(1) Temporary citizens no longer :-

चुनावों के नतीजे कुछ भी आए हों लेकिन अभी भी सबकुछ पहले जैसा ही है। आंग सान ने इलेक्शन तो जीत लिया लेकिन वह अभी भी रोहिंग्या मुस्लिमों को लेकर चुप्पी साधे हैं। जी हां यह सब कहना है वेस्ट दिल्ली के विकासपुरी में रहने वाली 32 वर्षीय ओमार लिन का। ओमार रोहिंग्या कम्यूनिटी से ताल्लुक रखती हैं जिन्हें म्यांमार से देश निकाला देने के बाद 2014 से यहां दिल्ली में रहना पड़ रहा। हालांकि ओमार अकेली नहीं है उनके जैसे हजारों रोहिंग्या मुसलमानों को म्यांमार के राखिन में अपना घर छोड़कर आने पर मजबूर होना पड़ा। म्यांमार में इन रोहिंग्या मुसलमानों को वहां की नागरिकता नहीं दी जाती, उनके ऊपर गैरकानूनी रूप से बांग्लादेशी अप्रवासियों को ठप्पा लगाया गया है। इसकी असल वजह राखिन में रहने वाले बुद्विस्ट हैं जो समय-समय पर रोहिंग्या समुदाय के लोगों के साथ हिंसा करते हैं। यह सिलसिला 2012 से चल रहा है। The Citizenship Act of 1982 के मुताबिक, म्यांमार में 135 समुदायों को नागरिकता के अधिकार क्षेत्र में रखा गया है, जिसमें कि रोहिंग्या का नाम नहीं है। ओमार के पति निजामुद्दीन बताते हैं कि 1982 के बाद रोहिंग्या समुदाय के लोगों को 'अस्थाई नागरिकता' कार्ड दिया गया था। यह एक पर्ची की तरह होता है जिसे आइडेंटी प्रूफ भी नहीं माना जाता।

(2) Banned from the ballot :-

ओमार लिन बताती हैं कि, उनके समुदाय को चुनावों में वोट डालने पर भी प्रतिबंध लगाया जाता है। हालांकि 2010 के आम चुनाव में रोहिंग्या समुदाय के सिर्फ चुनिंदा लोगों को ही वोटिंग का अधिकार मिला। जिसमें कि 220 को Rakhine capital of Sittwe, 72 को Maungdaw और 33 को Budhitaung क्षेत्र से वोट डालने दिया गया। वहीं दूसरी तरफ 7.6 लाख रोहिंग्या लोग अभी भी वोट डालने से वंचित हैं।

(3) A vote for the majority :-

म्यांमार में Arakan National Party पूरी तरह से राखिन समुदाय की है। ऐसे में वहां पर रोहिंग्या समुदाय को उतनी तवज्जो नहीं मिलती। ANP एक हार्डलाइन बुद्विस्ट पार्टी है। ऐसे में जब आंग सान सूकी की नेशनल लीग डेमोक्रेटिक पार्टी सत्ता में बढ़त बनाने आई, तो यह काफी नहीं था। हालांकि आंग सान ने Maungdaw और Budhitaung से रोहिंग्या कैंडीडेट चुनाव में उतारा लेकिन इलेक्शन के 2 महीने पहले ही सरकार ने रोहिंग्या उम्मीदवारों पर चुनाव लड़ने पर बैन लगा दिया था। ऐसे में आंग सान को मजबूरन इन कैंडीडेट्स को हटाना पड़ा।

(4) Sharing power :-

निजामुद्दीन बताते हैं कि, आंग सान को रोहिंग्या समुदाय से हमदर्दी है। ऐसे में वह संविधान में पॉवर शेयरिंग एरेजमेंट की बात रख सकती हैं। लेकिन 2008 में संविधान के अनुरुप सत्ताधारी सेना को पार्लियामेंट में 25 परसेंट गारंटी सीट देने की बात कही गई है। इस लिहाज से सेना होम, डिफेंस और बॉर्डर अफेयर्स मंत्रालय को अपने हाथ में रखती है। जिसके चलते सीमावर्ती इलाकों में रोहिंग्या को रहने में थोड़ी परेशानी जरूर होगी। इसके अलावा सेना ने संविधान में यह भी बदलाव किया कि, यदि किसी का विदेशी संबंध होता है तो वह म्यांमार का राष्ट्रपति नहीं बन सकता। इस नियम के अनुसार आंग सान पहले ही रेस से बाहर हो गई हैं क्योंकि उन्होंने एक ब्रिटिश से शादी की है। इस तरह आंग सान का राष्ट्रपति न बन पाना रोहिंग्या समुदाय के लोगों के लिए सबसे बड़ा झटका है।

(5) Point of return :-

दिल्ली में रहने वाले रोहिंग्या समुदाय के लोगों वापस अपने घर जाना चाहते हैं। निजामुद्दीन अपना दर्द सुनाते हैं कि, वह म्यांमार में United Nations High Commissioner के रिफ्यूजी होस्टल्स की सुपरवाइजरी करते थे। जहां 2012 में हुई हिंसा में सरकार ने UNHCR के 24 कर्मचारियों को अरेस्ट कर लिया था, जिसमें वह भी शामिल थे। हालांकि भारत में भी रोहिंग्या समुदाय के लिए जिंदगी आसान नहीं है। उनकी गिनती माइग्रेट में होती है। निजामुद्दीन बताते हैं कि, उनकी तीन बेटियां हैं जिसको लेकर वह काफी चिंतित रहते हैं। ऐसे में बस यही इच्छा है कि भारत या म्यांमार कहीं न कहीं उन्हें बस नागरिकता मिल जाए।

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Courtesy : scroll.in

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