भारत में वह 'फ़िल्मी दरिंदा' उन डरावनी फ़िल्मों की बुनियादी इकाई बन गया, जिन्हें भाइयों के एक समूह ने बनाया था और जो 'रामसे ब्रदर्स' कहलाते थे। सात में से पांच अब भी हैं और उनमें से एक- श्याम- ख़ासे सक्रिय हैं।

1972 में उन्होंने अपनी पहली फ़िल्म 'दो गज़ ज़मीन के नीचे' बनाई और 1994 में उन्होंने अपनी आख़िरी बड़ी फ़िल्म 'महाकाल' बनाई। बी ग्रेड हॉरर फ़िल्मों के बाद वह फ़िल्मों पर फ़िल्में बनाते रहे।

कहानी कहने का अंदाज़ कमोबेश एक सा था। अभिनय इस पर निर्भर करता था कि वह किसे साइन कर पाए हैं, इसलिए वह अच्छे और बुरे के पैमाने के बीच भटकता रहा। लेकिन अड़चनों को ध्यान में रखते हुए प्रोडक्शन के गुण क़ाबिल-ए-ज़िक्र रहे।

इस व्यापार को समझते हुए उन्होंने कई बार बेहद कम बजट वाली फ़िल्में बनाईं: क्योंकि ख़र्च से आमदनी ज्यादा होनी चाहिए।

हालांकि 'दरिंदे' हमेशा फ़िल्म का सबसे शानदार हिस्सा बने रहे और उनके साथ कोई समझौता नहीं किया गया।

और अनिरुद्ध अग्रवाल से बेहतर कोई नहीं था, यह शख़्स जो उनकी फ़िल्मों का दूसरा नाम था और जिसकी सिनेप्रेमियों के बीच ज़बरदस्त फॉलोइंग थी। हालांकि उन्होंने रामसे बंधुओं की सिर्फ़ तीन फिल्मों में काम किया और उनमें से दो में दरिंदे का किरदार निभाया।

उन दिनों उन्होंने पर्दे पर अपना नाम अजय अग्रवाल रखा था। लेकिन जब उन्होंने शेखर कपूर के निर्देशन वाली फ़िल्म 'बैंडिट क्वीन' (1996) में फूलन देवी के साथ दरिंदगी करने वाले बाबू गुज्जर का किरदार निभाया, तब तक वह अपने असली नाम का इस्तेमाल शुरू कर चुके थे।

बॉलीवुड का महान और विनम्र दरिंदा,जिसे भुला दिया गया

 

कई और मुख्यधारा की हिंदी फिल्मों, जैसे मेला (2000) और चंद हॉलीवुड फिल्मों में भी- जहां किसी तरह के जंगली 'भारतीय' दरिंदे की ज़रूरत थी, अग्रवाल ने भयावह दृढ़ विश्वास के साथ भूमिकाएं निभाईं।

लेकिन उन्होंने सामरी के किरदार से सबसे बड़ा असर छोड़ा। यह रामसे बंधुओं की सबसे बड़ी हिट फिल्म 'पुराना मंदिर' का विलेन था, जो शैतान की पूजा करता था और इंसानों को खाता था।

मुझसे बात करते हुए उन्होंने बताया था कि उनकी लंबाई सात फुट नहीं है-जैसा कि समझा जाता है। बल्कि यह 6 फुट 4 या 5 इंच है।

कैमरे के मौलिक लेकिन काल्पनिक काम के ज़रिये उन्हें विशालकाय दिखाया गया। लेकिन सामरी के उस चेहरे में क्या था, जिसने उन पुराने, गंदे सिंगल स्क्रीन थियेटरों में दर्शकों की चीखें निकाल दीं।

वह कहते हैं, 'मेरा चेहरा ही ऐसा था कि उन्हें मेकअप भी करने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी। मेरा चेहरा.... मैं सबके लिए डरावना चेहरा बन गया था।'

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श्याम रामसे जिन्होंने अपने भाई तुलसी के साथ ज़्यादातर रामसे फिल्मों का निर्देशन किया, कहते हैं, 'अनिरुद्ध का चेहरा बिना मेकअप के ही काफी अलग था। अगर आप आज उन्हें देखें, अगर वो सड़क पर चल रहे हों तो लोग मुड़-मुड़कर उन्हें देखेंगे। वो हमारे लिए परफेक्ट थे।' बेशक वो परफेक्ट थे।

