समय की धारा में सिमट गया घडि़यों का वक्त

- वक्त बीतने के साथ ही खत्म होने लगे घड़ी के कारीगर

- मोबाइल ने छीनी रोजी, कुछ ने बदला पेशा तो कुछ ने समेटा दायरा

- भुखमरी की कगार पर पहुंच रहे हैं 'वक्त' को ठीक करने वाले

द्दह्रक्त्रन्य॥क्कक्त्र : 'वक्त' कहने को महज एक छोड़ा सा लफ्ज, लेकिन इसके अंदर झांक कर देखा जाए तो सागर की गहराई भी कम पड़ जाएगी। 'वक्त' साथ हो तो आसमान की बुलंदियां छूने में देर नहीं लगती, वहीं 'वक्त' खराब होने पर अर्श से फर्श पर पहुंचने में भी वक्त नहीं लगता। गोरखपुर में इन दिनों 'वक्त' का वक्त खराब है। इस दिवाली जहां पूरी मार्केट का वक्त बढि़या तरीके से बीता, वहीं वक्त के सौदागरों को ही इसका साथ न मिल सका। दिवाली के दौरान सिर्फ तीन दिनों में बिजनेस का आंकड़ा 100 करोड़ के पार हो गया, लेकिन इसमें घड़ी के सौदागरों का कांट्रीब्यूशन बमुश्किल 10 लाख ही पहुंच सका। इन दिनों उनकी हालत यह है कि अब वह दाने-दाने को मोहताज है, लेकिन उनको पूछने वाला कोई नहीं बचा है।

वक्त के कारीगरों का वक्त खराब

गोरखपुर के कई लोग ऐसे हैं जो तेज भाग रहे वक्त के साथ न चल सके और अब किसी तरह अपना गुजर-बसर कर रहे हैं। इनमें सबसे ऊपर अगर कोई नाम आता है तो वह है खुद 'वक्त' के कारीगरों का। हम बात कर रहे हैं उन घड़ीसाजों की जो दूसरों की घडि़यों का टाइम सही करते-करते आज खुद वक्त की मार झेलने के लिए मजबूर हैं। इसमें से कई ने अपने पेशे को अलविदा कह दिया तो वहीं कुछ उसी पेशे के साथ दूसरे और काम भी करने लगे। अब वक्त को पटरी पर लाने का हुनर रखने वाले हाथ खुद वक्त के गुलाम हैं।

2002 से शुरु हुआ बुरा दौर

1999-2000 के आस-पास सिटी में मोबाइल का यूज बढ़ना शुरु हुआ। 2002 तक बड़ी तादाद में सिटी के लोगों के हाथों में मोबाइल पहुंच गया। इसके बाद से घड़ी का काम करने वाले कारोबारियों का खराब वक्त शुरु हो गया। शुरुआत में तो मोबाइल आने के बाद भी लोग घडि़यों का यूज कर रहे थे, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया और सभी के हाथों में मोबाइल आ गया, वहीं से घड़ी की डिमांड घटने लगी। 2005 में जब रिलायंस ने 500 रुपए में हैंडसेट बांटा, उसी वक्त से घड़ी की डिमांड बिल्कुल गिर गई और इस वक्त सिर्फ स्टेटस सिंबल के तौर पर ब्रांडेड कंपनी की घडि़यां यूज की जा रही हैं।

60 परसेंट ने बदल दिया पेशा

वक्त की मार इन हुनरबाजों पर ऐसी पड़ी कि उन्होंने इस पेशे को अलविदा कहने में ही समझदारी समझी। जिंदगी के 50 साल इस पेशे को दे चुके नंदलाल प्रसाद की मानें तो 60 परसेंट से ज्यादा घड़ीसाज और घड़ी के दुकानदार अब ऐसे हैं जो या तो बिजनेस बदल चुके हैं या फिर दूसरे पेशे में अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। अब दिन के 100 रुपए भी कमाना मुश्किल हो गया है। एक वक्त था, जब न सिर्फ घडि़यों की डिमांड रहा करती थी, बल्कि लोगों को घड़ी लेने के लिए कई-कई दिनों तक वेट करना पड़ता था। मगर आज आसानी से अवेलबल होने के बाद भी घडि़यों को पूछने वाला कोई नहीं हैं।

पूर्वाचल में सबसे बड़ा था घड़ी का कारोबार

घडि़यों के कारोबार की बात करें तो गोरखपुर में पूर्वाचल का सबसे बड़ा कारोबार था। यहां पर सिर्फ सिटी ही नहीं बल्कि आस-पास के एरियाज के साथ दूसरे प्रदेशों से भी लोग घड़ी लेने और रिपेयर कराने के लिए आते थे। आज से 50 साल पहले सिटी में करीब 85 घडि़यों की दुकान थी, जहां पर लोकल से लेकर ब्रांडेड कंपनीज की घडि़यां मिला करती थी। इसमें भी सबसे बड़ी मार्केट रेती, अलीनगर, गोलघर और छाया कंपाउंड एरियाज में मौजूद थीं।

हर शॉप पर सीखने के लिए लगती थी लाइन

नंदलाल प्रसाद की मानें तो उस दौरान लोगों को न सिर्फ घड़ी पहनने का, बल्कि उसमें अपना करियर बनाने का भी शौक था। यही वजह थी कि सिटी की सभी दुकानों पर सिर्फ घड़ीसाजी का हुनर सीखने के लिए लोगों की लाइन लगा करती थी। हर शॉप पर 2 से 5 लोग सिर्फ काम सीखने के लिए बैठा करते थे। इसमें भी सबसे बड़ा स्टाफ राम प्रसाद ऑप्टीशियन का था।

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घड़ी बेचने के मामले में रिकॉर्ड होल्डर है गोरखपुर

यूं तो सिटी में घडि़यों का खराब दौर चल रहा है, लेकिन जब घड़ी की डिमांड रहा करती थी, उस दौरान गोरखपुर ने घड़ी बेचने के मामले में रिकॉर्ड बनाया था। बक्शीपुर स्थित यूनिवर्सल वॉच कंपनी के नंदलाल प्रसाद की मानें तो जिस दिन सुबह से लेकर शाम तक बारिश हुआ करती थी, उस दौरान भी सिटी के राम प्रसाद ऑप्टीशियन में 8 घड़ी बेची जाती थी। यह पूरे देश की किसी भी मार्केट में घड़ी बेचने का अनूठा रिकॉर्ड है, जो अबतक कायम है।

उस दौर के कुछ रिलेटर्स -

- फ्रेंड्स वॉच कंपनी

- गुलाब सिंह घड़ीसाज

- स्टैंडर्ड वॉच कंपनी

- स्टार वॉच कंपनी

- सूपर टाइम

- गुप्ता वॉच कंपनी