- गंभीर इंजर्ड एक्सीडेंटल मरीज को करना पड़ता है रेफर

-हर माह आधा दर्जन से ज्यादा मरीजों को होती है ऐक्सीडेंटल ट्रॉमा की जरूरत

Meerut: कहने को तो मेरठ मेट्रो व मेडिकल सिटी के नाम से जाना जाता है, लेकिन यहां पर एक्सीडेंटल ट्रॉमा की सुविधा उपलब्ध नहीं है, जबकि शहर में हर माह औसत आधा दर्जन गंभीर इंजर्ड मरीजों को एक्सीडेंटल ट्रॉमा सेंटर की जरूरत होती है। ऐसे में मरीज को एनसीआर रेफर किया जाता है। डॉक्टरों का मानना है कि एक्सीडेंटल ट्रॉमा न होने के चलते लोगों को परेशानी का सामना करना पड़ता है।

 

क्या है ट्रॉमा

किसी भी तरह की दुर्घटना का सामना करने के बाद अक्सर लोग बदहवास से हो जाते हैं। वो न कुछ बोल पाते हैं और ही कोई रिएक्ट कर पाते हैं। इस तरह के ट्रॉमा का शिकार सबसे ज्यादा वो लोग होते हैं जो किसी भयानक सड़क दुर्घटना के शिकार होते हैं। अगर ये दुर्घटना आमने-सामने के टक्कर जैसी हो तो इसमें व्यक्ति काफी गहरे ट्रॉमा में जा सकता है। एक्सीडेंट में क्या हुआ उसे कुछ भी याद नहीं रहता। ऐसी दुर्घटनाओं में होने वाला ट्रॉमा लंबे समय तक उस इंसान के दिमाग पर हावी रहता है और उसे सामान्य होने में काफी दिक्कत होती है।

 

जरूरी है ट्रॉमा का इलाज

जितना जरूरी घायल को हॉस्पिटल पहुंचाना और ट्रीटमेंट देना है, उतना ही जरूरी इस तरह के ट्रॉमा से निपटना होता है। ट्रॉमा का शिकार हुए व्यक्ति को जल्द से जल्द मेडिकल हेल्प की जरूरत होती है। उसे जल्द से जल्द फ‌र्स्ट एड मिलनी चाहिए। इसके बाद अस्पताल में उसकी चोट का इलाज करने के बाद उसके ट्रॉमा को दूर करने की कोशिश करनी चाहिए।

 

नहीं है ट्रॉमा सेंटर

अपने शहर की बात करें तो यहां पर एक भी ट्रॉमा सेंटर नहीं है। हां, बेशक कुछ लोग ये दावा करते हैं कि हमारे यहां ट्रॉमा सेंटर है मगर प्रॉपर ट्रॉमा सेंटर एक भी नहीं है। ट्रॉमा सेंटर में इस तरह की सुविधाएं होनी चाहिए

 

-24 घंटे सुविधाएं

-टॉप ट्रॉमा सर्जन और फिजिशियन होने चाहिए जो क्रिटिकल इंजरीज को आसानी से हैंडल कर सकें और क्रिटिकल सपोर्टिव केयर की अच्छी जानकारी रखते हों।

-जरूरत के सभी इमरजेंसी उपकरणों के साथ एक्सपर्ट्स की टीम होनी चाहिए।

-हाई डिपेंडेंसी यूनिट होनी चाहिए, जिसमें कम से कम 9 बैड हों और वहां पेशेंट की केयर उसके सही होने तक लगातार की जाए।

-लाइफ सेविंग लेटेस्ट इक्यूपमेंट्स होने चाहिए।

-यहां तुरंत सुपर स्पेशलिटी फैसलिटी और डॉक्टर्स अवेलेवल हो सकें।

-सपोर्टिव टीम में क्वालिफाइड नर्स और पैरामेडिक्स होने चाहिए।

-रिहैबिटेशन के लिए फिजिकल और ऑक्यूपेशनल थेरेपी के जानकार होने चाहिए।

 

ट्रॉमा का इमोशनल इफेक्ट

मनोवैज्ञानिक डॉ। आरव के अनुसार दुर्घटनाओं के दौरान हुए ट्रॉमा का सिर्फ फिजिकल इफेक्ट नहीं होता बल्कि लंबे समय तक इसका इमोशनल इफेक्ट भी रहता है। दुर्घटना चाहें कार से हो या बाइक से या किसी और वाहन से इसका ट्रॉमा लंबे समय तक रहता है। जिसे हीलिंग के माध्यम से धीरे-धीरे दूर किया जाता है।

 

-सबसे पहले सही प्रॉब्लम को आईडेंटीफाई करना चाहिए।

-ट्रॉमा के दौरान दिल में बैठे डर को दूर करने की कोशिश करें। अगर ये डर ड्राइविंग करने का है तो कॉफीडेंटली ड्राइव करने की कोशिश करें।

-उस समय का जो सीन आपको याद है उसे बार-बार ध्यान न करें और उसे एवॉइड करने की कोशिश करें।

-अपने स्ट्रेस को मैनेज करें और खुद पर कंट्रोल पाने की कोशिश करें।

-दुर्घटना के दौरान महसूस हुए डर को दूर भगाने के लिए मेडिटेशन और रिलेक्सेशन का सहारा ले सकते हैं।

-खुद को कंसोलिडेट करें और अपने काम पर ध्यान दें।

 

 

मेडिकल में वैसे तो सभी प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध हैं, लेकिन गंभीर ऐक्सीडेंटल केस में मरीज को रेफर करना ही पड़ता है।

सुभाष सिंह सीएमएस