‘जब हैरी मेट सेजल’ देख के बाहर निकला तो लग ही नहीं रहा की कुछ नया देखा या अलग देखा।ऐसा लग रहा है की की श्रावणमास के फ़िल्मी ब्राह्मण भोज मे पिछले दशक की सारी रोमांटिक फिल्मों की खिचड़ी खाके आया हूँ। खिचड़ी के साथ था रायता जो हैरी और सेजल ने फैलाया और जिसको इम्तियाज़ अली जैसा फिल्मकार भी संभाल नहीं पाया।

कहानी:
अगर कहानी थोड़ी सी भी बताई तो स्पोइलर हो जाएगा इसलिए इतना ही कहूँगा की अगर ये फिल्म इम्तियाज़ की जब वी मेट होती तो सेजल कहती ‘कोई डाउट मत रखना, गुजराती हूँ, अब तुम मुझे एक ‘हिट’ फिल्म तक ले के जाओगे वो भी मेरे एंगेजमेंट रिंग के साथ। जी हाँ...!’ (जिन्होंने जब वी मेट नहीं देखी, वो (इस फिल्म को भूल कर) जब वी मेट देख लें, आपको इस लाइन का कॉन्टेक्स्ट भी पाता चल जाएगा साथ ही आप एक बढ़िया फिल्म भी देख लेंगे)

निर्देशक : इम्तियाज़ अली
कास्ट : अनुष्का शर्मा और शाहरुख़ खान
रेटिंग : **

 



समीक्षा
इम्तियाज़ अली मेरे फेवरिट हैं। उनकी फिल्मों की एक ख़ास बात होती है। वो बड़ी बड़ी बातें बड़े ही सिंपल तरीके से कहते हैं, और साथ ही ड्रामा भी ऐसा पैदा करते हैं की आप उन किरदारों में खो जाते हैं जो आप फ़िल्मी पटल पर देख रहे हैं। ‘सोचा न था’ के विरेन और अदिति, ‘जब वी मेट’ के आदित्य और गीत, ‘लव आज कल’ के जय और मीरा, ‘रॉकस्टार’ का जॉर्डन, ‘हाइवे’ की ‘वीरा और महावीर’ और ‘तमाशा’ की तारा और वेद, ये सब वो किरदार हैं जो किसी न किसी लेवल पर आपको अपना बना ही लेते हैं, यही कारण है की इम्तियाज़ की फिल्में बिना किसी ‘तिलिस्मी’ कहानी और प्लाट के बावजूद आपको किसी न किसी स्तर पर लुभाती हैं, कहा जाए तो आप इम्तियाज़ की फिल्में कहानी के लिए नहीं किरदारों के लिए देखते हैं। पर इस फिल्म के साथ वो भी नहीं हो पाता। ना तो हैरी, न ही सेजल किसी की कहानी आपके मन को नहीं भाती। जब ये फिल्म देख रहा था तो बार बार ख़याल आ रहा था, ऐसा सीन तो उस फिल्म में भी था, ऐसा डाइलोग तो इस वाली में... ऐसा नहीं है की कुछ भी अच्छा नहीं है, फर्स्ट हाफ में कुछ जगह पर आपको फिल्म अच्छी भी लगती है पर सेकंड हाफ में ये फिल्म अपने स्क्रीनप्ले की वजह से मेलोड्रामा के समुन्दर में गोते खाने लगी है, और फिर न तो हैरी उबर पाता है और न ही सेजल फिल्म को पार लगा पाती थी (इम्तियाज़ की लिखी हुई कॉकटेल, की भी यही समस्या थी)। हैरी और सेजल के किरदारों में डेप्थ नहीं है और यही कारण है की आपको दोनों ही किरदारों से कोई ख़ास लगाव नहीं हो पाता। टेक्निकल डिपार्टमेंट ही फिल्म को अपलिफ्ट करते हैं। फिल्म की सिनेमेटोग्राफी और लाइटिंग लाजवाब है। एडिटिंग बेहतर हो सकती थी, फिल्म 15 मिनट छोटी हो सकती थी।

संगीत:
इम्तियाज़ की बाकी सभी फिल्मों की मुकाबले इस फिल्म का संगीत वीक है। जहां एक ओर तमाशा के गीत अभी भी मेरे आईपोड में हैं, वहा इस फिल्म को देखने के बाद एक भी गाना डाउनलोड करने का मन नहीं किया। मुझे हर गीत में जब वी मेट के सुर सुनाई दे रहे थे। कहना गलत नहीं होगा की प्रीतम ने अपनी ही एल्बम ‘जब वी मेट’ के गानों को लिफ्ट किया है, ऐसा लगता है।
 
अदाकारी
बस अब बहुत हो गई ‘राजगिरी’, शाहरुख़ की रोमांटिक इमेज जितनी भुनाई जा सकती थी, भुना ली गई है। शाहरुख़ ने ऑलमोस्ट हर पैंतरा ट्राई कर लिया है। अब समय आ गया है की वो अपनी उम्र और तजुर्बे के हिसाब से कुछ नया या कुछ अनूठा करके दिखायें, वो एक शानदार एक्टर हैं पर चकदे इंडिया के बाद से उस लेवल का कोई भी किरदार शाहरुख ने नहीं किया है। शाहरुख़ के फेन्स भी इस फिल्म को कितना पसंद करते हैं देखना पड़ेगा। सेजल के किरदार में अनुष्का शर्मा फिर भी बेहतर लगी हैं, उनकी प्रॉब्लम थी उनकी नकली सी साउंड करने वाली गुजराती।

कुल मिलाकर आप जब सिनेमा हॉल से बाहर निकलते हैं तो आधी से ज्यादा फिल्म भूल चुके होते हैं। सेकंड हाफ के ओवर द टॉप मेलोड्रामा ने एक ठीक ठाक सी फिल्म की लाइव्लिनेस को मार सा दिया। मेरा मन तो ये किया की अब घर जाऊँगा और माइक्रोवेव में इंस्टेंट पॉपकॉर्न बनाकर फिर से जबवीमेट देखूँगा, सच में।।। न मिलते हैरी और सेजल तो बेहतर होता। आप अगर चाहें तो सेकंड हाफ में ही ‘बटरफलाई बन के’ हाल से उड़ सकते हैं।

Review by : Yohaann Bhaargava
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