असली नाम बदल कर लिखाया नाम

कलकत्ता के एक उच्च मध्यम वर्ग बंगाली परिवार में जन्में ज्योति बसु का वास्तविक नाम ज्योतिरेंद्र नाथ बसु था। पर जब उनके पिता उनका एडमीशन कराने कोलकाता के लोरेटो स्कूल में ले गए तो उन्होने कहा कि ये नाम काफी बड़ा है तो पिता ने उनका नाम छोटा करके ज्योति बसु करा दिया।

पढ़ाई के दौरान जाना क्रांति के बारे में  

बसु की स्कूली शिक्षा 1920 में शुरू हुई जहां धरमतला, कोलकाता के लोरेटो स्कूल से उन्होंने 1921 में सेंट जेवियर स्कूल में प्रवेश लिया। इस बीच करीब 10 साल तक वहां किराए के घर में रहने के बाद उनके माता पिता हिंदुस्तान पार्क के अपने घर में शिफ्ट हो गए। जहां बसु ने पहली बार क्रांतिकारियों के बारे में सुना और मशहूर बंगाली लेखक शरतचंद्र कर प्रतिबंधित पुस्तक पत्थर देबी पढ़ी। बसु ने स्नातक शिक्षा हिंदू कॉलेज और प्रेसीडेंसी कॉलेज से अंग्रेजी ऑनर्स किया। जब स्‍कूल में एडमिशन के लिए पिता ने बदला ज्‍योति बसु का नाम

पहला विरोध

जब बसु शिक्षा प्राप्त कर रहे थे तब कोलकाता क्रांति की आग में सुलग रहा था। उन्हीं दिनों चट्टग्राम आर्मस गोदाम के मामले में क्रांतिकारी और अंग्रेजी शासन आमने सामने खड़े थे। जिस दिन सेना के द्वारा निहत्थे क्रांतिकारियों पर हमला किया गया उस दिन बसु ने अपना पहला विद्रोह दिखाया और वो स्कूल नहीं गए। उस दिन वो खादी पहन कर सुभाष चंद्र बोस का भाषण सुनने ऑक्ट्रलानी मान्युमेंट मैदान पहुंच गए। इसके बाद उस छोटी सी उम्र में वो अंग्रेजी सिपाहियों के सामने खड़े तो नहीं हो सके पर भागने की बजाय उन्होंने तेज चलते हुए घर आना ठीक समझा ताकि उन्हें कायर ना समझा जाए।

इंग्लैंड में बने कम्युनिस्ट

1935 में बसु कानून के उच्च अध्ययन के लिए इंग्लैंड रवाना हो गए, जहां हिटलर की सेना के विरोध में वे रूस के फासीवाद के विरोध में चलाए जा संघर्ष से काफी प्रभावित हुए। वहीं ग्रेट ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी के संपर्क में आने के बाद उन्होंने राजनैतिक क्षेत्र में कदम रखा। हेरॉल्ड लेस्की की प्रेरित करने वाली स्पीच सुनने के बाद वे उन्होंने छात्रों की प्राग्रेसिव फोर्स नाम की संस्था ज्वाइन कर ली।

ट्रेड यूनियन से जुड़ाव

जब सीपीआई ने 1944 में इन्हें रेलवे कर्मचारियों के बीच काम करने के लिए कहा तो बसु ट्रेड यूनियन की गतिविधियों में संलग्न हुए। बी.एन. रेलवे कर्मचारी संघ और बी.डी रेल रोड कर्मचारी संघ के विलय होने के बाद बसु संघ के महासचिव बने। 1946 में उन्होंने बंगाल विधानसभा के लिए हुंमायु कबीर के विरुद्ध चुनाव लड़ा और आठ वोटों से जीत हासिल की। हांलाकि यहो हर वोट का मूल्य 200 वोट के बराबर था, इस तरह उनकी जीत का अंतर 1600 वोट का रहा। बाद में दंगों के दौरान उन्होंने शांति स्थापित करने का बेहद संवेदनशील कार्य किया और वे बेलियाघाट जाकर महात्मा गांधी से भी मिले।

पहली जेल यात्रा

1948 में 28 फरवरी से 6 मार्च तक मोहम्मद अली पार्क में कम्युनिस्ट पार्टी का दूसरा अधिवेशन आयोजित किया गया। जहां सत्ताधारी पार्टी का विरोघ करने के कारण कम्युनिस्ट पार्टी को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया। जिसके बाद 26 मार्च को बसु को उनके घर से गिर फ्तार करके प्रेसिडेंसी जेल भेज दिया गया। ये उनकी पहली जेल यात्रा थी।

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