- आई नेक्स्ट के 'इज्जत करो अभियान' पर हुई चर्चा

- अलग-अलग प्रोफेशन और वर्ग के लोगों ने रखी अपनी राय

LUCKNOW: 'दूधो नहाओ पूतो फलो' शायद इस आशीर्वाद की कल्पन हर कोई करता है। पुरुष प्रधान समाज में नारी जननी तो है, लेकिन पूजनीय केवल धार्मिक आस्था तक ही क्यों सीमित है। नवरात्र और धार्मिक उपवन पर हम कन्या पूजन कर अपनी रीतिरिवाज को संपन्न करते हैं, पर क्या यहीं तक हमारी जिम्मेदारी है? सड़क पर चलने वाली लड़कियों से छेड़छाड़ और अश्लील टिप्पणी करते समय उन धार्मिक आस्था को क्यों भूल जाते है? ईवटीजिंग या हैरेसमेंट करने वाले क्या मानसिक विकृत लोग है या फिर अपने आप को मर्द साबित करने का तरीका। ऐसे तमाम सवालों के जवाब तलाशने के लिए आई नेक्स्ट ने 'इज्जत करो' अभियान की कड़ी में ग्रुप डिस्कशन कराया। जिसमें सोसाइटी के अलग-अलग फील्ड के लोगों ने अपने-अपने विचार रखे। इन विचारों के मंथन ने न केवल इस सामाजिक मुद्दे पर गहन चर्चा की गई बल्कि पैनल डिस्कशन में इससे निजात पाने के लिए अहम पहलू भी तलाशे गए।

जेंडर के फर्क को भूलना होगा

लड़के और लड़कियों के बीच के फर्क को खत्म करना होगा। सोसाइटी में तब तक बदलाव नहीं आएगा जब तक उनके बीच के अंतर को खत्म नहीं किया जाएगा। डिक्शन में यहीं मुद्दा छाया रहा। बुद्धजीवियों का मानना था कि ईवटीजिंग और महिलाओं पर होने वाली हिंसा को रोकने की शुरुआत हमें अपने घर से करनी होगी। सबसे पहले हमें बच्चों को ऐसे संस्कार देंगे हो कि वह लड़कियों की इज्जत करना सीखे। इसके बाद समाज में चल रही व्यवस्था को सुचारू तरीके से लागू करने की जरूरत है।

सॉल्यूशन

- केवल आजादी देना पैरेंट्स की जिम्मेदारी नहीं है। जरूरत पड़ने पर बेटियों को लड़ने के लिए हिम्मत भी देनी होगी।

- कानून व्यवस्था बने है, लेकिन उस व्यवस्था को कड़ाई से पालन कराने की जरूरत है।

- बचपन में ही बेटी और बेटे के बीच के अंतर को खत्म करने की जरूरत है

- अपने घर से इसकी शुरुआत करे, समाज में बदलाव निश्चित नजर आएगा।

- लड़कियों को भी चाहिए कि ऐसीे स्थिति में वह डठ कर सामना करें। ताकि ईवटीजिंग करने वाली की हिम्मत टूट जाए।

- ऐसे मुद्दों के लिए सामाजिक आंदोलन की जरूरत है। ताकि उन्हें जड़ से मिटाया जा सके।

- पैरेंट्स की भी काउंसलिंग की व्यवस्था हो। ताकि बच्चों के कल्चर गैप को खत्म कर उन्हें दोस्ताना माहौल मिल सके।

हमारी कथनी और करनी में अंतर है। प्राइमरी यूनिट हमारा परिवार है। हम लड़कों को ऐसे संस्कार दे कि वह लड़कियों की इज्जत करे। यूथ खाली टाइम पर ऐसी हरकत करता है। एक सर्वे के अनुसार इंडिया पुरुष महिलाओं की अपेक्षा चार घंटे कम काम करता है। उन्हें अन्य कामों में बिजी करने से उनका ध्यान ऐसी हरकतों की तरह नहीं जाएगा।

मुकुल श्रीवास्तव, कॉर्डिनेटर, मास कॉम डिपार्टमेंट, एलयू

ईव टीजिंग के लिए पुरुष समाज जिम्मेदार है। हम पुराने समय में कुरीतियों के रोगी थे और आज के समय में नारी की आजादी के प्रति रोगी है। स्त्री बाहर निकल रही है यह पुरुष उसे बर्दास्त नहीं कर पा रहे है। समाज में इस ईवटीजिंग जैसी बीमारी को रोकने के लिए पुरुष वर्ग को खुद ही पहल करनी होगी तभी समाज बदल सकता है।

अमूल्य त्रिपाठी,

महिलाओं के प्रति हिंसा और ईवटीजिंग के लिए दो स्टेज पर लोग जिम्मेदार है। पहला स्टेट की व्यवस्था और दूसरा सोसायटी। सामाजिक आंदोलन और सरकार के बनाए कानून व्यवस्था से कड़ाई से पालन से ही इस समस्या से निजात मिल सकती है। अगर पहली सीढ़ी फेल हो जाती है तो रिजल्ट नहीं मिलेगा। महिला से छेड़छाड़ किसी एक का नहीं बल्कि पूरे समाज का मुद्दा है। जिसे सामाजिक आंदोलन से निपटा जा सकता है।

