मेडिकल क्षेत्र की बड़ी सफलता
'हेप्लो आइडेंटिकल' यानी अधूरे मिलान के इस ट्रांसप्लांट में मरीज के लिए डोनर मिलना काफी आसान हो जाता है. पारंपरिक रूप से ट्रांसप्लांट के लिए मरीज को अपने जुड़वां भाई-बहन में ही आसानी से मेल मिल पाता था. यहां तक कि सगे भाई-बहनों में भी बहुत कम मामलों में ही यह मेल हो पाता था. भारत में कामयाब तरीके से इस ट्रांसप्लांट को अंजाम देने वाले धर्मशिला कैंसर फाउंडेशन एंड रिसर्च सेंटर की प्रेसिडेंट डॉ. सुर्वेशा खन्ना कहती हैं कि मेल नहीं मिल पाने की वजह से अभी हमारे यहां लगभग तीस हजार जरूरतमंद में महज एक हजार को ही यह सुविधा मिल पाती है. विदेशों में इसके लिए बनाई गई रजिस्ट्री से थोड़ी मदद मिल पाती है, जहां लोग अपनी जरूरत के मुताबिक एक-दूसरे मरीज के रिश्तेदारों के साथ मिलान करवा सकते हैं. मगर भारत में ऐसा अभी भी नहीं है.

बहुत सीमित है ट्रांसप्लांट

डॉ. खन्ना के मुताबिक नई तकनीक में महज विशिष्ट किस्म के सेल के मिलान की ही जरूरत होती है. इसलिए अब मरीज को अपने मां-बाप और बच्चों तक में डोनर मिल सकता है. वे बताती हैं कि कैंसर के एक युवा मरीज में पहला ट्रांसप्लांट हुए 102 दिन पूरे हो चुके हैं. इसी तरह के तीन मरीज अभी हॉस्पिटल में और भर्ती हैं. उसके शरीर में दो किलोग्राम से अधिक का ट्यूमर था, जो पूरी तरह खत्म हो चुका है. ऐसे ट्रांसप्लांट अभी दुनिया भर में बहुत सीमित जगहों पर ही हो रहे हैं.

कैंसर के मरीजों के लिये वरदान
आम तौर पर बोन मैरो प्रत्यारोपण में डोनर और मरीज के सेल का पूरी तरह से मिलान इसलिए जरूरी होता है, क्योंकि अगर डोनर के सेल थोड़े भी अलग हुए तो मरीज का शरीर उसे स्वीकार नहीं करेगा. मगर नई तकनीक में विशिष्ट सेल का ही मिलान किया जाता है और एक आधुनिकतम मशीन की सहायता से उन्हें ही निकाल कर मरीज के शरीर में डाला जाता है. कैंसर के मरीजों को अक्सर बोन मैरो ट्रांसप्लांट की जरूरत होती है. अत: इस तरह की नई खोज से कहा जा सकता है कि यह उनके लिये किसी वरदान से कम नहीं है.

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