर्जी का कहना है कि इस मक़सद में दिल्ली अर्बन आर्ट्स कमीशन पूरी तरह से सफल नहीं हो पाई है जिसका उदाहरण शहर में हो रहे असंतुलित निर्माण में देखने को मिलता है।

कनॉट प्लेस को ही ले लीजिए। कनॉट प्लेस को जब रॉबर्ट टॉर रसैल ने बनाया था, तो उन्होंने जान बूझ कर उस परिसर को बहुमंज़िला नहीं होने दिया, ताकि वहां आने वाले लोग खुले आसमान का लुत्फ़ उठा सके मगर उदारीकरण के दौर में कनॉट प्लेस के इर्द-गिर्द बड़े ही अनियमित तरीके से कई ऊंची-नीची इमारतें खड़ी की जाने लगीं।

स्नेहांशु मुखर्जी का कहना है कि जब तक सरकार ने इस प्रक्रिया पर रोक लगाने की सोची, तब तक बहुत देर हो चुकी थी और नतीजतन कनॉट प्लेस की रूपरेखा खोखली बन कर रह गई। दूसरी ओर एजीके मेनन का मानना है कि दिल्ली शहर को गुड़गांव जैसा होने से बचाना, कमीशन की एक बड़ी उपलब्धि है।

दिल्ली का वास्तुशिल्पीय भविष्य

नब्बे के दशक में उदारीकरण का दौर आने से भारत की अर्थव्यवस्था के साथ-साथ वास्तुशिल्प ने भी एक नया मोड़ लिया और शीशे से बनी गगनचुंबी इमारतों ने दिल्ली की कायापलट ही कर डाली। स्नेहांशु मुखर्जी का कहना है कि शीशे से बनी डब्बानुमा इमारतों को अब आधुनिकता का प्रतीक माना जाने लगा है।

लेकिन इन इमारतों की रूपरेखा पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए स्नेहांशु कहते हैं कि ऐसी इमारतों का क्या फ़ायदा जिसमें वातावरण को साथ लेकर न चला जा सके और जिसमें एयर कंडिश्नर के बिना सांस लेना दूभर हो जाए? लेकिन इन डब्बानुमा इमारतों को एजीके मेनन की नज़र से देखें, तो वे इन्हें भविष्य का एक लाज़मी हिस्सा मानते हैं.architecture

जब एजीके मेनन से मैंने पूछा कि आगे का रास्ता क्या है, तो उन्होंने कहा “बड़ी-बड़ी इमारतें और स्मारक तो बनते रहेंगें। भारत में बहुत से वास्तुकार हैं जो जब चाहे तब एक नया ताजमहल खड़ा कर सकते हैं। लेकिन वो मेरी प्राथमिकता सूची में कतई नहीं है। मेरी चिंता तो ये है कि भव्य ढांचे बनाने से पहले क्या हम अपने शहर की आवासीय ज़रूरत को पूरा करने में सक्षम हैं? ये एक कड़वी सच्चाई है कि अगर हम सभी शहरवासियों की मूलभूत ज़रूरत नहीं पूरी कर पा रहे हैं, तो ये वास्तुकारों और सरकार दोनों की ही असफलता दर्शाता है.”

शायद यही वो कारण है कि आज़ादी के बाद भव्य स्मारक और इमारतें बनाने के बजाय सरकार ने आवासीय योजना पर ज़्यादा बल दिया। आखिर दिल्ली शहर पूरे भारत की जनता के लिए एक चुंबक की तरह है और यहां की आबादी हर दिन बढ़ती नज़र आती है। आज़ादी के बाद इस शहर ने सभी को अपनाया, चाहे वो कोई शरणार्थी हो या छोटे शहरों से बड़े सपने ले कर आने वाले लाखों लोग।

इन लाखों लोगों की आवासीय ज़रूरतें पूरी करने में दिल्ली बेशक असमर्थ रही हो, लेकिन यहां की वास्तुकला विभिन्न साम्राज्यों के अनुरूप ख़ुद को ढालने में कामयाब रही है। शायद इसकी विविधता ही इसकी सबसे बड़ी ताकत भी रही है।

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