- वक्त के साथ बदल गया छात्र संघ चुनाव का रंग

- यूनिवर्सिटी के छात्र संघ चुनावों में पहले होते थे बड़े मुद्दे

- यूनिवर्सिटी में ना अब वो नेतागीरी रही और ना ही उनके मुद्दे

- 91 में हुए पहले चुनाव में होते थे छह पदाधिकारी अब पांच

Meerut: समय बदला और छात्र संघ चुनावों के रंग-ढंग भी बदल गए। जहां कभी छात्र संघ चुनाव लड़ने वाले छात्र नेता बड़े मुद्दों को लेकर मैदान में उतरते थे। जब चुनाव होते थे यूनिवर्सिटी चुनावी रंग में ऐसी रंग जाती थी, कि देखने लायक होती थी। चुनाव के दिन यूनिवर्सिटी की सड़कें पंफलेट और बैनर्स से भर जाती थीं। स्टूडेंट्स लीडर और वोट देने वालों में एक जोश व उमंग नजर आती थी। आज वही उमंग हुड़दंग और हल्ले-गुल्ले में बदल गई है। ना मुद्दे हैं ना रणनीति। पूरा साल निकल जाता है कुछ पता ही नहीं चलता। पूरे साल क्या हुआ और किसने क्या किया?

पुराना इतिहास

सीसीएस यूनिवर्सिटी कैंपस में क्99क् में पहला छात्र संघ चुनाव हुआ था। जिसमें छात्र संघ के लिए छह पद थे। अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, महासचिव, सहायक सचिव क्रीड़ा, सहायक सचिव सांस्कृतिक और कोषाध्यक्ष का पद। क्99ब्-9भ् में हुए चुनावों में यही पद घटकर पांच रह गए। जिनमें अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, महासचिव, संयुक्त सचिव और कोषाध्यक्ष शामिल हैं। क्99क् में पहला जीतने वाला अध्यक्ष विध्नेश त्यागी, महासचिव प्रेमनाथ मिश्रा, सहायक सचिव क्रीड़ा रुचिका माथुर, सहायक सचिव सांस्कृतिक नरेंद्र शर्मा और कोषाध्यक्ष मुकेश कुमार रहे थे।

बदलता गया राजनीतिक रूप

ख्00भ्-0म् में चुनाव हुए और आगे के लिए बैन हो गए। छह साल बाद जाकर ख्0क्ख् में फिर छात्र संघ चुनाव हुए। इससे पहले होने वाले सभी चुनावों में राजनीति का पलड़ा काफी भारी होता था। कोई किसी पार्टी से नहीं होता था बल्कि लोग अपने बलबूते स्टूडेंट्स को अपनी ओर खींचते थे। ख्00भ्-0म् में हुए चुनाव में अध्यक्ष पद पर ईश्वर चंद सागर जीता था। वहीं पहली बार उपाध्यक्ष पद पर बीटेक का स्टूडेंट अनुज प्रताप रहा था। इनके साथ महासचिव पर मोहन सारस्वत और संयुक्त सचिव पद पर केसर अब्बास ट्रेडिशनल कोर्स से रहे।

समय के साथ पार्टियों का जोर

जैसे-जैसे स्टेट में राजनीतिक रंग बदला वैसे ही स्टूडेंट्स लीडर भी राजनीति में रंग गए। ख्0क्ख् में जब चुनाव हुए तो सपा छात्र सभा, एनएसयूआई और एबीवीपी का रंग उभर कर आया। यही राजनीतिक रंग कॉलेजों में भी बढ़ चढ़कर बोला। हंगामा, मारपीट जैसे हाल सामने आए। एबीवीपी का संजीव दुर्जन अध्यक्ष बना और उपाध्यक्ष पद पर भी एबीवीपी की मीनल गौतम रही। इसके बाद सपा का जोर रहा और ख्0क्फ् में हुए चुनावों में सपा छात्र सभा का जोर रहा। इस बार भी चुनाव की रणभेरी बज गई और सबसे पहले सपा छात्र सभा ने अपना पैनल उतार दिया।

अब नहीं रही वो नैतिकता

पुराने छात्र संघ लीडर्स की मानें तो कैंपस में पॉलिटिकल इंटरफेयर अधिक नहीं होता था। पॉलिटिकल पार्टीज घुसती ही नहीं थीं। तब कैंडीडेट्स की इमेज का फर्क पड़ता था। जो भी पैनल खड़ा होता था उनके साथ प्रेजिडेंशियल डिबेट होती थी। कैंडीडेट्स से यूनिवर्सिटी और स्टूडेंट्स के हित संबंधी सवाल पूछे जाते थे। एक बड़ी डिबेट होती थी। सभी पैनल्स से सवाल जवाब होते थे। ग‌र्ल्स हॉस्टल्स में भी सभी पैनल जाते थे। सभी पैनल को एक-एक करके बुलाया जाता था। उनसे हर तरह के सवाल जवाब होते थे। तब जाकर मामला आगे बढ़ता था।

अब और तब बहुत अंतर हो गया

पहले चुनाव लड़ने वाले सीनियर्स होते थे। एमफिल और पीएचडी से नीचे वाला कोई कैंडीडेट्स नहीं होता था। अब चुनाव लड़ने वाले बीटेक के स्टूडेंट्स हैं। ख्00भ् के चुनाव में पहली बार बीटेक का स्टूडेंट अनुज प्रताप जीता था। इसके बाद चुनाव पर रोक लग गई और अब अधिकतर कैंडीडेट्स बीटेक के ही खड़े हो रहे हैं। जहां पहले सीनियर्स को काफी तवज्जो दी जाती थी आज यहां एक दूसरे को पूछा भी नहीं जाता। पहले मुद्दों को लेकर आंदोलन होते थे वो भी कई-कई दिनों के और आज कोई भी आंदोलन कुछ ही समय में खत्म हो जाता है।

ये बोले

कुछ साल पहले होने वाले छात्र संघ चुनावों में काफी कुछ होता था। कैंडीडेट्स की इमेज महत्वपूर्ण होती थी। पैनल्स के साथ प्रेजिडेंशियल डिबेट हुआ करती थी। स्टूडेंट्स लीडर से सवाल जवाब होते थे। ग‌र्ल्स हॉस्टल में भी पैनल से सवाल जवाब किए जाते थे। सभी कैंडीडेट्स को यूनिवर्सिटी के बारे में पूर्ण जानकारी होती थी। परंपरा ये थी कि जूनियर अपने सीनियर से सीखते थे। अब कुछ भी वैचारिक नहीं रहा। जो भी आ रहा है वैचारिक नहीं है, उसको कुछ पता ही नहीं करना क्या है। अब वो मुद्दे ही नहीं रहे। - स्नेहवीर पुंडीर, टीचर, पूर्व स्टूडेंट लीडर

अब चुनावों में हाय-हुल्ला अधिक हो गया है। जो पहले चुनाव होते थे उनमें कैंडीडेट्स अधिक पढ़े लिखे होते थे। सभी ट्रेडिशनल कोर्स वाले और एमफिल व पीएचडी के स्टूडेंट्स होते थे। अब तो छात्र संघ चुनाव एक औपचारिकता रह गई है। स्टूडेंट्स लीडर को बड़े और छोटे का फर्क ही नहीं मालूम। क्या करना है, क्या नहीं किसी के पास कोई मुद्दा नहीं है। बस चुनाव लड़ने हैं। - प्रोफेसर वाई विमला, डीएसडब्ल्यू