ऐसी यात्रा जिसमें 60 किमी का सफर हो और 36 तरह की कमियां, दुश्वारियां और तकलीफें हों. जी हां, हम रेल यात्रा की बात ही कर रहे हैं. रेल बजट आने को है. बजट के बाद रेलवे में क्या बदलाव दिखेगा ये तो वक्त बताएगा लेकिन अभी क्या है रेलवे, ट्रेन, स्टेशंस, सुविधाओं और समस्याओं की हकीकत? यहीं जानने के लिये आई नेक्स्ट ने किया वाराणसी से जौनपुर तक का छोटा सफर वो भी आम यात्री बन कर.
दम है अगर तभी करो रेलवे का सफर !
आज तारीख है 4 जुलाई और दिन है शुक्रवार. सुबह के 8 बजे चुके हैं. मैं आई नेक्स्ट रिपोर्टर अपने फोटोग्राफ कलीग के साथ पहुंच चुका हूं कैंट रेलवे स्टेशन. पूर्वांचल के इस सबसे महत्वपूर्ण स्टेशन पर मुझे चाहिये जौनपुर जाने वाली सबसे लेटेस्ट ट्रेन की इंफार्मेशन और उसके बाद जौनपुर तक का दो जनरल टिकट.
डिस्प्ले तो गड़बड़ है भाई ये क्या, स्टेशन के मेन हाल में लगा एलईडी डिस्प्ले बोर्ड के ऊपरी साइड पर कुछ डिस्प्ले ही नहीं हो रहा. कोई बात नहीं इंक्वॉयरी वाले पूछ लेता हूं. उफ लेकिन कितनी भीड़ है वहां. अरे भैया जौनपुर के लिये कौन सी ट्रेन है? मेरे तीन बार पूछने के बावजूद मानो उन्होंने सुना नहीं. किसी और ने भी यही सवाल किया. इंक्वॉयरी वाले भैया ने बोला 5 नम्बर प्लेटफॉर्म पर डुप्लीकेट पंजाब मेल आ रही है, जल्दी पहुंचो.
जानकारी मिलते ही हम पहुंचे मेन हाल के बगल में टिकट काउंटर की ओर. ओह गॉड, इतनी लम्बी लाइन है कि शाम की शिवगंगा भी छूट जाये और टिकट न मिले.
कोई बात नहीं बनारसी तो जुगाड़ से ही चलते है. एक लाइन में आगे की ओर खड़े एक अंकल से रिक्वेस्ट किया. एक-दो बार ना नुकुर के बाद वो हमारा भी टिकट निकालने को मान गये. 10 मिनट बाद टिकट हमारे हाथ में था.
बड़ी बदबू है मालिक दौड़े-दौड़े हम पहुंचे प्लेटफार्म पांच पर. मेरे फोटोग्राफ का मुंह वहां टेड़ा नजर आया.
बोला भैया यहां तो बहुत बदबू है. ये बदबू रेल ट्रैक से आ रही थी. प्लेटफॉर्म पर मानो काफी समय से झाडू नहीं लगा था. हालांकि कुछ देर बाद एक महिला झाडू मारते नजर आ ही गयी. कुछ राहत मिली.
नल में पानी की तलाश अधूरी रही. फिर हमने एक फूड स्टॉल वाले से 20 रुपये में मिनरल वाटर खरीदा जो एमआरपी से ज्यादा में बेचा जा रहा था. बैठने के लिये कोई कुर्सी खाली नहीं थी. वेटिंग हाल की ओर बड़े वहां भी बदइंतजामी नजर आई.
ट ट्रेन आई और लेट इंक्वॉयरी वाले ने बताया था कि 15 मिनट में टे्रन आ जाएगी जबकि हमें ट्रेन के दर्शन 45 मिनट बाद हुए हैं. जनरल बोगी के लिए लम्बा चलना पड़ा. लेकिन ये क्या अंदर तो एक-एक सीट पर छह-छह एडजेस्ट हैं.
लगेज कैरियर पर भी काफी लोग जगह बनाये हैं. कोई बात नहीं कुछ देर वहां जगह तलाशने के बाद हमें जगह मिल ही गयी.
