- स्टेट की कई सीटों पर फेंडली चुनाव लड़ सकते हैं वाम दल

- 2010 के विस चुनाव में माले को 1.79 प्रतिशत और सीपीआई को 1.69 परसेंट आया थ वोट

PATNA: बिहार की छह वामपंथी पार्टियां इस बार एक साथ चुनावी मैदान में उतर रही हैं। औपचारिक घोषणाएं हो चुकी हैं। सीटों का बंटवारा भी हो चुका है। यह परिस्थिति लंबे प्रयास के बाद आयी हैं, लेकिन जिन कारणों से अब तक वाम एकता बिहार में फंसती रही थी, उसके कई कारण आज भी मौजूद ही हैं। गठबंधन और समझौता तो हो गया, लेकिन विभिन्न वाम दलों के नेताओं का मेल अबतक नहंी हो सका है। इसका असर चुनाव पर भी पड़ेगा।

मतभेद अब भी जारी है

बिहार का विधानसभा चुनाव इस बार छह छोटी-बड़ी वामपंथी पार्टियां जैसे भाकपा माले, सीपीआई, सीपीएम, एसयूसीआई, आरएसपी और फारवर्ड ब्लॉक एक साथ लड़ रही हैं। अन्य को छोड़ भी दें तो भाकपा माले, भाकपा और माकपा तीन बड़ी पार्टियां हैं। इन तीनों में से माले और भाकपा के बीच अब भी मतभेद जारी हैं। सीटों के बंटवारे के बाद भी ख्ख् सीटें अब भी बची हुई हैं। इन ख्ख् सीटों में से क्8 पर माले दावा कर चुकी हैं। दोनों पार्टी के कई नेताओं के साथ बात कीजिए, सार यही निकलता है कि दोनों ही चाहते हैं कि हम सबसे अधिक सीट पर चुनाव लड़ें। सीपीआई कहती है कि ख्ख् सीटों पर क्म् सितंबर को फैसला हो जाएगा, पर माले मानने को तैयार नहीं है। उसका कहना है कि उस ख्ख् में से वो क्8 सीटों पर लड़ेगी ही। राजनैतिक विश्लेषकों की मानें, तो सीपीआई और माले के बीच बिहार की नंबर वन पार्टी दिखने की होड़ है। मालूम हो कि पिछले विधानसभा चुनाव में माले कुल क्0ब् सीट पर लड़ी थी और सीपीआई कुल भ्म् सीट पर अपने उम्मीदवार खड़े की थी। वहीं सीपीआई का वोट प्रतिशत क्.म्9 था, तो माले को क्.79 प्रतिशत वोट आया था।

क्म् को तय होगा बाकी सीट

फिलहाल ख्ख्क् सीटों को वामदलों ने आपस में बांट लिया है। अभी तक के बंटवारे के हिसाब से सीपीआई के खाते में 9क् सीट और माले के खाते में 78 सीट आयी है। माले का कहना है कि वो अठारह और सीट पर लड़ेगी ही। इस हिसाब से माले कुल 9म् सीटों पर लड़ने जा रही है। सूत्रों की मानें, तो बचे हुए ख्ख् सीटों में से कई सीटों पर माले यह कहकर दावा कर रही है कि उसे पिछले विधानसभा चुनाव में सीपीआई से बेहतर वोट आए थे। उदाहरण के रूप में अरवल के कुर्था को ही देख सकते हैं। इस सीट पर वर्षो से माले लड़ते आ रही है लेकिन इस बार कुर्था सीट पर एसयूसीआई दावा कर रही है। उसी तरह जहानाबाद के मकदुमपुर पर सीपीआई दावा कर रही है। वहीं, बहादुरपुर पर भी सीपीएम दावा कर रही है, जिसपर माले का बेहतर जनाधार है। वहीं पूर्णिया जिला के सीट पर भी जिच बरकरार ही है। इस जिले में माले कम से कम धमधाहा और रुपौली में से एक सीट चाहती है। वहंी सीपीआई का कहना है कि रुपौली उसके बेस की सीट है। सीपीआई के सूत्रों की माने तो क्म् सितंबर को बांकी के ख्ख् सीटों पर फैसला हो जायेगा, लेकिन अब तक की स्थिति से साफ है कि इन सीटों में से अधिकांश दलों पर सीपीआई और माले के साथ फ्रेंडली चुनाव लड़ेगी।

ऐसे में क्या एलेक्ट्रल गेन दे पाएंगे

वाम चिंतकों की मानें, तो यह अटपटा सा डिसीजन है कि ये वाम एकता की बात तो कर रहे हैं लेकिन कई सीटों पर फ्रेंडली लड़ेंगे। ऐसे में लोगों का मानना है कि ये वाम पार्टियां एक दूसरे को कितना एलेक्ट्रल गेन दे पाएंगे, इसपर संदेह ही है। ऐसे भी इन वामपंथी पार्टियों की विडंबना ही है कि अधिकांश क्षेत्रों में जहां एक का जनाधार है दूसरी पार्टी का जनाधार लगभग नगण्य ही है। कई सीटें ऐसी है जहां माले सेकेंड पोजिशन पर रही है वहां भाकपा का जनाधार नहीं है और जहां सीपीआई सेकेंड पर रही है वहां अन्य पार्टियों का जनाधार नहीं है। ऐसे मों पार्टियों को भले राजनैतिक लाभ मिल जाय लेकिन एलेक्ट्रल लाभ मिलता नजर नहीं आ रहा है।

कई सीटों पर दे सकते हैं कड़ी चुनौती

वाम दल कई सीटों पर कड़ी चुनौती देने की स्थिति में हैं, लेकिन यह तब होगा जब ये आपस के छोटे छोटे मतभेद को दूर कर लें। जैसे सीपीआई ढोरैया, तेघरा, गया, केसरिया और हरलाखी में पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान सेकेंड पोजीशन पर रही थी। वहीं माले दरौली, जीरादेई, रघुनाथपुर, बलरामपुर और अरवल पर सेकेंड पोजिशन पर रही थी। विश्लेषकों की मानें तो इन सीटों पर विपक्षी पार्टियों को आज भी वाम कड़ी टक्कर देने की स्थिति में हैं, लेकिन यह सब तक होगा, जब इनकी आपसी सहमति मजबूत होगी। अगर ऐसा नहीं हुआ तो पहली बात तो ये कि वाम समर्थकों के बीच गलत मैसेज जाएगा और दूसरा ये कि इनकी उर्जा एक-दूसरे से भिड़ने में भी बर्बाद होगी।

फ्रेंडली जैसा कुछ नहीं होता है। इससे गलत मैसेज ही जाएगा। पहली बार बिहार में वाम एकता बनी हैं। इसका पार्टियों को पॉलीटिकल फायदा लेना चाहिए। सीपीआई और माले दोनों को अपना दिल बड़ा करना होगा। पहले भी सीपीआई और माले फ्रेंडली लड़ चुकी हैं, फायदा तो कुछ नहीं हुआ था।

महेंद सुमन, राजनैतिक विश्लेषक