-40 फीसदी से कम विकलांग को नहीं मिलता राज्य सरकार की नौकरी में आरक्षण

-फिजिकल फिट वर्ग में ऐसे लोग नहीं कर सकते हैं आवेदन

-बड़ी संख्या में ऐसे विकलांग बेरोजगार काट रहे नौकरी को सरकारी दफ्तरों के चक्कर

DEHRADUN

केस वन- क्लेमेनटाउन निवासी मुकेश बिष्ट की दाएं हाथ की एक अंगुली आधी कटी हुई है। उसने विकलांग कोटे में सरकारी नौकरी पाने के लिए आवेदन किया तो उसे केवल 8 फीसदी विकलांग करार दिया गया। ऐसे में वह विकलांग कोटे के दायरे से बाहर हो गया और अन्य कोटे में भी नौकरी नहीं मिल रही है।

केस टू- कंडोली निवासी आशीष नेगी के एक कान का पर्दा खराब होने के कारण उससे सुन नहीं पाता है। सरकारी नौकरी के लिए आवेदन करता है तो उसे मेडिकल में निकाल दिया जाता है। जबकि विकलांग सर्टिफिकेट नहीं मिलने के कारण वह विकलांग कोटे में आवेदन नहीं कर पा रहा है।

स्टेट में विकलांग कोटे में सरकारी नौकरी पाने को अल्प विकलांग के लिए कोई स्थान नहीं है। सरकार भी विकलांग कोटे में उन लोगों को ही नौकरी देती है, जिनमें फिजिकल डिसएबिलिटी 40 परसेंट से अधिक है। यही वजह है कि मुकेश बिष्ट और आशीष नेगी जैसे तमाम युवा विकलांग सरकारी नौकरी के लिए खूब मेहनत करने के बाद भी सरकारी नौकरियों में सिलेक्ट नहीं हो पा रहे हैं। यह समस्या इन दो युवाओं के लिए नहीं, बल्कि अकेले उत्तराखंड में लाखों की तादात में मौजूद विकलांगों की है, जो सरकारी नौकरी की आस में बाट जोह रहे हैं। आलम यह है कि आवेदन शर्तो में योग्य नहीं होने के कारण ऐसे युवा सरकारी नौकरी को आवेदन तक नहीं कर पा रहे हैं। मुकेश व आशीष दोनों विकलांग तो हैं, लेकिन इतने नहीं कि उन्हें विकलांग कोटे में नौकरी मिल सके। इसमें बड़ी बात तो यह है कि सीएमओ ऑफिस से इन्हें मेडिकल सर्टिफिकेट तक जारी नहीं किया जाता है। कारणवश, इन दोनों जैसे युवाओं को सर्टिफिकेट मिल भी जाता है तो उसे सरकारी नौकरी में आवेदन के बाद फिजिकल डिसएविलिटी 40 परसेंट से कम होने के कारण बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है।

17,049 हैं जिले में विकलांग

सीएमओ ऑफिस के आंकड़ों पर गौर करें तो जिले में करीब 17,049 लोगों को ऐसे सर्टिफिकेट जारी किए गए हैं, जो 40 फीसदी से अधिक विकलांग है। जबकि सीएमओ ऑफिस से ही मिली जानकारी के मुताबिक 40 फीसदी से कम विकलांगता वालों को सर्टिफिकेट जारी नहीं किया जाता है। जबकि हर महीने से औसतन ऐसे 100 लोग पहुंचते हैं, जिनमें 40 फीसदी से कम विकलांगता होती है।

10 लाख से अधिक की फौज

जानकारों व स्टेंडर्ड के अनुसार विकलांगता की चार कैटेगरीज शामिल की गई है। जिसमें मानसिक विकलांगता, मंद बुद्धि, अस्थि व दृष्टि बाधित विकलांगता शामिल है। इस प्रकार से जानकार बताते हैं कि अकेले उत्तराखंड में विकलांगता की संख्या तकरीबन 10 लाख से ऊपर है। हालांकि यह भी स्पष्ट है कि अब तक राज्य में इस पर किसी प्रकार को कोई सर्वे नहीं हुआ है।

एक आंख व कान खराब होने पर विकलांग नहीं

सरकारी विभाग के मुताबिक यदि किसी की एक आंख खराब व दूसरी ठीक हो तो उसे केवल स्वास्थ्य विभाग तीस परसेंट ही विकलांग का दर्जा देता है। इतना ही एक हाथ या पैर की एक अंगुली कटने पर 30 परसेंट से कम का ही फिजिकल डिसएबिलिटी सर्टिफिकेट दिया जाता है। ऐसे में ये जरूरतमंद युवा न तो फिजिकल डिसएबिलिटी कोटे में नौकरी के हकदार हो पाते हैं और न ही जनरल कोटे में।

