यहां सभी किरदार हैं प्रमुख

नीरज घेवन की 'मसान' इन धारणाओं को फिल्‍म के पहले फ्रेम में तोड़ देती है। इस फिल्‍म के जरिए हम देवी,दीपक,पाठक,शालू,रामधारी और झोंटा से परिचित होते हैं। जिंदगी की कगार पर चल रहे ये सभी चरित्र अपनी भावनाओं और उद्वेलनों से शहर की जातीय,लैंगिक और आर्थिक असमानताओं को व्‍यक्‍त करते हैं। लेखक वरुण ग्रोवर और निर्देशक नीरज घेवन ने बड़े यत्‍न से इन किरदारों को रूप और आकार दिया है। किसी भी किरदार के साथ उनकी अतिरिक्‍त संलिप्‍तता नहीं है। 'मसान' हिंदी फिल्‍मों की नायक-नायिका की रुढि़ को तोड़ती है। यहां सभी किरदार प्रमुख हैं। अपने संदर्भ में उनकी स्‍वतंत्र इयत्‍ता है। आरंभिक सीन में ही डर से आत्‍महत्‍या कर लेने वाला पियूष भी इस नैरेटिव का जरूरी हिस्‍सा है। न होकर भी वह फिल्‍म में मौजूद रहता है। 'मसान' का शिल्‍प पारंपरिक नहीं है। फिल्‍म पंडितों का दोष नजर आ सकता है,लेकिन यही इसकी खूबी है। कथा का नया विधान नए शिल्‍प से ही संप्रेषित हो सकता था।

यह फिल्‍मी है जिद्दी

देवी इस फिल्‍म की जिद्दी और जीवित धुन है। वह आजाद खयाल और असीमित ख्‍वाबों की लड़की है। इंटरनेट ने उसे दुनिया से जोड़ रखा है। बगैर मां के पिता के साथ रह रही देवी की जिज्ञासाएं शारीरिक भी हैं। वह इसी प्रयत्‍न में पकड़ी जाती है। पुलिस अधिकारी कमाई के लिए 'सेक्‍स स्‍कैंडल' का सफल प्रपंच रचता है। बाप-बेटी को वह सामाजिक लांछन के खौफ में लपेट देता है। देवी इस प्रसंग से ग्‍लानि में है,लेकिन उसे अपने किए का कोई पछतावा नहीं है। वह मानती है कि उसने कुछ भी गलत नहीं किया है। हां,उसे पियूष के पिता का भी खयाल है। वह उनसे मिल कर उन्‍हें दुख और दोष से मुक्‍त करती है। हिंदी फिल्‍मों में ऐसे और इतने स्‍वतंत्र महिला किरदार कम हैं। पिता के साथ के उसके रिश्‍ते में एक बेबाकपन है। देवी रिश्‍ते की मर्यादा में रहते हुए भी अपनी सोच जाहिर करने से नहीं हिचकती। देवी की इस यात्रा में हम किसी लड़की के प्रति समाज(पुरुषों) के रवैए से भी हम वाकिफ होते हैं। रिचा चड्ढा ने देवी के दर्प को सही तरीके से निभाया है।

movie review : समय और समाज का घमासान है यह 'masaan'

समाज के दो तबके के प्रेमी

दीपक के भविष्य के सपनों में जिंदगी से भरपूर शालू आ जाती है। दोनों का अनायास प्रेम होता है। समाज के दो तबकों के इन प्रेमियों को मालूम है कि समाज उनकी शादी स्‍वीकार नहीं करेगा। उसकी नौबत आने के पहले ही फिल्‍म नाटकीय मोड़ लेती है। दीपक प्रेम की जगह दर्द में डूब जाता है। शालू का सहज प्रेम ही उसकी जिंदगी को असहज कर देता है। दीपक सामाजिक बेडि़यों को तोड़ कर आगे निकलता है,लेकिन शालू की यादें उसे जकड़ी रहती हैं। जरूरी है कि वह अपनी हैरानी से बाहर निकले,जैसे कि देवी अपनी ग्‍लानि से निकलती है। दीपक के द्वंद्व को विकी कौशल ने पूरी ईमानदारी और भागीदार के साथ पर्दे पर उतारा है।

