बुधवार को एक बार फिर आतंकियों ने देश की मायानगरी को लहुलुहान कर दिया. 21 लोगों की जान लेकर और सैकड़ों को घायल कर आतंकियों ने न सिर्फ अपने नापाक मंसूबों को बताया है बल्कि हमारे सिस्टम की कमजोरी को भी साबित किया है. पिछले 18 वर्षों में सिर्फ मुंबई में एक दर्जन से अधिक आतंकी घटनाएं हुईं. सात सौ से अधिक लोगों की असमय ही मौत हो गई. हजारों लोगों के जख्म आज भी हरे हैं, लेकिन हम कुछ न कर सके. अब सवाल यह है कि आखिर हम इन हमलों से कब सीख लेंगे....

‘खैर मनाइए कि 31 महीनों तक शांत रही मुंबई’

-मुंबई पुलिस के retired police officers  ने उठाए पुलिस और सरकार पर सवाल

-कहां है Force One और क्यों नहीं अब तक पुलिस को मिले नए हथियार

‘पिछले 31 महीनों से मुंबई शांत थी, न कोई आतंकी हमला था और न हीं किसी धमाके की आवाज सुनाई दी थी. यह सिर्फ एक चमत्कार था, लेकिन चमत्कार सिर्फ एक बार होता है, हर बार नहीं,’ यह कहना है मुंबई पुलिस के एक रिटायर्ड ऑफिसर का जिसने 13 जुलाई 2011 के बाद राहत की सांस तो नहीं ली, लेकिन ईश्वर का शुक्रिया अदा किया. शुक्रिया इस बात का मुंबई पर एक बड़ी आफत आने से रह गई. वहीं इस ऑफिसर ने अब पुलिस पर सवाल खड़े किए हैं कि उसने क्यों इस शांति में पुलिस भी शांत रही. इस ऑफिसर के मुताबिक पुलिस के भरोसे जनता को चैन से सोने का पूरा हक है लेकिन पुलिस को हर पल चौकन्ना रहना होगा.

वही पुराना रवैया

मुंबई पुलिस के यह सीनियर ऑफिसर एक साल पहले पुलिस सर्विस से रिटायर हुए हैं. इस ऑफिसर के मुताबिक पुलिस अभी भी बरसों पुराने रवैये के साथ काम कर रही है. पुलिस के काम करने का अंदाज अभी तक नहीं बदला है. 1993 ब्लास्ट्स के बाद जो रूख पुलिस ने अख्तियार किया वो आज भी उस पर कायम है. कई बार पुलिस उन एलट्र्स को नजरअंदाज कर देती है जो शायद कई अहम सुराग दे सकते हैं. इस ऑफिसर ने बताया कि उस समय कई ऐसे अहम सुराग थे जो खत्म हो चुके थे. मुंबईकर्स को खैर मनानी चाहिए कि वो पिछले 31 महीनों से सही सलामत हैं.

कहां है गुमशुदा आतंकी

मुंबई में बुधवार को जो ब्लास्ट्स हुए उनमें इंडियन मुजाहीद्दीन के भटकल ब्रदर्स का नाम सामने आ रहा हैं. इस सीनियर अफसर ने मुंबई पुलिस से सवाल किया कि आखिरी उन गुमशुदा आतंकवादियों को तलाशने का काम कहां तक पहुंचा जिनके बारे में हर बार सिर्फ एक डिसकश्न ही होता है. ऑफिसर के मुताबिक इंडियन इंटेलीजेंस ने एक बार बताया था कि इनमें से कुछ आतंकियों को गिरफ्तार कर लिया गया है. वहीं कुछ अभी तक फरार हैं. हो सकता है कि यही आतंकी इस तरह के हमलों को अंजाम दे रहे हों. उन्होंने दावा किया कि कुछ तो लश्कर-ए-तैयबा जैसी खतरनाक ऑर्गनाइजेशन के लिए मैटेरियल सप्लाई करने तक का काम कर रहे हैं. पुलिस के पास वो क्लू भी मौजूद हैं जिनके जरिए वो इन फरार आतंकियों को पकड़ सकती है, लेकिन पता नहीं क्यों वो इन्हें नजरअंदाज कर दे रही है.

खतरनाक होती sleeper cells

मुंबई में जब 11 जुलाई 2006 को लोकल ट्रेन में सीरियल ब्लास्ट्स हुए तो पुलिस ने महाराष्ट्र के हर शहर और कस्बों में मौजूद स्लीपर सेल्स के लिए सर्च ऑपरेशंस शुरू किया. इस अफसर ने सवाल किया है कि आखिर उस ऑपरेशन में तेजी लाने के बजाय उसे क्यों रोक दिया गया? देश के भीतर इन हमलों को अंजाम देने के लिए यह स्लीपर सेल्स अब बड़ा रोल अदा कर रही हैं. वहीं अब इनमें अल कायदा जैसी बड़ी और खतरनाक ऑर्गनाइजेशन के शामिल होने की भी पूरी पॉसिबिलटीज हैं.