1949 में जन्मे अग्रवाल देहरादून के एक मध्यवर्गीय परिवार के एक सामान्य लड़के थे, जिनकी लंबाई अपने साथ वालों से कुछ अधिक थी।

1974 में उन्होंने सिविल इंजीनियरिंग में ग्रेजुएशन की। यूनिवर्सिटी में वह छात्र राजनीति, खेल और अभिनय में सक्रिय रहे।

मुंबई में उन्होंने इंजीनियरिंग की गाड़ी कुछ देर चलाई, लेकिन एक्टिंग का कीड़ा बचा रहा। एक बार जब वह तबियत की वजह से ब्रेक पर थे, किसी ने उनसे कहा कि उन्हें रामसे बंधुओं से बात करनी चाहिए।

 

अग्रवाल बताते हैं, 'जब उन्होंने मुझे फिल्म (पुराना मंदिर) ऑफ़र की तो मैंने नौकरी छोड़ दी। मैं एक्टर बनना चाहता था और यही मौका था। मैंने इसे झटक लिया। फ़िल्मों में मेरी रुचि थी तो मुझे लगा कि मुझे और मौके मिलेंगे। मैंने करियर बदल लिया।'

वह बताते हैं, 'फिर मैंने एक के बाद एक दो-तीन फ़िल्में कीं। पुराना मंदिर में मेरे किरदार का नाम सामरी था और अगले साल उन्होंने 'थ्रीडी सामरी' बनाई। किरदार चल निकला और फ़िल्म हिट हो गई तो उन्होंने मेरे साथ एक और फ़िल्म की।'

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पुराना मंदिर सुपरहिट थी, लेकिन थ्रीडी वाली कोशिश नाकाम रही। इसके बाद अग्रवाल 1990 में रामसे की फ़िल्म बंद दरवाज़ा में दिखे। इस फिल्म ने भी अच्छी कमाई की।

लेकिन अग्रवाल को बहुत ज़्यादा काम नहीं मिल रहा था तो वह दोबारा इंजीनियर हो गए। इसके बाद उन्होंने रामसे बंधुओं के एक टीवी हॉरर शो के कुछ एपिसोड में काम किया।

आख़िरी बार वह विल्सन लुइस की मल्लिका (2010) में एक बार फिर सामरी का किरदार निभाते दिखे थे। फ़िल्म डूब गई।

एक शानदार शख़्सित अग्रवाल बेहद विनम्र हैं। वह अपनी क़द-काठी के बारे में खुले मन से बात करते हैं। और एक बेपरवाह इंडस्ट्री ने उन्हें कहां छोड़ दिया है।

वह कहते हैं, 'रामसे बंधु नए अभिनेताओं के साथ फ़िल्में करते थे, इसलिए मुझे देखकर वे बहुत खुश हुए थे। और उन्होंने मेरे चेहरे का फ़ायदा उठाया। मेरा चेहरा आसानी से उनकी फ़िल्मों में फिट हो गया। मैं डरावना बन गया। मेरा चेहरा इतना भयानक था कि कोई मुझे किसी और रोल में सोच ही नहीं पाया।'

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'लेकिन एक समय के बाद मुझे इंडस्ट्री से बाहर निकाल दिया गया। बहुत लोग बहुत संघर्ष करते हैं। मुझे कुछ फ़िल्में मिलीं, लेकिन लगातार नहीं मिलीं। मुझे एक नियमित आमदनी की ज़रूरत थी। मुझे कोई अफ़सोस नहीं है, कोई गुस्सा कुछ नहीं है। मैं और एक्टिंग करना पसंद करता, लेकिन वो हो न सका। मैं एक सार्वजनिक चेहरा हूं जो कहीं बैकग्राउंड में, भीड़ में खो गया है।' लेकिन ऐसा नहीं है।

भले ही उनका ऐसा भारी भरकम काम न हो कि महानों में उनकी गिनती हो, लेकिन भारतीय फ़िल्म इतिहास में अनिरुद्ध अग्रवाल की अपनी जगह है।

इस इदारे में उनसे बेहतर दरिंदा कोई नहीं रहा। एक अलग समय में, एक अलग इंडस्ट्री में, कौन जानता है कि उनके लिए चीज़ें कैसी रही होतीं।

शाम्या दासगुप्ता एक पत्रकार हैं, जिनकी किताब 'डोंट डिस्टर्ब द डेड: द स्टोरी ऑफ़ रामसे ब्रदर्स' हाल ही में हार्परकॉलिन्स इंडिया से छपी है।

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