केंद्र के कानून के तहत नेशनल स्टेंडर्ड

बताया गया है कि 40 परसेंट विकलांगता का नेशनल स्टेंडर्ड केंद्र सरकार का कानून है, जो राज्यों में भी लागू है। इसी के तहत 40 परसेंट से कम के हैंडीकैप्ड तमाम सरकारी सुविधाओं से महरूम हो रहे हैं।

यह सच है कि 40 परसेंट विकलांगता पर ही सरकारी नौकरियों में विकलांगों को रिजर्वेशन मिलता है। लेकिन दूसरा सच यह भी है कि प्रदेश में खाली पड़े 1500 से अधिक पदों पर पिछले 15 सालों से भर्ती प्रक्रिया शुरू नहीं हो पाई। प्रदेश सरकार को इस पर सोचना चाहिए।

प्रेम कुमार, सचिव, पैराओलंपिक एसोसिएशन, उलाराखंड।

सरकारी नौकरियों में 40 परसेंट विकलांगता का नेशनल स्टेंडर्ड है। उससे नीचे की विकलांगता पर सरकारी सुविधाओं का कोई प्राविधान नहीं है। पेंशन के लिए भी वही व्यवस्था है।

पीएस जंगपांगी, पूर्व सचिव, समाज कल्याण।

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साहब मेरा डीएल बनवा दो, मैं गाड़ी चला सकता हूं

-आंशिक रूप से हैंडिकैप्ड लोग भी पहुंच रहे हैं डीएल बनवाने

-नेताओं की सिफारिशें भी नहीं आ रही काम

DEHRADUN : साहब मेरा ड्राइविंग लाइसेंस बनवा दो मैं गाड़ी चला सकता हूं। कुछ ऐसे ही आवेदन आजकल देहरादून के संभागीय परिवहन कार्यालय यानि आटीओ ऑफिस पहुंच रहे हैं। लेकिन उनका डीएल नहीं बन पा रहा है। यहां तक की कई लोग तो नेताओं और बड़े ओहदे पर बैठे लोगों की सिफारिश लेकर भी पहुंच रहे हैं, लेकिन उनका डीएल नहीं बन पा रहा है। ऐसे में इन्हें निराश होकर खाली हाथ लौटना पड़ रहा है।

फॉर्म के कॉलम में है जिक्र

ड्राइविंग लाइसेंस फॉर्म पर एक कॉलम है, जिसमें एप्लीकेंट के हेल्थ का उल्लेख है। इसमें स्पष्ट है कि अगर आप शारीरिक रूप से सक्षम या ठीक नहीं हैं तो आप गाड़ी नहीं चला सकते हैं। इसके चलते ज्यादातर लोगों का ड्राइविंग लाइसेंस नहीं बन पा रहा है। लेकिन आजकल ऐसे कई लोग आरटीओ ऑफिस पहुंच रहे हैं जो आंशिक रूप से विकलांग हैं। फिर भी उनका डीएल नहीं बन पा रहा है। क्योंकि फॉर्म पर दिए गए कॉलम के अनुसार फॉर्मलिटीज पूरी नहीं हो पा रही है। ऐसे में उनकी डीएल बनवाने की प्रक्रिया बीच में अधूरी रह जा रही है।

आरटीओ ने दिया तर्क

वहीं इसको लेकर आरटीओ डीसी पठोई का कहना है कि अगर डॉक्टर यह लिखकर देता है कि संबंधित व्यक्ति गाड़ी चला सकता है तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं है। क्योंकि कॉलम के अनुसार स्वास्थ्य संबंधित रिपोर्ट तो डॉक्टर ही वेरिफाई करके देगा। वहीं अगर डॉक्टर लिखकर भी देता है तो इसके बाद डीएल बनवाने वाले को बकायदा टेस्ट के तौर पर आरटीओ ऑफिस में वाहन चलाकर दिखाना पड़ेगा। तभी डीएल बनने की कार्रवाई पूरी हो सकती है।

डॉक्टर को देनी होगी रिपोर्ट

कई केस में तो लोग संबंधित कॉलम पर डॉक्टर के गोलमोल साइन करवाकर आरटीओ ऑफिस पहुंच रहे हैं। जबकि कॉलम के अनुसार डॉक्टर को अपने साइन और मोहर लगाने के अलावा स्पष्ट लिखना होगा कि संबंधित व्यक्ति की प्रॉब्लम क्या है और इसकी वजह से उसके गाड़ी चलाने में कोई प्रॉब्लम नहीं होगा।