System में बदलाव जरूरी

मुंबई पुलिस को कभी स्कॉटलैंड यार्ड से कंपेयर किया जाता था. इस सीनियर अफसर के मुताबिक कब तक पुलिस इस गलतफहमी में जिएगी कि वो देश की बेहतर पुलिस है. पुलिस को उसी पुराने स्टाइल में ट्रेनिंग दी जा रही है जो आज से 20 साल पहले था. इसके अलावा न तो उसके पास मॉडर्न हथियार हैं और न ही आतंकवादियों से निपटने की बेहतर स्ट्रैटेजी. उन्होंने मुंबई हमलों का एग्जाम्पल देते हुए कहा कि अगर उस समय एनएसजी ने मोर्चा नहीं संभाला होता तो शायद सिचुएशन बिगड़ सकती थी.

बॉक्स में Force One कहां हैं?

मुंबई हमलों की पहली बरसी पर महाराष्ट्र सरकार कांउटर टेररिज्म पॉलिसी के तहत फोर्स वन को अस्तित्व में लाई. इस कमांडो फोर्स का काम किसी भी आतंकी हमले के दौरान मुंबई की सुरक्षा करना है. इस अफसर के मुताबिक जैसी ट्रेनिंग फोर्स वन के जवानों को दी जाती है वो इसे एक हाई स्टैंडर्ड फोर्स बनाने के बजाय कमजोर कर रही है. अफसर के मुताबिक इस ट्रेनिंग के बाद तो फोर्स वन और मुंबई पुलिस में कोई अंतर नहीं रह जाता है. इसके अलावा सिर्फ मुंबई में ही क्यों, पूरे देश में इस तरह के कांउटर टेररिज्म को लेकर कोई फोर्स क्यों नहीं बनाई जाती है.

इस पुलिस को कुछ नहीं आता

Evidence protect करने में नाकाम रही पुलिस

तो क्या मुंबई पुलिस कभी नहीं सीखेगी? मुंबई में हुए सीरियल ब्लास्ट्स के बाद हर किसी की जुबान पर यही सवाल था. दरअसल शुरुआती जांच और एनालिसिस के मुताबिक पुलिस ने यहां भी वही गलतियां दुहराईं जो उन्होंने 2010 में हुए पुणे बेकरी ब्लास्ट के समय की थीं. ऑब्जर्वर्स के मुताबिक झावेरी बाजार में ब्लास्ट होने के 45 मिनट बाद पहुंची पुलिस ने उस स्पॉट की सफाई करवा डाली. उसकी इस गलती के चलते फोरेंसिक डिपार्टमेंट को क्लू जुटाने में मुश्किल हो रही है.

सब धो डाला

फायर ब्रिगेड और पुलिस ऑफिशियल्स ने ब्लास्ट के बाद पहले ही काफी देर कर दी थी. इससे पहले ही वहां पर लोकल लोगों ने घायलों की मदद पहुंचानी शुरू कर दी थी. करीब 45 मिनट बाद जब पुलिस पहुंची तो सबसे पहले स्पॉट के चारों तरफ घेरेबंदी की. क्राइम ब्रांच के  एक सीनियर ऑफिशियल के मुताबिक पहले तो बरसात ने काफी हद तक स्पॉट को धो दिया. इसके बाद बची-खुची कसर फायरब्रिगेड डिपार्टमेंट ने पूरी कर डाली. इसकी वजह से हम लोग ब्लास्ट में यूज किया गया मैटीरियल और दूसरे क्लू कलेक्ट नहीं कर सके. उनके मुताबिक ऐसे मामलों में साइट की सफाई तब की जाती है जब फोरेंसिक टीम वहां पहुंचकर अपना काम पूरा कर ले. मगर यहां पर फोरेंसिक टीम के साइट पर पहुंचने के पहले ही फायरब्रिगेड ने साइट की धुलाई करवा डाली. इसके बाद भी पुलिस की लापरवाहियों का सिलसिला नहीं रुका. पुलिस ने झावेरी बाजार और दादर में ब्लास्ट के दौरान मौजूद कारों को वहां से हटवा दिया. ऑफिसर्स के मुताबिक भविष्य में जांच के दौरान यह चीजें काफी फर्क डाल सकती हैं.

कुछ नहीं सीखा

एक फोरेंसिक एक्सपर्ट के मुताबिक ऐसी ही गलती पुणे में भी पुलिस ने की थी. 13 फरवरी 2010 को हुए जर्मन बेकरी ब्लास्ट को शुरुआत में सिलिंडर ब्लास्ट माना गया था. बाद में जब पुलिस ने इलाके की घेरेबंदी कर ली तो पता चला कि यह एक टेरर अटैक था. मगर तब तक बेकरी का फ्लोर पानी से धुला जा चुका था और उसके साथ ही सभी जरूरी सुबूत भी धुल गए थे.

बॉक्स बॉक्स The right way  

नाम न छापने की शर्त पर एक पुलिस अफसर ने मिड डे को ब्लास्ट साइट्स से इविडेंस कलेक्ट करने का सही तरीका बताया. इसके मुताबिक... सबसे पहले पुलिस को ब्लास्ट साइट को सिक्योर करना चाहिए और इसे प्लास्टिक से ढंक देना चाहिए ताकि अगर बारिश वगैरह हो तो इविडेंस सेफ रहें.  इसके बाद उन्हें फोरेंसिक टीम का इंतजार करना चाहिए कि वे आकर सैंपल कलेक्ट करें.  जब तक सैंपल कलेक्ट ना कर लिए जाएं ब्लास्ट साइट की सभी चीजों, यहां तक कि व्हीकल्स को भी वहां से नहीं हटाया जाना चाहिए.  

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