प्राण छोड़ चुके शरीर का क्या करें?

बहुत से देशों के लिए मुर्दे मुसीबत बन गए हैं। जिन लोगों के प्राण उनके शरीर छोड़कर निकल गए हैं, उनका क्या करें? कहां दफ़नाएं? कैसे जलाएं? अस्थियां कहां रखें?

ये ऐसे सवाल हैं, जिनसे बहुत से देश परेशान हैं। हिंदुस्तान भी इन देशों में से एक है। हाल ही में दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा था कि जिस तरह क़ब्रिस्तानों और श्मशानों का विस्तार हो रहा है, उससे तो कुछ साल बाद लोगों के रहने के लिए ही जगह नहीं बचेगी।

दफ़नाने की जगह की ऐसी किल्लत हो गई है कि पुरानी क़ब्रें खोदकर उनकी जगह नई लाशें दफ़नाई जा रही हैं। कई यूरोपीय देशों में क़ब्र के लिए ज़मीन इतनी महंगी हो गई है कि ज़मीन से अस्थियां निकालकर उन्हें बड़े गड्ढों में जमाकर किया जा रहा है।

दुनिया भर में मुर्दे कितनी बड़ी मुसीबत बनते जा रहे हैं?

 

मुर्दे कितनी बड़ी मुसीबत बनते जा रहे हैं?

बीबीसी की रेडियो सिरीज़ 'द इनक्वायरी' में इस बार मारिया मार्गारोनिस ने इस मुद्दे की गहराई से पड़ताल की। उन्होंने दुनिया भर के जानकारों से बात की, तो पता चला कि मुर्दे कितनी बड़ी मुसीबत बनते जा रहे हैं।

धरती पर सिर्फ़ इंसान ही ऐसा जीव है, जो अपने गुज़र चुके साथियों को सम्मान के साथ आख़िरी विदाई देता है। ये इंसानी सभ्यता की बुनियादी ख़ूबियों में से एक है।

इतिहासकार थॉमस लैक्युर ने इस पर एक क़िताब लिखी है, जिसका नाम है: द वर्क ऑफ ए डेड- द कल्चरल हिस्ट्री ऑफ मोर्टल रीमेंस।'लाश के साथ छड़ी छोड़ जाना'

थॉमस एक मशहूर ग्रीक दार्शनिक डायोजीनस का क़िस्सा सुनाते हैं। जब डायोजीनस के शागिर्दों ने उनसे पूछा कि मौत के बाद उनके शरीर का क्या करेंगे।

उन्होंने जवाब में कहा कि उसे फेंक देना। जब छात्रों ने कहा कि ये तो मृतात्मा का अपमान होगा। जानवर लाश को खा जाएंगे। तो डायोजीनस ने कहा कि तुम मुझे एक छड़ी दे देना। मैं अपनी हिफ़ाज़त कर लूंगा। जब शागिर्दों ने याद दिलाया कि गुरू जी आप तो मर चुके होंगे। आप मुर्दा होकर कैसे जंगली जानवरों से ख़ुद को बचाएंगे।

तब डायोजीनस ने कहा कि यही तो मैं समझा रहा था कि जब मैं मर जाऊंगा, तो इस बात से क्या फ़र्क़ पड़ता है कि मेरी लाश के साथ क्या होता है।

मगर हर शख़्स तो डायोजीनस जैसा वली होता नहीं। इसीलिए सदियों से तमाम इंसानी सभ्यताओं में मुर्दों को मान देने का चलन है। पारसियों में भी लाश को ऊंचे टीले पर ले जाकर रखने की परंपरा है। वहीं दूसरे मज़हबों में दफ़नाने से लेकर जलाने तक का रिवाज है।

दुनिया भर में मुर्दे कितनी बड़ी मुसीबत बनते जा रहे हैं?

 

अंतिम संस्कार का चलन कब से शुरू हुआ?

हालांकि ये पता नहीं कि इंसानी समाज में लाशों के अंतिम संस्कार का चलन कब से शुरू हुआ। मगर, इतिहासकार थॉमस बताते हैं कि निएंडरथल मानव भी अपने मुर्दों का अंतिम संस्कार करते थे।

प्राचीन काल में मिस्र में राजाओं के शव लेप लगाकर पिरामिड में दफ़न किया जाता था। वहीं हिंदू धर्म में गाजे-बाजे के साथ जनाज़ा निकालकर अंतिम संस्कार किया जाता है। लेकिन दुनिया की ज़्यादातर सभ्यताओं मे दफ़न करने का चलन है। चीन के लोग हों या फिर ईसाई और मुसलमान।

लाशों को दफ़्न करने के बाद उन्हें छेड़ा नहीं जाता था। इसे गुज़र चुके इंसान की बेहुरमती माना जाता है। आज भी हर समाज में यही सिखाया जाता है कि लाश से बदसलूकी नहीं होनी चाहिए।

