अमूमन, पारसी समुदाय के लोग अपने परंपरागत वस्त्र पहनकर मंदिर जाते हैं.

विशेष पूजा के बाद सभी लोग एक दूसरे को बधाई और शुभकामनाएं देते हैं.

इसके बाद दावतों का दौर शुरू हो जाता है जो रात तक चलता है.

'न दिलचस्पी है, न पैसा'

लेकिन कानपुर में रह रहे पारसियों के न ही घर सजे हैं और न ही मंदिर. और न ही उनके घरों से लज़ीज़ पकवानों की खुशबू आ रही है.

कानपुर में ही पैदा और बड़े हुए 84 वर्षीय जमशेद शोराब मिस्त्री ने कहा, "मैं अपने समुदाय के लोगों से मिन्नतें करता हूँ कि हमें कम से कम त्यौहारों में मिलना चाहिए, एक साथ बैठकर खाना खाना चाहिए, पर मेरी बात कोई नहीं सुनता."

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इस रूखेपन की वज़ह पूछे जाने पर वह कहते हैं, "दिलचस्पी नहीं है और पैसा भी नहीं है."

पर हमेशा ऐसा नहीं था. कानपुर में जब अंग्रेज़ आकर बसे तो पारसी लोग काम की तलाश में यहाँ आने लगे.

मिस्त्री कहते हैं, "पारसियों को अंग्रेज़ों की मिलों में नौकरी मिली और उनका कुनबा बढ़ा और फूला-फला."

पारसियों की घटती संख्या

1930 में पारसियों ने कानपुर के मॉल रोड में एक बड़े परिसर पर अपना पहला और आज तक का एक मात्र मंदिर बनाया.

मंदिर के पीछे कुछ कॉटेजनुमा घर भी बनाए गए. उस समय और आज भी मॉल रोड को कानपुर का दिल माना जाता है.

कुछ पारसी परिवार शहर के दूसरे हिस्सों में रहते थे.

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1978 में इस मंदिर परिसर में एक अपार्टमेंट भी बनाया गया. आज कुछ-एक घर उस परिसर में खाली पड़े हैं और कुछ एक में सिर्फ़ एक ही व्यक्ति रहता है.

मॉल रोड जैसे इलाके में घरों का खाली रहना साफ़ दर्शाता है की पारसियों की संख्या किस तरह से कम हो रही है.

भारत में पारसियों की घटती संख्या का नमूना कानपुर में देखा जा सकता है.

'कानपुर में केवल 20 पारसी हैं'

यह पूछे जाने पर कि कानपुर में कितने पारसी हैं, मिस्त्री अपनी उंगलियों पर गिनने के बाद कहते हैं, "इस मंदिर परिसर में 17 हैं, एक-दो बाहर रह रहे होंगे. कुल 20 मान लीजिए."

मंदिर परिसर में ही 87 वर्षीय केरसी रुस्तमजी का घर है. वह 1952 से पारसी मंदिर के पुजारी या मोबेद हैं.

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जमशेद शोराब मिस्त्री की तरह रुस्तमजी भी अविवाहित हैं. पूरे उत्तर प्रदेश में काफी वर्षों से वह अकेले पारसी पुजारी हैं.

वह किसी को भी पारसियों के बारे में बताने को उत्सुक हैं.

भारत में पारसियों की घटती संख्या के बारे में वह बताते हैं, "पारसी लोग विदेश में बस रहे हैं. पारसी लड़के-लड़कियां देर से विवाह करते हैं. इस वजह से कम बच्चे जन्म ले रहे हैं."

शवों को दफ़नाने की परंपरा

रुस्तमजी के मुताबिक़, "पारसी अंतरजातीय विवाह कर रहे हैं. अगर लड़की दूसरी जाति में विवाह कर रही है तो उसे हमारे नियमों के अनुसार लोग धर्म से बाहर कर रहे हैं."

वह बताते हैं कि उत्तर प्रदेश के बाकी शहरों में  पारसियों की संख्या कानपुर के मुकाबले और भी कम है.

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तो इतनी कम संख्या में यहां बचे पारसी परिवार अपनी अंतिम क्रिया के खास रिवाज़ कैसे पूरे करते हैं.

इस सवाल के जवाब में वह कहते हैं कि मुंबई में तो टावर्स ऑफ़ साइलेंस या दख्मा हैं जहाँ मृत पारसियों के शरीर को छोड़ दिया जाता है ताकि पारसी रीति-रिवाज़ के मुताबिक उन्हें चील और गिद्ध खा लें, लेकिन कानपुर जैसे शहरों में तो अब शरीर को दफ़नाने की परंपरा चल पड़ी है.

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