मई की तपती दोपहरी में रामदेव राय के घर उस दिन जब तीसरी बेटी पैदा हुई तो लोगों को लगा था कि शायद इस बार उनके सब्र का बांध टूट जाएगा। अरे, ये क्या... उल्टा हो गया। एक अदद बेटे की आस लिये मां की कोख में अनायास आ धमकी गिरिजा की पैदाइश पर राय साहब मस्त हो गये। चंदौली सकलडीहा के पुरनिये बताते हैं कि राय साहब ये भूल गये कि उनके मन में एक बेटे की चाहत थी। उन्होंने सौरी कराने आयी नाऊन को नेग दिया और कहा कि जाओ गांव भर को बता आओ कि धान के कटोरे में सरस्वती आयीं हैं। उन दिनों चकिया, चंदौली और सकलडीहा बनारस में हुआ करता था। धान की बेशुमार खेती होती थी। पूरे इलाके में लोगों के पास थी बेशुमार लक्ष्मी। लेकिन तब इस इलाके में लोगों के पास सरस्वती कम हुआ करती थीं। तो आठ मई 1929 को दोपहर में सद्यजन्मा बच्चे को गोद में लेकर अचानक से गाना गाने लगे राय साहब को शायद ये इलहाम भी नहीं रहा होगा कि वो जिस बेटी को गोद में लिये हुए हैं वो एक दिन वाकई सरस्वती की अवतार साबित हो जाएंगी। उन्हें इस बात का जरा भी खयाल नहीं था कि वो बच्ची के कान में राग चैती में जो ठुमरी गुनगुना रहे हैं, रात हम देखली सपनवा हो रामा, पिया घर आए... वो उनके लिए इबादत बन कर उनके तमाम सारे सपनों को सच कर देगी।
राय साहब ने बेटी का नाम जब गिरिजा रखा तो उनकी चाहत थी कि वो घुड़सवारी करे और तमाम वो सारे काम करे जो एक जाबांज लड़के किया करते हैं। गिरिजा बाबूजी का मन रखने के लिए ये सब कर तो लेतीं थीं लेकिन पेटी देखते ही वो जैसे मचल जाती थीं। उस जमाने में हरमोनियम को लोग पेटी कहते थे। जब वो दो साल की थीं तो राय साहब अपने बच्चों की अच्छी पढ़ाई के लिए बनारस आ गए। कबीरचौरा में रहना हुआ तो जैसे वहां की आबो हवा ने जैसे गिरिजा की चाहतों को पर लग गये। कथक टोला में दिन भर गाने बजाने का माहौल था। सो अब पांच साल की हो गयीं गिरिजा को एक नयी पेटी दिला कर राय साहब पहुंच गये पास ही में रहने वाले पंडित सरयू प्रसाद मिश्र जी के घर। कहा, गुरुजी बस मेरी बेटी को गवैया बना दो। उन्होंने हामी भरी और फिर यहीं से शुरु हो गया गिरिजा से गिरिजा देवी और फिर अप्पा जी बनने का एक अंतहीन सफर। अप्पा जी तरबीयत से तो बनारस घराने की संगीत हासिल कर ही रहीं थीं लेकिन तबीयत से भी कब खालिस बनारसी हो गयीं ये उनके पल्ले भी नहीं पड़ा। वो अक्सर बतातीं थीं कि अरे बचवा हम्में का मालूम रहल कि कब्बो हमें आपन नैहर छोड़े के पड़ी। बाबूजी हमार चहतों ना रहलन कि गंगा माई हमसे छूटैं। इ कबीरचौरा हमसे छूटै। सच कहीं त हमार बाबू हमार परथम गुरु रहलन। ओनके अलावा केहू नाही चाहत रहल कि हम गाना सीखीं। अप्पा जी की अम्मा को बेटी का गाना बजाना कभी नहीं सुहाया। वो कहती भी थीं कि गिरिजवा आप टाइम बरबाद करत हौ अउर कोई के ओकर फिकिर ना हौ।
अब अम्मा को क्या मालूम था कि उनकी गिरिजवा एक दिन ठुमरी, टप्पा, दादरा, चैती और खयाल गायकी की पर्याय बन जाएंगी। हिन्दुस्तानी गायकी उनके सामने अदब से पेश आएगी। वो सैकड़ों गवैयों की गुरु मां बन जाएंगी। संगीत के बड़े घराने उन्हें सजदा करते नजर आएंगे। रे बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए पर उनका लिया आलाप इंडियन क्लासिकल म्यूजिक का नयी परिभाषा रच देगा। उनकी खूबसूरत आंखें बालीवुड से फिल्मों के प्रपोजल्स की लाइन लगा देगी। लेकिन इन सबसे इतर