सभी कहानियां एक साथ चलती हैं

एक और किरदार है झोंटा। देवी के पिता पाठक और झोंटा के बीच अनोखा रिश्‍ता है। झोंटा में बालसुलभ दिशाहीनता और उत्‍सुकता है। वह अपने व्‍यवहार से घाट की जिंदगी की नई परत खोलता है। लेखक-निर्देशक ने झोंटा की कहानी को समुचित विस्‍तार नहीं दिया है। तीनों किरदारों की कहानियां एक-दूसरे से अलग होने के बावजूद साथ-साथ चलती हैं और अंत में जुड़ जाती हैं। 'मसान' चरित्र प्रधान फिल्‍म है। सारे चरित्रों की निजी घटनाएं ही आज के बनारस का सामाजिक चित्र रचती हैं। लेखक-निर्देशक ने बनारस की लोकप्रिय छवियों से फिल्‍म को दूर रखा है। घाट और श्‍मशान घाट के प्रसंग हैं। उन्‍हें फिल्‍म के कैमरामैन ने असरदार खूबसूरती के साथ दृश्‍यों का हिस्‍सा बना दिया है। चिताओं की चट-चट और उड़ती चिंगारियों में लहलह होते चेहरे मृत्‍यु और नश्‍वरता के बीच मौजूद जिंदगी की वास्‍तविकता का आभास देते हैं। 'मसान' आज के बनारस की ऐसी कहानी है,जो अपने चरित्रों को लेकर जजमेंटल नहीं है। वह उन्‍हें स्‍वभाव के मुताबिक आजाद छोड़ देती है। हर फिल्‍म में 'क्‍या हुआ' की उम्‍मीद लगाए बैठे दर्शकों का यह फिल्‍म एक पहेली देती है। आप समय और जिंदगी से वाकिफ हैं तो उसे सुलझा लें।

एक्‍टिंग नहीं ये है असलियत

अच्‍छी बात है कि इस फिल्‍म में कोई कलाकार एक्टिंग करता नजर नहीं आता। अनुभवी संजय मिश्रा से लेकर नवोदित विकी कोशल तक संयत और भावपूण हैं। देवी के किरदार में रिचा बहकती तो धार खत्‍म हो ताजी। शालू को पर्दे पर जीते समय शालू की चमकती और शरारती आंखें गहरा और यादगार प्रभाव छोड़ती हैं। संजय मिश्रा के बारे में क्‍या कहना ? उनकी अभिनय शैली परिचित और पड़ोसी किरदारों को पर्दे पर लोने के अवसर दे रही है। विनीत कुमार भी ध्‍यान खींचते हैं।पंकज त्रिपाठी सहज अभिनय से किरदार के दूषित दिमाग के बाहरी स्‍वच्‍छता का अच्‍छा विलोम पैदा करते है।

आर्गेनिक इमोशन की है कहानी

'मसान' की सबसे बड़ी खूबसूरती किरदारों के आर्गेनिक इमोशन हैं। इन दिनों फिल्‍मों में हम सभी सिनेमाई इमोशन ही देखते हैं। फिल्‍मों में सब कुछ इतना घिस-पिट और प्रेडिक्‍टेबल हो गया है कि मौलिक और आर्गेनिक अविश्‍वसनीय और असंभव लगता है। नीरज घेवन और वरुण ग्रोवर बधाई के पात्र हैं कि उन्‍होंने भावों की मौलिकता को तरजीह दी। वरुण ग्रोवर ने इस फिल्‍म के गीत भी लिखे हैं। उनका गीत 'मन कस्‍तूरी' कबीर की उलटबांसी का आधुनिक इस्‍तेमाल करती है। साहित्‍य में विपर्यय के सौंदर्य से परिचित रसिक इसे सुन कर आनंदित होंगे। इंडियन ओसन का संगीत फिल्‍म की थीम के अनुकूल है।

Review by : Ajay Brahmatmaj

abrahmatmaj@mbi.jagran.com

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