1893 में मद्रास के गवर्नर को एक अर्ज़ी दी गई कि 'नाच-गाने का गंदा धंधा' बंद करवाया जाए.

1909 में मैसूर महाराजा ने देवदासी परंपरा को अवैध घोषित कर दिया. पंजाब की प्योरिटी एसोसिएशन और मुंबई की सोशल सर्विस लीग जैसी संस्थाओं ने भी अपनी आपत्ति दर्ज कराई.

कलकत्ता की मशहूर तवायफ़ गौहर जान उस समय देश की चोटी की गायिका थीं और बदलती हवा को भाँप रही थीं.

उन्होंने शास्त्रीय-उपशास्त्रीय संगीत को कोठे से निकाल कर ग्रामाफोन रिकॉर्ड उद्योग से ला जोड़ा. उधर दूसरी गायिकाओं ने भी काशी में 1921 में 'तवायफ़ संघ' बनाकर असहयोग आंदोलन से अपनी जमात को जोड़ लिया.

इस तरह 1920 के आसपास ये हुनरमंद लेकिन उपेक्षित महिलाएं गाँधी के आदर्शवाद के प्रति गहरा रुझान दिखाने लगी थीं, हालाँकि संकीर्ण तत्कालीन विलायती सोच वाले लोग उन पर पतिता का ठप्पा लगा कर कोठे बंद कराने पर आमादा थे, कई अंग्रेज़ी पढ़े-लिखे रईस उन्हें देखकर मुँह बिचकाते थे.

गाँधी जी सचमुच दीनबंधु थे और उनकी दृष्टि में 'गावनहारियाँ' भी भारत की जनता का ही एक आत्मीय अंग थीं. स्वराज आंदोलन की जनसभाओं में संगीत के आकर्षण का महत्व भी वे समझते थे.

जब बापू ने मुजरा कराया और तवायफ़ का दिल तोड़ा

इसलिए 1920 में जब गाँधी जी कलकत्ता में स्वराज फंड के लिए चंदा जुटा रहे थे, उन्होंने गौहर जान को बुलवा कर उनसे भी अपने हुनर की मदद से आंदोलन के लिये चंदा जुटाने की अपील की.

गौहर चकित और खुश दोनों हुईं हालाँकि वे दुनिया देख चुकी थीं और जानती थीं कि समाज में पेशेवर गायिकाओं को लेकर किस तरह की सोच व्याप्त है.

उनके एक विश्वस्त त्रिलोकीनाथ अग्रवाल ने बाद में 1988 में 'धर्मयुग' में इसका ज़िक्र करते हुए कहा कि गौहर जान ने बापू की बात सर माथे पर ली, लेकिन बाद में उन्होंने कुछ ऐसा भी कहा कि बापू की उनसे मदद की अपील, हज्जाम से हकीम का काम कराने जैसा था.

बहरहाल, गौहर ने बापू से पहले आश्वासन लिया कि वे एक खास मुजरा करेंगी जिसकी पूरी कमाई वे स्वराज़ फंड को दान कर देंगी, पर एक शर्त उनकी भी थी, कि बापू ख़ुद उनको सुनने महफिल में तशरीफ़ लाएं.

जब बापू ने मुजरा कराया और तवायफ़ का दिल तोड़ा

कहते हैं कि बापू राज़ी भी हो गए थे, पर ऐन दिन कोई बड़ा राजनैतिक काम सामने आ गया सो वे वादे के मुताबिक नहीं जा सके. गौहर की निगाहें काफी देर तक बापू की राह तकती रहीं, पर वे नहीं आए.

खैर, भरे हॉल में उनका मुजरा पूरा हुआ और उसकी कमाई कुल 24 हज़ार रुपए हुई, जो उस समय बहुत बड़ी रकम थी. अगले रोज़ बापू ने मौलाना शौकत अली को गौहर जान के घर चंदा लेने को भेजा.

रूठी और मुँहफट गौहर ने कुल कमाई का आधा 12 हज़ार रुपये ही उनको दिया और रुपया थमाते हुए मौलाना से तंज़ भरे अंदाज़ में वे यह कहना न चूकीं, कि आपके बापू जी ईमान और एहतराम की बातें तो काफ़ी किया करते हैं पर एक अदना तवायफ़़ को किया वादा नहीं निभा सके.

जब बापू ने मुजरा कराया और तवायफ़ का दिल तोड़ा

वादे के मुताबिक वे खुद नहीं आए लिहाज़ा सुराजी फंड आधी रकम का ही हकदार बनता है.

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