लोगों ने सुनाया अपना दुखाड़ाहमारी यात्रा में पहला स्टेशन आया बाबतपुर. ट्रेन में सवार अलग-अलग लोगों से हमने बात की. कोई नौकरीपेशा था तो कोई स्टूडेंट. कोई सरकारी कर्मचारी था तो कोई कारोबारी.
इनमे कुछ ऐसे पैंसेजर्स भी थे जो पिछले 30 सालों से हर रोज भारतीय रेल की सेवा ले रहे हैं. एक थे केएन दूबे. जौनपुर में सरकारी विभाग में कार्यरते हैं. बताने लगे. जब 20 साल पहले मैं रेल में जर्नी करता था तब भी चीजें वैसी ही थी जैसी आज हैं. हां, पहले किराया कम था और अब बहुत ज्यादा है. और कुछ लोगों से बात हुई सबने अपना-अपना दुखड़ा सुनाया.
यहां भी दिखी कमियां जौनपुर से पहले पडऩे वाला बड़ा स्टेशन जफराबाद जंक्शन आ चुका है. इस स्टेशन पर लोड ठीक ठाक है लेकिन ना नलों में पानी है ना प्लेटफार्म पर पंखा. लगभग 60 किमी का अपना सफर हम सवा दो घंटे बाद जौनपुर सिटी स्टेशन पहुंच खत्म कर रहे हैं.
इस सफर में हमने बहुत सारी चीजें फील की. अच्छा अनुभव यही था कि ट्रेन ने हमें मंजिल तक पहुंचा दिया. बाकी अनुभव कमियों से भरे हैं.
जौनपुर सिटी स्टेशन के प्लेटफार्म पर नहीं दिखा कोई पंखा. स्टेशन से बाहर जानने का रास्ता दिखाने वाले बोर्ड नहीं दिखा.
प्लेटफॉर्म पर इंतजार करने के लिये बैठने को चेयर कम थीं.
इन्क्वॉयरी काउंटर पर भीड़ जिसमें काफी पूछने पर मिला जवाब.
हालांकि जौनपुर का ये स्टेशन अपने बनारस स्टेशन की तुलना में काफी अच्छा और साफ सुथरा है लेकिन यहां भी किसी प्लेटफॉर्म पर पंखे नहीं थे. चलिए खैर अंत भला तो सब भला और हमारी यात्रा यही होती है समाप्त, जय राम जी की.
अंग्रेजों के जमाने से बनारस दौड़ रहीं हैं ट्रेनें नई दिल्ली-हावड़ा के बीच का मुख्य पड़ाव होने के कारण अंग्रेजों ने भारत में रेलवे की शुरुआत के कुछ दिनों बाद ही बनारस को रेल रूट में शामिल कर लिया. 1890 के दशक में यहां रेल लाइन बिछाकर स्टेशन बनाया गया. तत्कालीन सिकरौल स्टेशन पर दो रेल लाइनें थीं. 1925 में यह स्टेशन वाराणसी जंक्शन बन गया. इस दौरान स्टेशन का कंट्रोल एनईआर के हाथ में रहा. 16 जनवरी 1974 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कैंट स्टेशन बिडिंग की आधारशिला रखी, जो 1985-86 में बनकर तैयार हो गया. मंदिर के आकार जैसी बिल्डिंग वाले इस स्टेशन बिल्डिंग का लोकार्पण तत्कालीन रेल मिनिस्टर पं. कमलापति त्रिपाठी ने किया. इतिहास ने एक बार फिर करवट ली और 1994 में वाराणसी जंक्शन का नियंत्रण एनआर के हाथ में चला गया. इसके बाद स्टेशन से जुड़ी पटरियां मीटर गेज से ब्रॉडगेज में चेंज हो गईं जो आज भी मौजूद हैं.
हद हो गई हैं दस बजे की ट्रेन है और साढ़े सात बजे से लाइन में लगा हूं लेकिन टिकट नहीं मिली. भीड़ इतनी है और टिकट काउंटर पर काम करने वाले काफी स्लो हैं.