पिछले तीन साल से बिहार के कई नेशनल प्लेयर्स को नहीं मिली है जॉब

- सभी प्रॉसेस पूरी करने के बाद प्लेयर्स काट रहे हैं सचिवालय का चक्कर

- अपना और फैमिली का पेट भरने के लिए नेशनल प्लेयर कर रहे बिजनेस

PATNA: बिहार गवर्नमेंट की कथनी और करनी में कितना अंतर है, यह जानने के लिए यहां के नेशनल प्लेयर्स की दुर्दशा जान लेना ही काफी है। बिहार के नेशनल लेवल के कम से कम 34 प्लेयर्स ऐसे हैं, जिनको स्पोटर्स कोटा के तहत स्टेट गवर्नमेंट ने जॉब के लिए सलेक्ट किया था। डिपार्टमेंट के द्वारा मेधा सूची जारी करने के बाद विभिन्न खेलों के प्लेयर्स का सलेक्शन प्रॉसेस पूरा किया गया। इसके लिए खेल मंत्री के द्वारा अनुसंशा भी की गई थी, लेकिन प्लेयर्स के हाथों कुछ नहीं मिला सिवाय आश्वासन के। यही वजह है कि ये सभी खिलाड़ी बिहार सचिवालय का चक्कर काट-काट कर परेशान हो गए हैं। पेट पालने के लिए कोई ऑटो चला रहा है तो कोई फल बेच रहा है। ऐसा नहीं है कि डिपार्टमेंट को जानकारी नहीं है लेकिन कोई भी इसे गंभीरता से लेने को तैयार नहीं है।

खेल-प्लेयर अनेक, प्रॉब्लम एक

कराटे, टेबल टेनिस, बॉडी बिल्डिंग, बॉल बैडमिंटन, एथलेटिक्स और खो-खो सहित अन्य कई खेलों में बिहार के प्लेयर्स ने नेशनल लेबल पर अपने स्टेट का नाम रौशन किया है। बावजूद इसके इन सभी प्लेयर्स को जॉब के लिए बार-बार मंत्री विधायकों का चक्कर काटने पर मजबूर होना पड़ रहा है। बिहार से नेशनल कराटे चैम्पियनशिप 2005 में ब्रांज मेडल विनर अंजली मेहता का कहना है कि कराटे के तीन प्लेयर्स का नाम फाइनल लिस्ट में आया था, जिसमें मैं भी शामिल थी। लेकिन जॉब किसी को नहीं मिली। हमलोग गवर्नमेंट से गुहार लगाते हुए थक चुके हैं।

बस खानापूर्ति और कुछ नहीं

बिहार में खेल के नाम पर किस प्रकार से यहां खानापूर्ति की जा रही है वह इस बात को बताने के लिए काफी है कि बस घोषणा के बाद घोषणा होती जा रही है, लेकिन इस पर कोई काम नहीं होता है। एक्स सीएम नीतीश कुमार ने 2014 में एक स्पोर्ट्स इवेंट के दौरान घोषणा की थी कि यहां स्पो‌र्ट्स एकेडमी बनेगी, लेकिन यह अभी कागजों पर ही है। इस बारे में बिहार प्लेयर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष मृत्युंजय तिवारी का कहना है कि खेल के नाम पर जिस प्रकार से गवर्नमेंट का उदासीन रवैया अफसोसजनक है। यह प्लेयर्स के साथ धोखा है। फाइनल लिस्ट में नाम देकर उसे जॉब नहीं देना और क्या कहा जा सकता है।

ऑटो चला रहा, कोई फल बेच रहा

आखिर पेट भरना तो पड़ता है मेडल देखकर या दिखाकर भी ये प्लेयस क्या करेंगे। जॉब की आस टूट जाने पर कई प्लेयर्स जैसे-तैसे जीवन गुजारने को मजबूर हो गए हैं। बॉडी बिल्डिंग कॉम्पटीशन में नेशनल लेवल पर गोल्ड मेडल विनर रहे मनोज कुमार की यही कहानी है। वह बताया है कि घर चलाने के लिए कोई कमाने वाला नहीं है, इसलिए ऑटो चलाता हूं। वहीं, पंकज कुमार रंजन, जो कि सेपक टाकरा, (एक प्रकार का फुट वॉलीबॉल ) गेम है, के स्टेट लेवल चैम्पियन और नेशनल लेवल पर भी खेल चुके हैं। इनका नाम भी जॉब के लिए अंतिम लिस्ट में नाम है, लेकिन जॉब नहीं मिलने के कारण जूस बेचकर जीवन-यापन कर रहें हैं। बिहार के नेशनल खो-खो प्लेयर राकेश कुमार का कहना है कि ख्0क्ख् में ही उनका नाम सलेक्शन लिस्ट में था। इससे पहले वेरिफिकेशन और अन्य प्रक्रिया पूरी कर ली गई थी। अब तक जॉब के इंतजार में हैं।