चेचक का टीका
स्पेनिश आक्रमणकारियों ने खुद चेचक जैसी बीमारी के लिए विनाशकारी परिणाम के साथ इम्यूनिटी को जगाने की कोशिश की। 1568 में मध्य अमेरिका की लगभग 3 लाख की आबादी इससे प्रभावित होते हुए कम हो गई। यह अपनी मूल आबादी का 10वां हिस्सा थी। 19वीं शताब्दी से पहले ये सभी परिदृश्य कीट-घरों से पटे पड़े थे। जीवन की क्षमता धरती पर दिन पर दिन कम होती जा रही थी। वहीं वैश्विक स्तर पर लोगों की उम्र 25 से 30 साल तक थम कर रह गई थी। बहुत कम लोग ऐसे होते थे, जो अपने जीवन का बुढा़पा देख पाते थे। इसके बाद खोज हुई एक ऐसे टीके की, जिसका इस्तेमाल स्मॉल पॉक्स, यानी चेचक से बचने में किया जाने लगा। शुरू-शुरू में इस टीके का इस्तेमाल चीन, अफ्रीका, पूर्व के आसपास और दक्षिण एशिया में किया गया। लेडी मोंटेगू ने इसे यूरोप में पेश किया था, जिन्होंने तुर्क समाज में इसके अभ्यास को आत्मसात किया। इसके बाद कॉटन मैथर और जब्दियाल ब्वायल्स्टोन इसे 1721 में न्यू इंग्लैंड तक लेकर आए। समय-समय पर इसको लेकर और भी कई तरह के विकास होते रहे। 1842 में ब्रिटिश सरकार ने इसपर प्रतिबंध लगा दिया। इसके बाद 1980 में अपनी जरूरत के हिसाब से इसने खुद ही यू टर्न ले लिया।

ऐसे आया रैबीज का टीका
इसके बाद 19वीं शताब्दी में वैज्ञानिकों ने और भी ज्यादा परिक्षण करने शुरू किए। उनकी इस मेहनत का फल मिला और भी ज्यादा असरदार टीके के रूप में। ये प्रक्रिया पूरी तरह से लुई पेस्टर से जुड़ी हुई है। हालांकि ये टीका बहुत ज्यादा सफल नहीं हुआ। जीन जोसेफ हेनरी ने 1880 में एक और बेहतरीन टीके को खोज निकाला। ये वो खोज थी जिसका श्रेय बाद में असल मायने में पेस्टर को दिया गया। इस टीके पर तरह-तरह के बदलाव करके पेस्टर ने जो आखिर में निष्कर्ष निकाला, वह था रैबीज का टीका। 1885 में जोसेफ मिएस्टर ने खरगोश की रीढ़ की हड्डी से काटकर सामग्री का इस्तेमाल किया। उसके बाद इंसानों पर किए गए परीक्षण से ये साबित हो गया कि ये टीका इंसानों के लिए जीवनदायक है।  

डिप्थीरिया का टीका
डिप्थीरिया, नाम की बीमारी बच्चों के लिए सबसे बड़ी प्राणघातक बीमारी बनकर सामने आई। वहीं शुरुआत में इसका कोई इलाज भी नहीं था। कभी डॉक्टरों ने सिल्वर नाइट्रेट और गर्म आयरन से इस बीमारी को बेअसर करने की काशिश की। इसके बाद 1889 में एमिल रॉक्स और एलेक्जेंडर येरसिन ने जीवाणु द्वारा उत्पादित विष की पहचान की। यहां से बीमारी के कारण माइक्रोबियल गतिविधि समझ में आ गई थी। इसके बाद 1890 में शिबासाबुरो किटास्टो और एमिल वॉन ने फायदेमंद बैक्टीरिया पैदा करने वाले टॉक्सिन को ढूंढ निकाला। इसके बाद ये खुलकर सामने आ चुका था कि अब ये टॉक्सिन डिप्थीरिया के लिए काफी फायदेमंद साबित हो चुका है। ऐसे पूरी तरह से इनएक्टिवेटेड एंटीटॉक्सिन को गेस्टॉन रेमोन और एलेक्जेंडर ग्लेनी के हाथों विकसित किया गया। इस तरह से डिप्थीरिया से निपटने के लिए (DPT) इंजेक्शन ने 1948 में पूरे देश में कदम रखा।   

काली खांसी और टिटनेस का टीका
डिप्थीरिया के लिए खोजे गए टीके में और भी कई फायदेमंद चीजों को खोजा व जोड़ा गया। इसके बाद मिलकर बना सिर्फ ऐसा टीका जो एकसाथ डिप्थीरिया, काली खांसी और टिटनेस से निपटेगा। ये था वही DPT का टीका। DPT का मतलब है diphtheria, pertussis और tetanus का टीका। ये थ्री इन वन भी कहकर बुलाते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि ये एकसाथ तीन बीमारियों से लड़ता है।  

पोलियो का टीका
20वीं शताब्दी के शुरुआत में 1916 में पोलियो ने करीब 6000 अमेरिकियों को मौत के घाट उतार दिया। इसके अलावा इसी समय में 6000 से ज्यादा लोग विकलांग हो गए। 1929 में मरीजों को सांस लेने में मदद करने वाला आयरन लंग विकसित किया गया। ढेरों परीक्षण करने के बाद 1930 में जॉन कोल्मर ने एक टीके का अविष्कार किया। जॉन साल्क ने इस टीके को परीक्षण में सफल पाया। 1955 में इस टीके को यूएस की ओर से आधिकारिक लाइसेंस दे दिया गया। उसके बाद से कई अभियानों के जरिए अब तक पोलियो के इस टीके का प्रचार किया जाता रहा है।

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