अप्पा अपनी संगीत साधना में कुछ इस कदर डूबीं कि उन्हें बनारस छोडऩा गवारा ही नहीं हुआ। बाद के दौर में पंडित श्रीचंद मिश्र से गंडा बंधवाने के बाद उन्हें किसी और बात का खयाल ही नहीं रहा। अपने गुरुदेव की आखिरी सांसों तक अप्पा ने उनसे ही तालीम हासिल की। इस बीच मौसिकी से उनकी आशिकी परवान चढ़ती रही और अप्पा की शोहरत मुल्क की सरहदें लांघ कर उन्हें यहां वहां और कहीं भी आकर बस जाने का न्यौता देती रहीं। पर अप्पा को पसंद आये टिपिकल बनारसी मधुसूदन जैन। मधुसूदन बाबू बनारस के रईस अगरवाला थे। लम्बा चौड़ा कारोबार। चौक पर बड़ी सी दुकान। महज सत्रह बरस की उम्र में इश्क और रिश्ता दोनों में से किसने जिंदगी में पहले दस्तक दी समझ में नहीं आया और गिरिजा देवी मधुसूदन बाबू की ब्याहता हो गयीं। ससुराल पहुंची तो लोगों ने गाने बजाने पर नाक भौं सिकोड़े। गिरिजा के मोहपाश में डूबे अकेले मधुसूदन बाबू उनकी गायकी के समर्थक थे। सास ने कहा कि घर में गाना हो तो ठीक, बाहर की महफिल में यह सब सब नहीं होना चाहिए। कुछ दिन तक ये सब चला। फिर तय हुआ कि अलग रह कर कुछ किया जाए। सारनाथ में एक छोटा सा घर लिया गया। इस बीच जिंदगी में आयी बेटी को अपनी अम्मा के हाथ सौंप अप्पा जी सारनाथ में रहने लगीं। छोटे मोटे आयोजनों से लेकर रेडियो तक के कार्यक्रम। जिदंगी का हिस्सा बन गये। म्युजिक की इबादत के लिए देश भर की यायावरी चलती रही। मुल्क के नामचीन संगीतज्ञों के साथ मंच की शेयरिंग और जुगलबंदी ने सफलताओं का एक ऐसा मुक्तसर आसमान तैयार किया जहां गायकी कि बंदिश साधना का जरिया बनी।
अप्पा जी ने चेलों की ऐसी मंडली तैयार की जो दुनिया भर में गवैया कहलाए। नामों की फेहरिस्त काफी लम्बी है। 1978 में बनारस से कोलकाता जाकर बसने की मजबूरी, अपनी माटी से बेपनाह मोहब्बत, बनारस के छूट जाने का गम और दिली तौर पर उससे कभी जुदा न हो पाने की शिद्दत अप्पा जी को हमेशा सालती रही। जी बहलाने के लिए संगीत अकादमी तो एक बहाना था लेकिन अप्पा अपनी बनारसी बोली के सहारे बनारस को जीती रहीं। पान खाने की अपनी स्टाइल, हर प्रोग्राम के बाद मलाई खाने की उनकी ख्वाहिश और बात बात पर पूरबी कहावत सुनाती अप्पा चालीस साल बाद भी कभी कलकतिया नहीं हो पायीं। उनके नाक पर दमकता हीरे का लौंग, हाथ में चौबीस कैरेट गोल्ड का मोटा कड़ा और गले का हार उनके शौकीन बनारसी मिजाज का प्रतीक था। कई बार सार्वजनिक तौर पर उन्होंने कहा भी कि मस्त रहा मुसीबत त अपने आपै पस्त हो जाई। उनकी ये सब कुछ चीजें हैं जो जिंदगी के प्रति उनके नजरिए को स्पष्ट करती है। उस फिलॉस्फी से रूबरू कराती है जो गिरिजा नाम की लड़की को अप्पा जी में तब्दील कर देता है।
अप्पा आज आपकी रूह हमारे बीच से रुखसत हो चुकी है। उसने इस अनंत कायनात में किसी और देह में जन्म भी ले लिया होगा। यकीन है कि वहां भी आप अपने टप्पा, ठुमरी, चैती और खयाल गायकी से से एक नये रचना संसार का सृजन करने की योजना में लग गयीं होंगी। वहां भी आपके सामने गंडा बंधवाने की आस लिये मुरीदों की भीड़ होगी। आपकी गायकी के आशिकों की फौज होगी। आपका मुस्कराता चेहरा उन सबमें एक नयी ऊर्जा का संचार करेगा। इन सबके बीच हमें इस बात का भी यकीन है कि आप वहां भी बनारसी संगीत के हमेशा सरसब्ज रहने के लिए दुआगो होंगी। आमीन।
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