1. 13 मार्च 1919 :-

13 अप्रैल 1919 का दिन कोई भारतीय नहीं भूल सकता। यह वो दिन था जब अमृतसर के जलियांवाला बाग में हजारों निहत्थे भारतीयों पर अंग्रेजों ने ताबड़तोड गोलियां चलाकर लाशें बिछा दीं थी। दरअसल 12 अप्रैल को बैसाखी के दिन पर बाग में एक सभा का आयोजन किया गया था। इस सभा में कुछ नेता भाषण भी देने वाले थे। उस समय शहर में कर्फ्यू लगा हुआ था, इसके बावजूद बैसाखी के मौके पर सैकड़ों लोग बैसाखी का आनंद उठाने अपने परिवार के साथ मेला देखने और शहर घूमने आए थे। ऐसे में लोगों ने नेताओं के भाषण को भी सुनने का मन बनाया। उसी समय जब नेता रोड़ियों पर खड़े होकर भाषण दे रहे थे, तभी ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर 90 ब्रिटिश सैनिकों को लेकर वहां पहुंच गया। नेताओं ने सैनिकों को देखकर वहां मौजूद लोगों को शांती से बैठे रहने को कहा, ताकि कोई भगदड़ न मच जाए। इतने में सैनिकों ने बाग को चारों ओर से घेरकर निहत्थे और निर्दोष लोगों पर गोलियों की बौछार कर दी। मौके की भयावहता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सिर्फ 10 मिनट में सैनिकों ने कुल 1650 राउंड गोलियां चलाईं। भागने का कोई रास्ता न मिलने पर कुछ लोग तो मैदान में मौजूद एकमात्र कुएं में ही कूद गए। देखते ही देखते कुआं भी लाशों से पट गया। इस नरसंहार में 1000 से भी ज्यादा लोग मारे गए थे और 2000 से भी ज्यादा लोग घायल हुए थे, वहीं सरकारी आंकड़ों में मृतकों में से 379 लोगों के मारे जाने की खबर बताई गई थी।

2. उधम सिंह ने ठानी डायर को मारने की

इस घटना ने ऊधमसिंह को झकझोर कर रख दिया। उन्होंने अंग्रेजों से बदला लेने की ठान ली। हिन्दू, मुस्लिम व सिख एकता की नींव रखने वाले ऊधमसिंह उर्फ राम मोहम्मद आजादसिंह ने इस बर्बर घटना के लिए साफ तौर पर माइकल ओ डायर को जिम्मेदार माना। बतौर गवर्नर डायर के आदेश पर ही ब्रिगेडियर जनरल रेजीनल्ड, एडवर्ड हैरी डायर, जनरल डायर ने 90 सैनिकों से वहां गोलियां चलवाईं। अब ऊधमसिंह ने शपथ ली कि वह माइकल ओ डायर को मारकर इसका बदला लेंगे। इसके लिए ऊधमसिंह ने विभिन्न नामों से अफ्रीका, नैरोबी, ब्राजील और अमेरिका की यात्रा की। 1934 में वह लंदन पहुंचे। यहीं पर रहने लगे। यहां उन्होंने छह गोलियों वाली एक रिवॉल्वर भी खरीदी।

3. कुछ ऐसे लिया उधम सिंह ने बदला

अब उधमसिंह को सही वक्त का इंतजार था। जलियांवाला बाग हत्याकांड के 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को रायल सेंट्रल एशियन सोसायटी की लंदन के कॉक्सटन हॉल में बैठक थी। यहां मायकल ओ डायर भी वक्ताओं में से था। ऊधमसिंह उस दिन समय से ही बैठक स्थल पर पहुंच गए। उन्होंने अपनी रिवॉल्वर को एक मोटी किताब में छिपा लिया। इसके लिए उन्होंने किताब के पन्नों को रिवॉल्वर के आकार में उस तरह से काट लिया था। बैठक के बाद दीवार के पीछे से ऊधमसिंह ने डायर पर गोलियां दाग दीं। दो गोलियां डायर को लगीं। इससे उसकी मौके पर ही मौत हो गई। गोलीबारी में डायर के दो अन्य साथी भी घायल हो गए। ऊधमसिंह ने वहां से भागने के बजाए आत्मसमपर्ण कर दिया। मुकदमे के दौरान अदालत में उनसे पूछा गया कि वह डायर के अन्य साथियों को भी मार सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया। इसपर उन्होंने जवाब दिया कि वहां पर कई महिलाएं भी थीं। भारतीय संस्कृति में महिलाओं पर हमला करना पाप है। 4 जून 1940 को ऊधमसिंह को हत्या का दोषी ठहराया गया। 31 जुलाई 1940 को उन्हें पेंटनविले जेल में फांसी दे दी गई।

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