पति के जाने के बाद शुरू हुआ संघर्ष
बहुत कम महिलायें होती हैं जो रूढ़ियों को तोड़ कर जेंडर स्टीरियोटाइप से लड़ती हैं और अपना मुकाम हासिल करती हैं। ऐसी ही एक महिला हैं महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव की रहने वाली शांतिबाई श्रीपति यादव जिन्होंने 40 साल पहले भारत की पहली महिला नाई के तौर पर काम करना शुरू करके एक मिसाल कायम की है। शांतिबाई का विवाह श्रीपति यादव से हुआ था जो अपने भाई के साथ तीन एकड़ जमीन पर किसान का काम करते थे। बाद में भाई से विवाद होने पर वे अपने परिवार के साथ कोल्हापुर के नजदीक एक गांव में चले जाये और वहां उन्होंने नाई की दुकान शुरू की। उनके परिवार में छह बेटियों का जन्म हुआ पर दो कुपोषण और आभाव का शिकार हो कर जीवित नहीं रह सकीं। आमदनी कम थी उस पर भी कुछ अर्से बाद श्रीपति का निधन हो गया और शांतिबाई अपनी चार बेटियों के साथ अकेली रह गयीं। यहां से शुरू हुआ उनके लिए अपने और बेटियों के जीवनयापन के लिए संघर्ष।

मिलिए भारत की पहली महिला बारबर शांतिबाई से

मरने और संघर्ष करने के बीच से निकाला रास्ता
शंति बाई का कहना है कि पति की मौत के बाद उन्होंने बतौर फार्म लेबर काम करना प्रारंभ किया। जहां से उन्हें पूरे दिन काम करने के बाद 50 पैसे मिलते थे। इतने पैसों में पांच लोगों का गुजारा होना मुश्किल क्या नामुमकिन था। शांतिबाई के अनुसार उनके पास दो ही रास्ते थे या तो वो अपनी बेटियों के साथ आत्महत्या करके सब परेशानियों से मुक्ति पालें या फिर एक लंबे संघर्ष के लिए तैयार हो जायें। उन्होंने दूसरा रास्ता चुना और इसमें उनकी मदद की उनके ही गांव के सभापति हरिभाउ कडुक्कर ने, उन्होंने कहा कि शांतिबाई अपने पति का छोड़ा नाई का काम शुरू करें। हालाकि ये आसान नहीं था मर्दों की दुनिया में उनके लिए आरक्षित समझे जाने वाले व्यवसाय में कदम जमाना, पर शांतिबाई ने उस्तरा उठा लिया।

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युवा महिला होने के प्रभाव
शांतिबाई बताती हैं कि वे युवा थीं और लोगों कों को उनके इरादों पर शक था। वो आरोप लगाते थे कि नाई के काम की आड़ में वो कुछ गलत धंधा करने की योजना बना रही थीं। शांति बाई ने हिम्मत नहीं छोड़ी और काम शुरू कर दिया। वो घर पर ही लोगों की शेव बनाने लगीं। उनके पहले कस्टमर हरिभाउ ही थे। धीरे लोग उनके पास आने आने लगे और काम चल निकला। खास बात ये थी कि उस दौर में लोग शेविंग के बदले पैसे नहीं अनाज देते थे। इससे शांतिबाई को कोई दिक्कत नहीं हुई क्योंकि इससे उनके बच्चों को पर्याप्त भोजन मिलने लगा था।

बढ़ने लगा काम और विश्वास
वक्त के साथ शांतिबाई का काम बढ़ने लगा और उनका आत्म विश्वास भी। साल भर के अंदर उन्हें आसपास के गांवों से लोग नाई के काम के लिए बुलाने लगे। इसके अलावा स्कूलों ने भी उन्हें अपने यहां बुलाना आरंभ कर दिया। इससे उनको अच्छी आमदनी होने लगी। इसी कमाई से शांति बाई ने इंदरा गांधी आवास योजना के तहत अपना घर बनवा लिया और चारों बेटियों की शादी कर दी।

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जीवन का प्रतीक बना उस्तरा
अब शांतिबाई 80 साल की हो चुकी हैं और अब भी काम कर रही हैं। हालाकि अब उनके गांव में एक सैलून बन गया है और ज्यादातर युवा वहीं जाना पसंद करते हैं। अब वो बाहर के इनविटेशन भी नहीं लेती हैं, क्योंकि उनकी उम्र ज्यादा काम की अनुमति नहीं देती। अब भी उनके कुछ पुराने और स्थाई ग्राहक उनसे ही शेव करवाते हैं, जिनमें हरिभाउ के पर पोते बब्बन पाटिल भी शामिल हैं। शांतिबाई बताती हैं कि उनके दामाद अब उनसे काम छोड़ कर अपने साथ रहने का अनुरोध करते रहते हैं। जबकि उनका कहना है कि जब तक उनके हाथ पैर काम कर रहे हें वो किसी पर आश्रित नहीं होना चाहती है और उनका उस्तरा ही उनके लिए जीवन का प्रतीक बन चुका है।

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