पहले हर समुदाय के अपने क़ब्रिस्तान हुआ करते थे। मगर शहरों के विस्तार ने ये भेद मिटा दिया है। थॉमस कहते हैं कि हम मुर्दों को इतना सम्मान इसलिए देते हैं कि हम इंसान के तौर पर अपने इतिहास को समझना चाहते हैं।

अपनी परंपराओ को आने वाली नस्लों के हाथों में सौंपना चाहते हैं। इसीलिए क़ब्रों से छेड़खानी बहुत बुरी बात मानी जाती है।

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'हर ज़िंदा इंसान के बरक्स 30 लाशें धरती पर हैं'

हालांकि युद्ध अपराधों की पड़ताल के लिए कई बार क़ब्रों को खोदना भी पड़ा है। वो भी इसीलिए, ताकि मरे हुए इंसान को समाज में सम्मान और उसका वाजिब हक़ दिलाया जा सके।

मगर, धरती पर लाशों का बोझ इस कदर बढ़ता जा रहा है कि आज बहुत से शहरों में नए मुर्दों को दफ़नाने के लिए जगह ही नहीं बची। दिल्ली हो या लंदन, या न्यूयॉर्क, येरुशलम, सिंगापुर, लाहौर या फिर कोई और बड़ा शहर।

 
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सब का यही हाल है।

इसकी वजह ये है कि आज की तारीख़ में हर ज़िंदा इंसान के बरक्स 30 लाशें धरती पर हैं। नतीजा ये है कि ग्रीस जैसे छोटे देश में अपनों को दफ़नाने के लिए लोगों के पास जगह ही नहीं बची। इसीलिए पुराने क़ब्रिस्तानों को खोदकर, उसमें से हड्डियां निकालकर, नए मुर्दों के लिए जगह बनाई जा रही है।

कई बार इन हड्डियों को बड़े-बड़े गड्ढों में जमा किया जाता है। यानी आप अपने पुरखों की निशानी को हमेशा के लिए गंवा देते हैं।

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जिंदा लोगों के लिए जगह है, मुर्दों के लिए नहीं

यूनान की राजधानी एथेंस में थर्ड सीमेटरी, यूरोप के बड़े क़ब्रिस्तानों में से एक है। यहां काम करने वाले अलेक्ज़ांड्रोस कोर्कोडिनोस कहते हैं कि क़ब्रिस्तान में रोज़ 15 लाशें दफ़्न होने के लिए आती हैं। हाल ये है कि आज एथेंस में रहने की जगह ढूंढना आसान है, दफ़न होने के लिए दो गज़ ज़मीन मयस्सर नहीं।

हर लाश के लिए क़ब्र का जुगाड़ करने के लिए पुरानी क़ब्र को तीन साल में खोदा जाना चाहिए। मगर कई बार लाशें तीन साल में पूरी तरह गलती नहीं हैं। ऐसे में जिनके रिश्तेदार होते हैं, उनके लिए क़ब्रें खोदने का काम बेहद तकलीफ़देह हो जाता है।

हर साल एथेंस की थर्ड सीमेट्री से क़रीब पांच हज़ार लाशों को क़ब्रों से बेदखल करके नए मुर्दों के लिए जगह बनाई जाती है। निकाली गई हड्डियों को बक्सों में बंद करके एक इमारत में रखा जाता है। इसे ओसुअरी कहते हैं।

मगर, इन दिनों तो ओसुअरी में हड्डियों के बक्से रखने की जगह भी नहीं बची है। इसलिए हड्डियों को एक बड़े से गड्ढे में जमा किया जा रहा है।

अब जो लोग कभी-कभी अपने पुरखों की क़ब्रों को देखने, उन्हें झाड़ने-पोंछने और दिया जलाने आते थे, उनके लिए ये सिलसिला हमेशा के लिए ख़त्म हो जाता है। ये बहुत जज़्बाती बात है। जिसके ऊपर बीतती है, वो ही समझ सकता है।

 
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ईसाइयों में क्यों शुरू हुआ लाशों को जलाना?

ज़मीन की कमी की वजह से ही ईसाइयों में भी शवों को जलाने का चलन शुरू हुआ था। हालांकि चर्च इसके ख़िलाफ़ थे। लेकिन हालात ने लाशों को जलाने के लिए मजबूर कर दिया।

दिक़्क़त ये है कि पूरे यूनान में एक भी शवदाह गृह नही है। नतीजा ये कि लाशों को दफ़्न करना, यूनान के लिए राष्ट्रीय चुनौती बन गया है। इसीलिए अब ग्रीस में भी एक शवदाह गृह खोला जा रहा है। पर शायद आगे चलकर राख को रखने के लिए जगह भी चुनौती बन जाए।

