(1) बम फेंकने से इंकार नहीं

8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने मिलकर असेंबली में 2 बम फेंके थे। 6 जून 1929 को दिल्ली के सेशन जज मि. लियोनार्ड मिडिल्टन की अदालत में इस केस की सुनवाई की गई। यहां पर भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त पर दो आरोप लगाए गए - (1) क्या वास्तव में असेंबली में बम फेंके गए थे, यदि हां तो क्यों? (2) निचली अदालत में हमारे ऊपर जो आरोप लगाए हैं वे सही हैं या गलत? इसके बाद भगत सिंह ने अपने पक्ष में एक ऐतिहसिक बयान दिया। उन्होंने कहा कि पहले प्रश्न के पहले भाग के लिए हमारा उत्तर स्वीकारात्मक है, लेकिन तथाकथित चश्मदीद गवाहों ने इस मामले में जो गवाही दी है वह सरासर झूठ है। चूंकि हम बम फेंकने से इंकार नहीं कर रहे हैं इसलिए यहां इन गवाहों के बयानों की सच्चाई की परख भी होनी चाहिए।

(2) क्यों फेंका, यह भी जान लें

अब यहां बम क्यों फेंकने की बात आती है, तो हमें इस बमकांड जैसी ऐतिहासिक घटना के कुछ विस्तार में जाना पड़ेगा। हमने वह काम किस अभिप्राय से तथा किन परिस्थितियों के बीच किया, इसकी पूरी एवं खुली सफाई आवश्यक है। जेल में हमारे पास कुछ पुलिस अधिकारी आए थे। उन्होंने बताया कि लार्ड इर्विन ने इस घटना के बाद ही असेंबली के दोनों सदनों के सम्मिलित अधिवेशन में कहा है कि, 'यह विद्रोह किसी व्यक्ित विशेष के खिलाफ नहीं, वरना संपूर्ण शासन व्यवस्था के विरुद्ध था।' यह सुनकर हमने तुरंत भांप लिया कि लोगों ने हमारे इस काम के उद्देश्य को सही तौर पर समझ लिया है। हमें किसी से व्यक्तिगत द्वेष नहीं है हम न तो बर्बरतापूर्ण उपद्रव करने वाले देश के कलंक हैं, जैसा कि सोशलिस्ट कहलाने वाले दीवान चमनलाल ने कहा है, और न ही हम पागल हैं, जैसा कि लाहौर के 'ट्रिब्यून' तथा कुछ अन्य अखबारों ने सिद्ध करने का प्रयास किया है। हम तो केवल अपने देश के इतिहास, उसकी मौजूदा परिस्थिति तथा अन्य मानवोचित आकांक्षाओं के मननशील विद्यार्थी होने का विनम्रतापूर्वक दावा भर कर सकते हैं।

(3) ताकि गोरों को मिले कड़ी चेतावनी

आक्रामक उद्देश्य से जब बल का प्रयोग होता है उसे हिंसा कहते हैं, और नैतिक दृष्टिकोण से उसे उचित नहीं कहा जा सकता। लेकिन जब उसका उपयोग किसी वैध आदर्श के लिए किया जाता है तो उसका नैतिक औचित्य भी होता है। किसी हालत में बल-प्रयोग नहीं होना चाहिए, यह विचार काल्पनिक और अव्यावहारिक है। इधर देश में जो नया आन्दोलन तेजी के साथ उठ रहा है, और जिसकी पूर्व सूचना हम दे चुके हैं वह गुरु गोविन्दसिंह, शिवाजी, कमाल पाशा, रिजा खां, वाशिंगटन, गैरीबाल्डी, लफायत और लेनिन के आदर्शों से ही प्रस्फुरित है और उन्हीं के पद-चिन्हों पर चल रहा है। चूँकि भारत की विदेशी सरकार तथा हमारे राष्ट्रीय नेतागण दोनों ही इस आन्दोलन की ओर से उदासीन लगते हैं और जानबूझकर उसकी पुकार की ओर से अपने कान बन्द करने का प्रयत्न कर रहे हैं, अतः हमने अपना कर्त्तव्य समझा कि हम एक ऐसी चेतावनी दें जिसकी अवहेलना न की जा सके।

(4) किसी व्यक्ित को चोट पहुंचाना उद्देश्य नहीं

अभी तक हमने इस घटना के मूल उद्देश्य पर ही प्रकाश डाला है। अब हम अपना अभिप्राय भी स्पष्ट कर देना चाहते हैं। यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि इस घटना के सिलसिले में मामूली चोटें खानेवाले व्यक्तियों अथवा असेम्बली के किसी अन्य व्यक्ति के प्रति हमारे दिलों में कोई वैयक्तिक विद्वेष की भावना नहीं थी। इसके विपरीत हम एक बार फिर स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि हम मानव-जीवन को अत्यन्त पवित्रा मानते हैं और किसी अन्य व्यक्ति को चोट पहुँचाने के बजाय हम मानव-जाति की सेवा में हंसते-हंसते अपने प्राण विसर्जित कर देंगे। हम साम्राज्यवाद की सेना के भाड़े के सैनिकों जैसे नहीं हैं जिनका काम ही हत्या होता है। हम मानव-जीवन का आदर करते हैं और बराबर उसकी रक्षा का प्रयत्न करते हैं। इसक बाद भी हम स्वीकार करते हैं कि हमने जान-बूझकर असेम्बली भवन में बम फेंके।

(5) पुलिस के सामने किया सरेंडर

इसके बाद हमने इस कार्य का दण्ड भोगने के लिए अपने-आप को जान-बूझकर पुलिस के हाथों समर्पित कर दिया। हम साम्राज्यवादी शोषकों को यह बता देना चाहते थे कि मुट्ठी-भर आदमियों को मारकर किसी आदर्श को समाप्त नहीं किया जा सकता और न ही दो नगण्य व्यक्तियों को कुचलकर राष्ट्र को दबाया जा सकता है। हम इतिहास के इस सबक पर जोर देना चाहते थे कि परिचय-चिन्ह तथा बास्तीय (फ्रांस की कुख्यात जेल जहाँ राजनीतिक बन्दियों को घोर यंत्राणाएँ दी जाती थीं) फ्रांस के क्रान्तिकारी आन्दोलन को कुचलने में समर्थ नहीं हुए थे, फाँसी के फन्दे और साइबेरिया की खानें रूसी क्रान्ति की आग को बुझा नहीं पायी थीं। तो फिर, क्या अध्यादेश और सेफ्टी बिल्स भारत में आजादी की लौ को बुझा सकेंगें? षड्यंत्रों का पता लगाकर या गढ़े हुए षड्यंत्रों द्वारा नौजवानो को सजा देकर या एक महान आदर्श के स्वप्न से प्रेरित नवयुवकों को जेलों में ठूंसकर क्या क्रान्ति का अभियान रोका जा सकता है? हाँ, सामयिक चेतावनी से, बशर्ते कि उसकी उपेक्षा न की जाय, लोगों की जानें बचायी जा सकती हैं और व्यर्थ की मुसीबतों से उनकी रक्षा की जा सकती हैं। आगाही देने का यह भार अपने ऊपर लेकर हमने अपना कर्त्तव्य पूरा किया है।

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