1- पर्यावरण संतुलन में योगदान

बरेली शहर से लगभग 15 किलोमीटर दूर स्थित है कमालपुर गांव. लगभग चार सौ किसानों के इस गांव में दूसरे गांव की बनिस्बत ज्यादातर के यहां बैलों की जोड़ी मिल जाएगी. सब्जियों के साथ फूलों की भी खेती करने वाले यहां के किसान जुताई, मड़ाई, सिंचाई और ढुलाई तक का सारा काम बैलों से ही करते हैं. ये लोग मानते हैं कि इससे पर्यावरण संतुलन बना रहता है और प्राकृतिक खाद जीवांश को बनाए रखते हैं.

2- हर साल दो करोड़ रुपये की बचत

किसान रघुवर का कहना है कि इससे लागत कम आती है. छह-सात लाख रुपये का ट्रैक्टर लें, जिसकी हर साल एक से डेढ़ लाख रुपये किश्त दें, बीस-पच्चीस हजार रुपये मरम्मत व इतना ही डीजल खर्च होता है. दो सदस्य उसे चलाने के लिए हों या ड्राइवर रखा जाए. कुल मिलाकर ट्रैक्टर पर दो लाख रुपये हर साल का खर्च आता है. जबकि सौ से ज्यादा किसान बिना ट्रैक्टर के खेती कर लगभग दो करोड़ रुपये हर साल की बचत कर रहे हैं.

3- रासायनिक खादों पर निर्भरता नहीं

किसान बेचेलाल का तर्क है कि बैलों पर कोई खर्च नहीं होता. चारा तो खेत से ही निकल आता है. बारह से पंद्रह साल तक ये बैल जुताई करते हैं. हम सब लोग तो गाय भी पालते हैं. इनसे बछड़े भी मिलते हैं और पौष्टिक दूध भी. हमने दिखा दिया है कि बैलों से भी प्रदूषण रहित आधुनिक खेती की जा सकती है. गोबर की खाद से उत्पादन भी अच्छा होता है. इसलिए खाद के मामले में भी हम लोग आत्मनिर्भर हैं. रासायनिक खादों पर आश्रित खेती का मिथक भी टूटा है.

4- गोवंश की रक्षा

कन्हई के मुताबिक ऐसा नहीं कि गांव में ट्रैक्टर खरीदने लायक किसान नहीं हैं. कई लोगों ने खरीदा भी था मगर महंगाई के कारण अब फिर लोग बैलों की जोड़ी खेतों में दौड़ाने लगे हैं. गांव के लोग बैल, भैंस व भैंसा के साथ ही गाय भी ज्यादा पालते हैं. बछड़ा देने पर गायों की यहां पूजा भी होती है. बैलों के गले में बंधी घंटियों की आवाज यहां के किसानों को ऊर्जा देती है. कमालपुर गांव के किसानों द्वारा बड़े पैमाने पर बैलों से खेती करने की सूचना पर कृषि एवं पशुपालन विभाग रिपोर्ट तैयार कर रहा है. पशु विभाग के अफसरों ने कहा है कि वे गांव का दौरा करेंगे और किसानों को मवेशियों के बारे में अतिरिक्त जानकारी देंगे.

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