1. सौ करोड़ की रेस

बॉलीवुड को सौ करोड़ के जुनून से आज़ाद होने की सख़्त ज़रूरत है. आजकल हर फ़िल्म से सौ करोड़ कमाने की उम्मीद की जा रही है.

वहीं सच ये है कि तीन दिन में सौ करोड़ कमाने वाली फ़िल्मों को लोग 15 दिन में भूल जाते हैं.

पिछले कुछ सालों पर नज़र डालें तो सिर्फ़ 'थ्री इडियट्स' ऐसी फ़िल्म थी जिसमे कमाई भी की और जिसे लोग आज भी याद रखते हैं.

2. फूहड़ कॉमेडी

'ग़ुलाम' बॉलीवुड को चाहिए 'आज़ादी'

एक ही तरह की कॉमेडी बन रही हैं. इसमें पॉलिटिकली इनकरेक्ट ह्यूमर होता है. लोगों के शारीरिक विकार को मज़ाक के तौर पर पेश किया जाता है. इस तरह की कॉमेडी से बॉलीवुड को आज़ादी चाहिए.

3. गायन और अभिनय

'ग़ुलाम' बॉलीवुड को चाहिए 'आज़ादी'

कोई भी कुछ भी करने लगा है. इस बेतुकेपन से बॉलीवुड को चाहिए आज़ादी. हिमेश रेशमिया एक्टिंग करते हैं. सलमान ख़ान और आलिया भट्ट गाना गाते हैं.

तकनीक इतनी उन्नत हो गई है कि बेसुरे लोगों की आवाज़ भी सुनने लायक तो बन ही जाती है.

लेकिन हमें तकनीक के इस्तेमाल से बनाई आवाज़ें नहीं चाहिए.

हिमेश रेशमिया एक्टिंग से पहले देख लें कि रोल कैसा है उस हिसाब से फिर एक्टिंग करें और मुमकिन हो तो एक्टिंग ही ना करें.

4. आइटम नंबर

'ग़ुलाम' बॉलीवुड को चाहिए 'आज़ादी'

बहुत हुआ. अब बेसिरपैर के आइटम नंबरों से हमें आज़ादी चाहिए. तकरीबन हर आइटम नंबर एक जैसा लगता है.

इसमें एक से लिबास पहने हीरोइन, एक जैसे दिखने वाले एक्स्ट्रा डांसर (जिनमें से ज़्यादातर विदेशी लड़कियां होती हैं) के साथ एक जैसे स्टेप्स करती हैं.

और इन गानों का फ़िल्म से कोई लेना-देना नहीं होता.

5. हिंदी से अनजान हीरोइन

'ग़ुलाम' बॉलीवुड को चाहिए 'आज़ादी'

हिंदी फ़िल्मों के लिए हिंदी ना जानने वाली हीरोइनों से आज़ादी चाहिए. कटरीना कैफ़ जैसी हीरोइन हैं जिनसे हिंदी आती ही नहीं.

लेकिन चूंकि वो सुंदर हैं तो बस चले जा रही हैं. हिंदी बोलती भी हैं तो ऐसे अंग्रेज़ी लहज़े में कि बस भगवान बचाए.

6. रीमेक

'ग़ुलाम' बॉलीवुड को चाहिए 'आज़ादी'

हर दूसरी फ़िल्म किसी दक्षिण भारतीय फ़िल्म का रीमेक होती है. और अच्छी फ़िल्म का रीमेक बने तो बात भी ठीक.

वही घिसी पिटी थीम पर बनी बेमतलब की मारधाड़ वाली तमिल या तेलुगू फ़िल्मों का रीमेक अब नाक़ाबिले-बर्दाश्त होता जा रहा है.

7. चरित्र-चित्रण

'ग़ुलाम' बॉलीवुड को चाहिए 'आज़ादी'

मज़बूत महिला के किरदार का घिसा पिटा चित्रण. इससे बॉलीवुड को आज़ादी चाहिए.

महिला को मज़बूत दिखाना है तो ज़रूरी तो नहीं कि वो गन ही चलाए, आक्रामक हो, लोगों को गालियां दें.

चाहे वो 'रामलीला' की दीपिका पादुकोण हों या 'मटरु की बिजली का मंडोला' की अनुष्का. सारे किरदार एक जैसे लगते हैं.

आप महिला सशक्तिकरण को दूसरे तरीके से भी दिखा सकते हो. मानसिक मज़बूती की बात कर सकते हो.

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