सैम मानिकशॉ का जन्म

3 अप्रैल, 1914 को जन्में सैम मानेकशॉ का पूरा नाम शाहजी होर्मूसजी फ्रेमजी जमशेदजी मानेकशॉ था। उनका जन्म एक पारसी परिवार में हुआ था। जानकारी के मुताबिक पहले उनका परिवार गुजरात के वलसाड शहर में रहता था, लेकिन बाद में पंजाब शिफ्ट हो गया। मानेकशॉ ने अपनी शुरुआती पढ़ाई अमृतसर से की, बाद में वे नैनीताल के शेरवुड कॉलेज में दाखिल हो गए।

पिता के ना चाहते हुए भी मिलिट्री में भर्ती हुए सैम

कहा जाता है कि सैम के पिता नहीं चाहते थे कि उनका बेटा कभी सेना का हिस्सा हो, लेकिन सैम ने अपने पिता की बात नहीं मानी और उन्होंने देहरादून के इंडियन मिलिट्री एकेडमी के पहले बैच में दाखिला ले लिया, इस बैच में सिर्फ 40 स्टूडेंट्स को चुना गया था। बता दें कि सैम को सबसे पहले शोहरत साल 1942 में मिली। बताया जाता है कि दूसरे विश्व युद्ध के दौरान बर्मा में एक जापानी सैनिक ने सैम को सात गोलियां मारी थी, जिससे वे बुरी तरह घायल हुए थे। जब वे घायल हुए तो आदेश जारी किया गया कि सभी घायलों को उसी अवस्था में छोड़ दिया जाए क्योंकि अगर उन्हें वापस लाया गया तो पीछे हटती बटालियन की गति धीमी पड़ जाती, लेकिन उनका अर्दली सूबेदार शेर सिंह उन्हें अपने कंधे पर उठा कर पीछे लाया और किसी तरह से उनकी जान बचा ली।

1968 में पद्मभूषण से नवाजा गया

1946 में वे फर्स्ट ग्रेड स्टॉफ ऑफिसर बनकर मिलिट्री आपरेशंस डायरेक्ट्रेट में सेवारत रहे, विभाजन के बाद 1947-48 की कश्मीर की लड़ाई में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारत की आजादी के बाद गोरखों की कमान संभालने वाले वे पहले भारतीय अधिकारी थे। गोरखों ने ही उन्हें सैम बहादुर के नाम से सबसे पहले पुकारना शुरू किया था। तरक्की की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए सैम को नागालैंड समस्या को सुलझाने के अविस्मरणीय योगदान के लिए 1968 में पद्मभूषण से नवाजा गया।

1971 का युद्ध

1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान सैम ने मुख्य भूमिका निभाई थी। उनके ही नेतृत्व में भारत ने पाकिस्तान को बुरी तरह से पराजित किया था। दरअसल मानेकशॉ का पूर्व पाकिस्तानी राष्ट्रपति से भी जुड़ा एक मजेदार किस्सा है। बताया जाता है कि मानेकशॉ और पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति याह्या खान एक समय बहुत अच्छे दोस्त हुआ करते थे। उस समय मानेकशॉ के पास एक अमेरिकी मॉडल की मोटरसाइकिल हुआ करती थी, जो उन्होंने एक ब्रिटिश अफसर से 1947 में 1600 रुपए में खरीदी थी। यह बाइक याह्या खान को भी बेहद पसंद थी, वो इसे खरीदना चाहते थे, लेकिन मानेकशॉ इसे बेचना नहीं चाहते थे। फिर जब दोनों दशों के बीच विभाजन हुआ तो मानेकशॉ ने अपनी बाइक एक हजार रुपए में याह्या को बेच दी। याह्या बाइक लेकर पाकिस्तान चले गए और वादा किया कि वे जल्द ही पैसे भिजवा देंगे। कई साल हो गए, लेकिन मानेकशॉ को पैसे नहीं मिले।

युद्ध में हारकर चुकाया राष्ट्रपति ने कर्ज

इसके बाद 1971 में जब पाकिस्तान और भारत के बीच युद्ध हुआ, तो मानेकशॉ भारत के थल सेनाध्यक्ष थे और याह्या खान पाकिस्तान के राष्ट्रपति। लड़ाई जीतने के बाद मानेकशॉ ने कहा कि 'मैंने याह्या खान के पैसे का 24 साल तक इंतजार किया, लेकिन वह कभी नहीं मिला। आखिर उन्होंने 1947 में लिया गया उधार अपने देश को झुका कर चुकाया है।”

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