- अल्लीपुर जिजमाना गांव में किराए के मकान में रह रहे हैं रोहिंग्या

-बच्चों को नहीं मिल रही एजुकेशन, सरकारी स्कूल का दाखिले से इंकार

Meerut : म्यांमार के राखिन प्रांत से रोहिंग्या मुसलमानों के विस्थापन का मुद्दा विश्वभर गरमाया तो देशभर में रोहिंग्या की शिनाख्त नए सिरे शुरू की गई। केंद्र सरकार के विरोधी रुख और सूबे की योगी सरकार की सख्ती के बाद यूपी में रह रहे रोहिंग्या खुद को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। यूनाईटेड नेशन्स हाईकमीशन फॉर रिफ्यूजी का कार्ड सीने से लगाए रोहिंग्या मुसलमानों की पहचान है।

लंबे समय से रह रहे

मेरठ-हापुड़ रोड पर स्थित है अल्लीपुर जिजमाना गांव। हाइवे से 2 किमी बाई ओर स्थित इस गांव को जा रही सड़क के दोनों ओर स्लाटर हाउस और मीट पैकेजिंग प्लांट हैं। गांव में प्रवेश करते हुए प्राइमरी स्कूल के समीप से बाई ओर जा रही संकरी गली में कुछ मोड़ पार करने के बाद है रोहिंग्या मुसलमानों की बसावट। यहां स्थानीय लोगों के मकानों में रोहिंग्या आम लोगों की तरह रह रहे हैं। आम लोगों के बीच रहते हुए ये मजदूर रोहिंग्या की पहचान 'खास' है। गांव में सब जानते हैं कि बर्मा वाले रिफ्यूजी कहां रहते हैं? इस गांव में ज्यादातर बिहार, बंगाल और देश के विभिन्न हिस्सों से मजदूर रहते हैं जो स्लाटर हाउस में काम करते हैं। इन्हीं लोगों के बीच रोहिंग्या के कुछ 8 परिवार रहते हैं। परिवारों में पुरुष मजदूरी करता है तो महिलाएं बच्चों की देखभाल करती हैं। 16 महिला - पुरुषों के अलावा करीब 22 बच्चे इन परिवारों में हैं।

बढ़ रही है परेशानी

कलीम, यह रोहिंग्या मुसलमान हैं। यूएन का यह रिफ्यूजी कार्ड ही इनकी पहचान है। 10 साल पहले म्यांमार त्रासदी की यादें लेकर कलीम बांग्लादेश के रास्ते इंडिया आए। पत्‍‌नी सिनबेरा और 7 बच्चों के साथ मेरठ में रह रहे कलीम का एक भी बच्चा पढ़ नहीं पाया तो कई ऐसे दिन गुजरे जब कलीम की फैमिली भूखे पेट सोए हैं। बातचीत में कलीम ने बताया कि अब एक बार फिर मुद्दा चर्चा में आने के बाद उनकी मुश्किलें बढ़ रही हैं।

पड़ गए थे फांके

अल्लीपुर जिजमाना में रह रहे ज्यादातर रोहिंग्या एकदूसरे के सगे संबंधी हैं। कलीम के दामाद नुरूल हसन ने बताया कि पिछले दिनों सरकार की सख्ती के बाद जिस स्लाटर हाउस में वे काम कर रहे थे वो बंद हो गया। ऐसी स्थिति भी आ गई जब दो-दो दिन के फांके पड़ गए। नुरूल ने बताया कि उनके 3 बच्चे हैं। बड़ी बेटी को वो पास के सरकारी प्राइमरी स्कूल में पढ़ाना चाहते थे किंतु स्कूल ने उनके प्रवेश से इनकार कर दिया। नुरूल की पत्‍‌नी नूरजहां ने बताया कि यहां आसपास रहने वाले लोगों के बीच खुद को अलग-थलग महसूस करती हूं। घर में रहकर बच्चों की देखभाल कर रही हूं।

नहीं मालूम कहां हैं सब?

मेरठ में रह रहे रोहिंग्या परिवारों ने बताया कि उन्हें नहीं मालूम कि उनके परिवार म्यांमार में किस हाल में हैं। लगातार आ रही खबरों से उनका मन बैठता है तो वहीं कोई फोन नंबर न होने से हालचाल भी नहीं मिल पा रहा है। नुरूल हसन की दादी-बाबा राखिन में हैं तो पिछले दिनों मां अलीगढ़ में आकर बस गई है। कलीम का पूरा परिवार बिखरा है। 7 बच्चों में से ज्यादातर बिछड़ चुके हैं। कहां हैं नहीं मालूम? स्थानीय लोगों का इन विस्थापितों का सहयोग नहीं मिलता है।

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कोर्ट की सुनवाई पर नजर

सुप्रीम कोर्ट में रोहिंग्या मुसलमानों के विस्थापन पर चल रही सुनवाई पर मेरठ में रह रहे रोहिंग्या की नजर है। नुरूल बताते हैं कि हमें कोर्ट पर भरोसा है कि वो हमारे हितों को नजरअंदाज नहीं करेगा। 21 नवंबर को होने वाली सुनवाई में हमें पूरी उम्मीद है कि कोर्ट हमारे हितों को सुरक्षित रखेगी। बच्चों की शिक्षा से लेकर सम्मानजनक जीवन और रोजगार की मांग हम देश की सरकार से कर रहे हैं, बस। नूरजहां ने बताया कि पिछले दिनों से कई-कई लोग आकर पूछताछ करते हैं। हमेशा मन में खौफ रहता है।

नोट:-मेरठ के खरखौदा थानाक्षेत्र के अल्लीपुर जिजमाना गांव में रह रहे रोहिंग्या मुसलमानों से बातचीत पर आधारित