कहानी
बस यूँ समझ लीजिये की गैंग्स ऑफ़ वासेपुर के जो सीन काट के फ़ेंक दिए गए होंगे, उनको रिशूट कर लिया गया है। और जो बन कर आया वो ये फिल्म है, या फिर बोले तो 'गरीबों की पल्प फिक्शन'।

समीक्षा
अब पता नहीं क्यों, वो समय चरम पर है जब आपके पास किसी स्टार जैसे नवाज़उद्दीन सिद्दीकी की डेट्स हों तो ऐसा माना जाता है की आपको कहानी की ज़रुरत ही नहीं है, कुछ भी परोस दो तो लोग हजम कर ही लेंगे। नवाज़ के साथ ही फिल्म में दिव्या दत्ता, बिदिता और  बंगाली स्टार तोतारॉय भी है,सोचा था फिल्म ज़बरदस्त होगी पर फिल्म पूरी तरह से निराश करती है। बेमतलब का वाइलेंस जो न तो कोई मेसेज देता है और न ही कोई मनोरंजन। एक वक़्त तक आते आते आपके कान और सर में भयंकर दर्द हो जाता है। हमें कई बार ये समझना ज़रूरी होता है की जो कहानी हम देख रहे हैं, वो असल में क्या सुनाने या देखने लायक है। क्या वो हमें कुछ सिखाती है या बेमतलब ही हम अपना वक़्त और पैसा बर्बाद कर रहे हैं उसे देखने के लिए। तीन शब्द जो फिल्म के पोस्टर पर हैं, जो मैं न तो बोलना चाहूँगा और न ही लिखना चाहूगा वो फिल्म के 'हीरो' की क्वालिटी हैं, क्यों मैं एक ऐसे इंसान की कहानी पर फिल्म देखना चाहूँगा या आप ही देखना चाहेंगे। डकैतों की कहानियां इस समाज में किस काम की हैं। फिल्म में दो चार रोमांचक सीन हैं पर उतने ही हैं। बाकी की फिल्म एक टॉर्चर सी है।

 




अदाकारी

नवाज़ को अब ऐसी फिल्मों से बचना चाहिए वरना जो इज्ज़त उन्होंने अच्छी फिल्में जैसे गैंग्स ऑफ़ वासेपुर, बदलापुर और बजरंगी भाईजान जैसी अच्छी फिल्में करके अर्जित की है, सब मिटटी में मिल जानी है। फिल्म में किसी की एक्टिंग बुरी नहीं है, बस फिल्म ही बुरी है।

कुलमिलाकर ये फिल्म लालमिर्च के पाउडर जैसी है अगर आपने किसी तरह खा भी ली तो बाद में जलन दे गी, फिर भी अगर आप बिना बात की हिंसा को प्रोमोट करने वाली बे सर पैर की फिल्म देखना चाहते हैं तो जाकर बाबु बिहारी की महागाथा 'बाबूमोशाय बन्दूकबाज़' देख सकते हैं।

रेटिंग : 1.5 *

Review by : Yohaann Bhaargava

 

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