titanic: indian connection

passenger no. 1


नाम  -   मिस रूथ एलिजाबेथ बेकर
उम्र  -   13 साल
ठिकाना  -  आंध्र प्रदेश, भारत
पेशा -   स्टूडेंट


अमेरिका जाने के लिए रूथ का सफर आंध्र प्रदेश से शुरू हुआ था. सफर में उनके साथ उनकी मां और दो भाई भी थे. 29 दिन के थका देने वाले सफर के बाद जब रूथ आयरलैंड के शहर साउथैम्पटन पहुंचीं तो उन्हें  टाइटेनिक एक मात्र ऐसा जरिया दिखा जो उन्हें और उनके परिवार को जल्द से जल्द उनकी मंजिल तक पहुंचा सकता था. टाइटेनिक हिस्टोरिकल सोसाइटी को दिए एक पुराने इंटरव्यू से मिले उनके शब्द कुछ यूं हैं, ‘मेरे पास शब्द ही नहीं हैं उसकी खूबसूरती को बयां करने के लिए.’ इस लंबे सफर पर रूथ का शिप पर कोई साथी नहीं था और जो हमउम्र थे वह रूथ की भाषा ही नहीं समझ पाते थे. अपने पुराने इंटरव्यू में रूथ ने खुद ही इस बात का खुलासा भी किया था,’ मेरी इंग्लिश उतनी अच्छी नहीं थी. मैं भारत से थी और इंग्लिश के शब्दों के साथ तेलगू के शब्द जोड़ कर ही मेरी बात पूरी हो पाती थी. जो शिप पर मौजूद दूसरे यात्रियों की समझ से परे था.’ खैर रूथ को क्या पता था की इस समस्या से बड़ी समस्या उनका इंतजार कर रही है. 14 अप्रैल की रात 11:40 पर रूथ शिप पर अपने कमरे में सो रही थीं की तभी उनकी मां दौड़ते हुए कमरे में आई और रूथ को जगाने लगीं. कुछ भी समझ पाने से पहले ही रूथ अपने परिवार के साथ शिप की डेक पर पहुंच चुकी थी. जहां पहली बार उसे किसी अनहोनी के होने का अहसास हुआ. अपने पुराने इंटरव्यू में उस रात का सीन बताते हुए रूथ ने कहा था, ‘औरतों को लाइफ बोट पर बैठाया जा रहा था. मेरी मां और भाई लाइफबोट नंबर 11 में बैठ चुके थे और मेरे लिए उस बोट में जगह नहीं थी.’ किसी तरह रूथ को लाइफबोट नंबर 13 में जगह मिली जिसने उन्हें रेस्क्यू शिप कारपेथिया पर पहुंचा दिया. टाइटेनिक से लाइफबोट पर सवार हुई रूथ ने जब टाइटेनिक को पलट कर देखा तो उनके मन में जो भाव थे उन्हें शब्दोंं में अपने इंटरव्यू में रूथ ने कुछ यूं बयां किया था, ‘मेरी आंखों में टाइटेनिक के हर बिखरते पुर्जे की तस्वीर कैद होती चली जा रही थी और मेरे कान लोगों की चीख से सुन्न पड़ चुके थे.’

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Crew member

नाम  -      हेनरी रेलैंड डायर
उम्र   -     24 साल
पता   -     झांसी, भारत
पेशा    -    सीनियर असिस्टेंट इंजीनियर, टाइटेनिक शिप


21 दिसंबर 1887 को झांसी में थॉमस डायर और जेमिमा डायर के घर हेनरी ने जन्म लिया था. हेनरी की परवरिश भारतीय माहौल में ही की गई थी. भारत से ही अपनी 12वीं तक की पढ़ाई पूरी करने के बाद हेनरी ने आगे की पढ़ाई ब्रिटेन से की. चार साल की पढ़ाई के बाद हेनरी को 1908 में आयरलैंड की साउथैम्प्टन बेस्ड शिप कंपनी व्हाइट स्टार लाइन में नौकरी मिल गई. कंपनी ने हेनरी की लगन और मेहनत को देखते हुए उसे नए शिप टाइटेनिक में सीनियर असिस्टेंट इंजीनियर के पद पर भेजने का फैसला लिया. बस यही वो समय था जिसने हेनरी की भाग्य रेखाओं को एकाएक बदल दिया. 24 साल के हेनरी को इस बात की भनक भी नहीं थी कि दुनिया का सबसे बड़ा जहाज होने का दावा करने वाला यह टाइटेनिक शिप उसकी मौत का कारण होगा. 15 अप्रैल 1912 की रात जब टाइटैनक एक विशाल आइसबर्ग से टकराया उस वक्त हेनरी शिप पर मौजूद अपने दूसरे साथियों के साथ उस भव्य जहाज की यात्रा में हिस्सा होने का जश्न मना रहा था. यात्रियों को लाइफबोट में बैठाते-बैठाते हेनरी को होश ही नहीं रहा की कब आखिरी लाइफबोट भी रवाना हो गई. वो बाकी 1500 बदनसीब यात्रियों की तरह शिप में ही रह गया था. बचाव दल को हेनरी की बॉडी कभी नहीं मिली.