दीपक कबीर, रंगकर्मी

जींस पहने से केवल हम मॉर्डन नहीं हुए। भले ही बाजारवाद हम पर हावी हो रहा हो, लेकिन हम अभी तक अपनी मानसिकता को नहीं बदल पा रहे है। महिला को कमजोर दृष्टि से देखा जाता है। यहीं कारण है कि पुरुष हमेशा हमला करने के लिए अपने आप को आजाद समझता है। अगर महिलाएं उनके हमले का जवाब देना शुरू कर देते तो शायद ऐसी मानसिकता को बदला जा सकता है।

नीतू रावत, पीएचडी स्टूडेंट

छेड़छाड़ करना विकृत मानसिकता का परिचय है। दूषित मानसिक के लोग ही ऐसी हरकत करते हैं। इसके पीछे कहीं न कहीं हमारे संस्कार भी जिम्मेदार है। क्योंकि नैतिकता का पतन हो गया और परिवार का विघटन होता जा रहा है। हम संक्रमण काल में चल रहे है और हमारी सांस्कति का घालमेल हो गया है। महिला हिंसा और छेड़छाड़ जैसी घटनाओं को रोकने के लिए पैरेंट्स को चाहिए कि वह परिवार को टूटने से बचाए और बच्चों को अच्छे संस्कार दे।

डॉ। आशुतोष दुबे, मेडिकल सुप्रीडेंटेड, सिविल हॉस्पिटल

लड़कों में शौक और ग्रुप में बड़ा दिखाने की प्रवृत्ति होती है। जिसे वह रोड पर आने-जाने वाली लड़कियों को कमेंट कर अपने आप को पॉवर फूल दिखाने का झूठा दिखावा करते है। महिलाओं से केवल मारपीट ही हिंसा में नहीं आती बल्कि उन्हें अकारण परेशान करना या फिर उनकी आजादी पर लगाम लगाना भी हिंसा का स्वरुप है। हम केवल आस-पास के लोगों को इस प्रवृत्ति से बदल दे तो भी यह एक अच्छी शुरुआत होगी।

राज, रंगकर्मी दस्तक

बदलाव आ रहा है, लेकिन धीमे रफ्तार से। ईवटीजिंग करने वालों के खिलाफ लड़कियों को खुद खड़ा होना पड़ेगा। हालांकि उन्हें इसके लिए पैरेंट्स का साथ मिलना जरूरी है। लड़के और लकडि़यों में फर्क करने वाले पैरेंट्स की काउंसलिंग बहुत जरूरी है। अक्सर कल्चर गैप के चलते लड़कियां अपने पैरेंट्स से ऐसी प्रॉब्लम शेयर नहीं करती। सोसायटी में ऐसी व्यवस्था शुरू होनी चाहिए कि पैरेंट्स को काउंसलिंग कर उन्हें बेटे और बेटियों के फर्क को खत्म कर सके।

नवदीप कौर, स्टूडेंट

पैरेंट्स ने हमें आजादी दी है। हम लोग कहीं हद तक विचारों से मॉर्डन हुए है। रोड पर चलने के दौरान कई बार मिलने वाले कमेंट को अवाइड भी करते है। बस इस बात की खुशी है कि लड़कियों के ऊपर हो रहे अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाना शुरू हो गई है। जब आवाज बुलंद होगी तो समस्या का निराकरण भी संभव होगा। बस इसके लिए हर किसी को सच बदलने की जरूरत है।

प्रिया हवेलिया, स्टूडेंट

जैसे औरत पैदा नहीं होती बनाई जाती है, वैसी ही मर्द भी बनाए जाते है। जिसे समाज बनाता है। मर्द बनने की इच्छा या परिभाषा परिवार से फालो किया जाता है। अगर इसकी शुरूआत हमें अपने घरों से करनी होगी। एक घर के बदलने से सब लोग नहीं सोच नहीं बदल सकती है। घर के अंदर और बाहर दोनों की व्यवस्था सुचारू होनी चाहिए। कानून का प्रयोग ठीक से होना चाहिए। जेंटर सर्कुलर व वर्कशॉप के जरिए बदलाव आ सकता है।

वीना राना, रंगकर्मी दस्तक

अभी तक राम खाना खाओ और गीता खाना बनाओ का चलन था। जब तक राम खाना बनाओ और गीता खाना आओ की शुरुआत नहीं होगी। तब तक बदलाव संभव नहीं है। लड़कों की अपेक्षा लड़कियों को डी मार्क नहीं किया जा सकता है। लड़के और लड़कियों की परवरिश में ही उन्हें अगल तरीके से ट्यून किया जाता है। सोसायटी में जब तक दोनों को बराबरी का दर्जा नहीं मिलेगा तब तक ऐसी प्रॉब्लम सॉल्व नहीं हो सकती है।

अर्चना, प्रोफेशनल