यूनान की तरह ही हांगकांग भी क़ब्रिस्तान के लिए कम पड़ती जगह से परेशान है। चीन के लोगों के बीच अपने पुरखों के बीच वक़्त बिताने का चलन है। हांगकांग में चुंग यूंग नाम का त्यौहार मनाया जाता है। जिसमें लोग खाने-पीने का सामान बनाकर अपने पुरखों के क़ब्रिस्तान जाते हैं और उन्हें चढ़ाते हैं। लोग क़ब्र पर कागज के पैसे और दूसरी चीज़ें जलाया करते हैं। माना जाता है कि ये सामान ये दुनिया छोड़कर जा चुके लोगों को मिल जाता है। जो दूसरी दुनिया में उनके काम आता है।

अब जिस देश में रहने के लिए जगह इतनी मुश्किल से मिलती हो, वहां मुर्दे दफ़्न करने की जगह का इंतज़ाम कैसे होता। इसीलिए, हांगकांग में सत्तर के दशक से ही लाशों को जलाने की परंपरा शुरू हो गई थी।

 

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जहां अस्थियों के बैग खाली होने का कर रहे हैं इंतज़ार

मगर अब तो हाल ये है कि हांगकांग में पुरखों की राख रखने तक के लिए जगह कम पड़ने लगी है। हांगकांग में हर साल क़रीब पचास हज़ार लोगों की मौत होती है।

इनकी अस्थियां कोलमबैरियम नाम की इमारत में रखी जाती है। अब इन इमारतों में भी जगह ख़त्म हो रही है। आज की तारीख़ में अस्थियों के क़रीब बीस हज़ार बैग, कोलमबैरियम में रखे जाने के लिए जगह खाली होने का इंतज़ार कर रहे हैं।

इसलिए अपनों की यादों को सहेजने के लिए लोग नए-नए तरीक़े अपना रहे हैं। जैसे कि हांगकांग की रहने वाली बेट्सी मा ने निकाली है। उन्होंने अपने पिता की अस्थियों के गहने बनवा डाले। इसे वो और उनकी मां पहना करती हैं। दोनों को लगता है कि इस तरह से वो अपने पिता और पति को अपने क़रीब रखती हैं।

वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अपनो की अस्थियां बिखेर देते हैं। पर, बेट्सी जैसे कुछ लोग अपने मर चुके रिश्तेदारों की कुछ न कुछ निशानी चाहते हैं। इसीलिए वो हड्डियों के गहने बनाकर पहन रही हैं। हालांकि, दूसरों को ये आइडिया शायद ही पसंद आए।

अमरीका जैसे बड़े देश में भी अंतिम संस्कार और मुर्दों को दफ़नाने की जगह की किल्लत हो रही है। इसलिए लोग अंतिम विदाई के नए नुस्खे लेकर आ रहे हैं।

 

क़ब्रिस्तान का डिजिटल कोड

मगर, सवाल वही है कि जो लोग क़ब्रिस्तान जाकर अपने पुरखों को याद कर लिया करते थे। उनसे बातें करके अपना ग़म बांटते थे, वो अब कहां जाएंगे?

इसका भी तोड़ निकाल लिया गया है। नीदरलैंड में डिजिटल क़ब्रिस्तान बनाया जा रहा है। जहां पर मरने वाले के क़ब्रिस्तान का डिजिटल कोड होता है। इस कोड के ज़रिए आप गुज़र चुके शख़्स के बारे में मालूमात हासिल कर सकते हैं। उसकी ज़िंदगी के बारे में पढ़ सकते हैं। तो, बदलते दौर के साथ अंतिम संस्कार का तरीक़ा भी बदल रहा है। और मरने वाले को याद करने का तरीक़ा भी।

 
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मुर्दों को गहरी नींद से जगाना!

हां, इंसान अपने मरने वाले साथियों को सम्मान से विदाई दे ये ज़रूरी है। क्योंकि यही हमें बाक़ी जानवरों से अलग करता है। हमें सभ्य कहने का मौक़ा देता है।

कभी लोग अपने प्रिय लोगों की याद में बड़े-बड़े मक़बरे बनवाया करते थे। जैसे कि ताजमहल या हुमायुं का मक़बरा। और आज ये दौर आया है कि नई लाशों को दफ़्न करने के लिए पुराने मुर्दों को गहरी नींद से जगाना पड़ता है।

तो पहले जहां क़ब्रों पर पत्थर लगा करते थे। वहीं अब डिजिटल यादें सहेजी जा रही हैं।

 

कैफ़ी आज़मी ने बहुत ख़ूब कहा था-

इंसान की ख़्वाहिशों की कोई इंतेहा नहीं

दो गज़ ज़मीन चाहिए, दो गज़ कफ़न के बाद।

तो साहब, अब वो दौर है कि मरने के बाद अपनी ख़्वाहिशों को महदूद रखें। इसी में इंसानियत की भलाई है।

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