 

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Passenger no. 2


नाम   -     मिस एनी फंक
उम्र   -     38 साल
ठिकाना    -     जांजगीर, भारत
पेशा   -    भारत की पहली महिला मिशनरी


भले ही टाइटेनिक ने 1500 से भी ज्यादा यात्रियों को मौत के आगोश में ढकेल दिया हो, लेकिन शिप पर एक ऐसी महिला भी मौजूद थी जिसने दूसरे की जिंदगी बचाने के लिए अपनी जान की परवाह नहीं की. उस वक्त भारत में एक गल्र्स स्कूल चला रही एनी, मां को देखने के लिए न्यूयॉर्क के सफर पर रवाना हुई थीं. सेकेंड क्लास की पैसेंजर एनी ने 3 दिन पहले ही शिप पर 12 अप्रैल को अपना बर्थडे भी सेलिब्रेट किया था. अमेरिका के न्यूजपेपर ‘पैटरसन मार्निंग कॉल’ के 100 साल पुराने अंकों में इस बात को प्रकाशित किया गया था कि शिप पर मौजूद एनी फंक नाम की महिला ने शिप पर बची आखरी लाइफबोट पर बैठने से सिर्फ इस लिए इंकार कर दिया था क्योंकि उस बोट में एक बच्चा था जिसकी मां उसके साथ जाने के लिए तड़प रही थी. यह देख कर एनी लाइफ बोट से उठ गई और उस महिला को अपनी सीट दे दी. वैसे शिप के डूबने के बाद रेस्क्यू टीम को एनी की डेडबॉडी नहीं मिली लेकिन भारत में लंबे समय तक उनकी याद में जांजगीर में एनी फंक मेमोरियल स्कूल लोगों को वीरता और त्याग का पाठ पढ़ाता रहा.


Passenger no. 3


नाम   -   मिसेज मैरी डनबर हेवलेट
हादसे के वक्त उम्र  -  56 साल
ठिकाना   -   लखनऊ
पेशा    -  हाउस वाइफ


मिसेज मैरी डनबर हेवलेट ने न्यूयॉर्क जाने के लिए जो सफर लखनऊ से शुरू किया था वो टाइटेनिक के डूबने के साथ अधूरा ही रह गया था. वह भारत में अपने बड़े बेटे के साथ रह रही थी. छोटे बेटे से मिलने की ख्वाहिश में मैरी ने न्यूयॉर्क का सफर टाइटेनिक से तय करने फैसला लिया. सेकेंड क्लास की पैसेंजर मैरी उस वक्त अपने कमरे में सोने की कोशिश कर रही थी, जब जोर की आवाज ने उन्हेंं चौंका दिया. कमरे से बाहर आई तो माहौल पहले जैसा नहीं था. शिप के इंजन की तेज आवाज अचानक शांत हो गई थी. शिप के डेक पर पहुंचते-पहुंचते मैरी को जहाज पर आई आफत के संकेत मिलना शुरू हो गए थे. एक पुराने अखबार ‘इवैन्सटन डेली न्यूज’ से मिले मैरी के इंटरव्यू में उन्होंने बताया था, शिप एक तरफ झुक चुका था. सभी अपनी लाइफ जैकेट बांधने में व्यस्त थे. मेरे पास लाइफ जैकेट नहीं थी. एक आदमी के पास दो लाइफ जैकेट देख कर मैंने उससे एक मांगी और पहन ली. लाइफबोट नं. 13 में मैरी को जगह मिल गई. ‘इवैन्सटन डेली न्यूज’ को मैरी ने बताया था, मेरी लाइफबोट के बाद एक आखिरी लाइफबोट ही बाकी थी, जिसमें सब यात्रियों का आना नामुमकिन था. मुझे उन लोगों के चहरे पर मौत का डर साफ दिख रहा था. न्यूयॉर्क पहुंच कर मैरी ने कुछ वक्त छोटे बेटे के साथ बिताया और फिर वापस भारत लौट आई. आखिरी जानकारी के मुताबिक मैरी ने 9 मई 1917 को हमेशा के लिए अपनी आंखे मूंद लीं.

titanic: indian connection

George Behe: Author of Board RMS Titanic

It is easy to forget that the Titanic‘s passengers and crewmen were just ordinary people who were living their lives to the best of their ability, and it is a little-known fact that some of those passengers had close connections with India. In 1912 India was considered to be a remote area far-removed from the Western world, and its customs were unfamiliar to most Americans and Britishers who had no exposure to that area of the world. However, it was for that very reason that several of the Titanic‘s future passengers felt called upon to travel to the beautiful country called India to live and work among its citizens. Annie Funk, for instance, wished to devote her life to caring for others and teaching them about the Christian religion, and her calling drew her to India to work with the country‘s most underprivileged people. Ruth Becker‘s father was another Christian missionary who traveled to India for that same purpose, but he had no idea that his decision to live and work in that country would expose his little boy to unfamiliar diseases and that sending his wife and children back to the United States would nearly cost him his entire family. Great events often depend upon small decisions, and the people who were forced to leave India for various reasons in April of 1912 did not know that their simple decision to sail on the maiden voyage of the largest and safest ship in the world would be a turning point in their lives - and, in some cases, would bring their lives to a sudden and tragic end. Anuradha Gupta has done a marvelous job of telling - for the very first time - the story of India‘s connection with the Titanic disaster.

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