RANCHI: आखिर देश के लिए शहादत देने वाले जवानों के परिजनों को दो-दो लाख ही क्यों? यह सवाल हाल ही में जम्मू कश्मीर में बर्फ से दबकर शहीद हुए झारखंड के तीन जवानों के परिजनों के लिए राज्य सरकार द्वारा दो-दो लाख की मुआवजा की घोषणा के बाद उठ रहे हैं। राज्य सरकार की इस घोषणा पर शहीद जवान प्रभु सहाय तिर्की के बड़े भाई मनीष तिर्की ने दुख जताया है। मनीष का कहना है कि क्या उनका भाई बॉर्डर पर गोली खाकर आता, तभी सरकार उसे शहीद मानती और पांच लाख से दस लाख मुआवजा देती? सरकार की इस घोषणा से सेमरा गांव के लोगों में भी आक्रोश है। लोगों का कहना है कि ऐसा क्यों होता है कि शहीदों के परिजनों को उस समय पर बोलना पड़ता है जिस समय उनके लिए सबसे बड़ी मुश्किल की घड़ी होती है। ये मजाक नहीं तो क्या है? किसी शहीद के नाम पर राजनीति करनी हो तो नेता सबसे आगे आ जाते हैं लेकिन जब बात शहीदों के परिजनों की मदद की आती है, तो सभी को सांप सूंघ जाता है। मैंने तो आज तक कभी नहीं सुना किसी बड़े नेता ने किसी शहीद के परिवार की व्यक्तिगत रुप से मदद की हो।

खिलाडि़यों पर मेहरबान

देश के लिए शहीद होने वाले जवानों की कीमत एक खिलाड़ी से कितनी सस्ती है, इसका अंदाजा राज्य सरकारों की तरफ से दिए गए मुआवजे से ही लगाया जा सकता है। हमारे देश के नेता शहीदों के मुकाबले खिलाडि़यों को अधिक तरजीह देते हैं। रियो ओलंपिक में कांस्य पदक जीतने वाली हरियाणा के रोहतक की महिला पहलवान साक्षी मलिक और बैडमिंटन में सिल्वर मेडल जीतने वाली तेलंगाना की पीवी सिंधू को पुरस्कारों की झड़ी लग गई।

देश की सुरक्षा में बेटे को क्यों भेजें: लेवियर लकड़ा

जम्मू-कश्मीर में शहीद हुए कुलदीप लकड़ा के पिता जेवियर लकड़ा ने कहा कि अगर शहीदों के परिजन ऐसे ही उपेक्षित महसूस करते रहेंगे तो कैसे आने वाले समय में कोई अपने बेटे को देश की सुरक्षा के लिए भेजना चाहेगा? देश के अंदर लगातार हो रही आतंकी घटनाओं और नक्सली हमलो में अक्सर जवान शहीद होते रहे हैं, लेकिन सरकारें बयानबाजी के अलावा कोई ठोस कदम नहीं उठातीं। सरकार को कोई ऐसी पहल करनी चाहिए, जिससे शहीदों के परिजनों को बेटा या पति खोने के बाद कोई तकलीफ ना हो। बल्कि गर्व हो।

किसे कितना मिला मुआवजा

संकल्प शुक्ला: पांच लाख मुआवजा, पत्‍‌नी को जमीन और नौकरी

नायमन कुजूर, जावरा मुंडा: दस-दस लाख रुपए

वर्जन

जब कोई जवान शहीद होता है, तो उसके पीछे कई लोगों का भविष्य खराब हो जाता है। मां-बाप के बुढ़ापे की लाठी, पत्‍‌नी के जीने का सहारा और बच्चों की उम्मीद। सब खत्म हो जाती है। सरकारों को इन पहलुओं पर सोचना चाहिए। सिर्फ एक निर्धारित राशि का भुगतान करने से किसी का कभी भला नहीं होता और ना ही कोई न्याय मिलता है।

-बंधु तिर्की, आदिवासी नेता