ग्यारह जुलाई 2006 के दिन मुंबई की सात लोकल ट्रेनों में बम धमाके हुए थे। इन धमाकों में 187 लोग मारे गए थे और सात सौ से अधिक घायल हुए थे। इन घायलों में कई आज तक सामान्य जीवन नहीं बिता पा रहे हैं। उन में से एक हैं 25 साल के अमित सिंह जिनका आज तक जसलोक अस्पताल में इलाज चल रहा है।

अमित को मैंने एक धमाकों के एक साल बाद इसी अस्पताल में देखा था। उनके सर में इतना गहरा घाव था कि यकीन नहीं आ रहा था कि वो जिंदा कैसे हैं। लेकिन वो कोमा की हालत में थे। और पांच साल बाद आज भी उसी हाल में हैं।

मैं ने उनके पिता दिनेश सिंह को फोन किया और उनके बेटे को देखने की अनुमति मांगी तो उन्हों ने कहा, "क्षमा कीजिये ज़ुबैर जी, मैं मीडिया, नेता और समाज से मायूस हो गया हूँ। आप सभी लोग केवल धमाकों के वर्षगांठ के समय हमें याद करते हैं। मेरा बेटा अब भी उसी हाल में है जैसा पहले दिन था। लेकिन कोई मदद को नहीं आता। केवल रेलवे अस्पताल के पैसे दे रही है। किसी और ने कोई मुआवाज़ा नहीं दिया। तो अब हम मायूस हो कर बैठ गए हैं। हमें किसी से नहीं मिलना."

दिनेश जी की मायूसी को हमलों में घायल और मरने वालों के दूसरे रिश्तेदार भी महसूस करते हैं। उनकी मायूसी इस बात से भी है कि इस केस का मुक़दमा अब भी मुंबई की एक निचली अदालत में चल रहा है। उनका एक बड़ा प्रतिनिधिमंडल सोमवार की शाम को महाराष्ट्र के गवर्नर से मिलकर इसी मायूसी का इज़हार करने जा रहा है।

इसका नेतृत्व कर रहे हैं भारतीय जनता पार्टी के भूतपूर्व सांसद किरीट सोमैया जो उनके हक के लिए लड़ रहे हैं। सोमैया के अनुसार मरने और घायल होने वालों के रिश्तेदारों को इंसाफ़ उसी समय मिलेगा जब अभियुक्तों को सज़ा मिलेगी। उनका और मरनेवालों के रिश्तेदारों का कहना था की कसाब का मुक़दमा दो साल में ख़त्म हो गया क्योंकि उन हमलों में मरने वालों में कई विदेशी थे। उनका कहना था, "यह सरकार की दोहरी पॉलिसी है."

ज़बरदस्त विस्फोट

ग्यारह जुलाई 2006 की शाम को मुंबई नगरी बारिश में नहाई थी। लोग दिन भर काम करके अपने घरों को लौट रहे थे। और दिनों की तरह उस दिन भी लोकल ट्रेनें लोगों से खचाखच भरी थीं जब सात ट्रेनों में बम विस्फोट हुए।

मैं बांद्रा के नज़दीक था और मिनटों में एक ट्रेन के पास पहुंचा जिसका एक डब्बा धमाके से बुरी तरह से टूट-फूट चूका था। डब्बे के अन्दर झुलसे शव पड़े थे और ज़ख्मियों को आस पास के लोग बाहर निकाल रहे थे। शहर में अफरातफरी मच गई। हर तरफ ट्रैफिक जाम हो गया। बारिश ने राहत के काम में रुकावट दाल दी। लोकल ट्रेनें, जो कभी बंद नहीं होतीं, पूरी तरह से ठप्प हो गईं।

शहर में पहले भी चरमपंथी हमले हुए थे। लेकिन इस तरह के धमाके किसी भी शहर को हिला सकते है। अगले दिन सुबह लोगों ने और अधिकारियों ने साहस से काम लिया और ट्रेनों का आवागमन फिर से शुरू कर दिया गया। मैं हैरान था कि शहर इतनी जल्दी सामान्य हो गया।

आतंक विरोधी दस्ते ने कुछ हफ़्ते बाद ही धमाकों के लिए ज़िम्मेदार लोगों को गिरफ़्तार करने का दावा किया। दस्ते के चीफ केपी रघुवंशी ने एलान किया कि उन्होंने तेरह भारतीय नागरिकों को गिरफ्तार कर लिया है। उनके अनुसार ये अभियुक्त इंडियन मुजाहिदीन से है। बाद में उन्होंने कहा 14 और लोगों की तलाश है जिनका संबंध पाकिस्तान से है।

तेरह अभियुक्तों के खिलाफ़ मुक़दमा शुरू हुआ लेकिन रघुवंशी के अनुसार बाक़ी 14 लोग पाकिस्तान फरार होने में सफल हो गए। बीबीसी के साथ एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने दावा किया था कि इन 13 अभयुक्तों के खिलाफ मुक़दमा एक साल में ख़त्म हो जाएगा। पांच साल बाद आज भी मुक़दमा निचली अदालत में चल रहा है।

इन अभियुक्तों ने अदलात में अपना इकबालिया बयान यह कह कर वापस ले लिया है कि पुलिस ने उनसे ज़बरदस्ती बयान दिलवाया था। बाद में उनमें से सात के वकील शाहिद आज़मी ने सुप्रीम कोर्ट में उस क़ानून को चुनौती दे दी जिस के तहत उन पर मुकदमा चलाया गया।

इन लोगों के ख़िलाफ़ महाराष्ट्र में संगठित अपराध को ख़त्म करने के कानून के तहत मुक़दमा दायर हुआ था। कुछ समय बाद शाहिद आज़मी की उनके दफ्तर में ही अज्ञात लोगों ने हत्या कर दी और मुक़दमे में और भी देर हुई। पिछले साल के मध्य में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि इस जिस क़ानून के तहत मुक़दमा दायर किया गया वो सही है और मुक़दमा आज भी जारी है।

इन धमाकों में मरने वालों के एक रिश्तेदार ने पिछले हफ्ते आयोजित एक प्रेस वार्ता में कहा कि वो सरकार से निराश हो चुके हैं। अब उन्हें उम्मीद नहीं कि उन्हें इंसाफ़ मिलेगा। उनका कहना था कि निचली अदालत से सुप्रीम कोर्ट तक मामला आया तो इस में 10 साल और निकल सकते हैं।

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