चुनाव आयोग के अनुसार विडोडो ने 53.15 फ़ीसदी वोट हासिल करके जीत दर्ज़ की जबकि उनके प्रतिद्वंदी पूर्व जनरल प्राबोवो सुबियान्त को 46.85 फ़ीसदी मत मिले.

लकड़ी विक्रेता के बेटे विडोडो का जन्म 1961 में सोलो शहर में हुआ.

वह अपने परिवार के साथ नदी किनारे बने घर में रहते थे. बाद में सरकार ने उनके परिवार को यहां से बेदख़ल कर दिया था.

साफ़ छवि

कहा जाता है कि विडोडो को ग्रामीण और शहरी इलाक़ों के युवाओं का समर्थन हासिल है, जो उनको एक साफ़ छवि वाले राजनेता के रूप में देखते हैं.

लकड़ी बेचने वाले का बेटा बना राष्ट्रपति

राष्ट्रपति चुनाव में विडोडो प्रतिद्वंदी प्रत्याशी प्राबोबो सुबियान्तो से आगे रहे.

जोकोवी के नाम से लोकप्रिय विडोडो ने अपना राजनीतिक करियर पीडीआई-पी पार्टी के साथ शुरू किया. वह साल 2005 में सोलो शहर के मेयर चुने गए.

सोलो से 2010 में दोबारा 90 फ़ीसदी से अधिक वोटों से जीत हासिल करने के बाद विडोडो ने स्थानीय बाज़ारों का फिर से निर्माण करवाया और नदी किनारे रहने वाले ग़रीब लोगों को फिर से उचित आवास में फिर से बसाया.

इसके बाद साल 2012 में विडोडो ने जकार्ता के गर्वनर का चुनाव लड़ा. इसमें विडोडो को ज़बर्दस्त जीत मिली थी.

ये जीत अहम क्यों?

लकड़ी बेचने वाले का बेटा बना राष्ट्रपति

जोको विडोडो को तकनीक का समर्थक माना जाता है, जो 'ई-गर्वनेंस' से भ्रष्टाचार में कमी लाने का वादा करते हैं. उन्होंने राष्ट्रपति चुनावों के दौरान होने वाली बहस में कहा , "मेरे लिए लोकतंत्र का मतलब लोगों को सुनना और वह काम करना है जो लोग चाहते हैं."

उन्होंने आगे कहा, "इसीलिए मैं गाँवों, स्थानीय बाज़ारों में जाता हूं. नदी किनारे रहने वाले लोगों, किसानों और मछुआरों से मिलता हूं क्योंकि मैं जानना चाहता हूं कि लोग क्या चाहते हैं?"

जोको विडोडो

लकड़ी बेचने वाले का बेटा बना राष्ट्रपति

एक इंडोनेशियाई कारोबारी विडोडो की जीत पर कहते हैं, "उन्होंने हमारे लिए संभव बनाया है कि हम अपने बच्चों से कह सकें, जोकोवी को देखो. वह फर्नीचर बेचता थे और ग़रीबी में पले-बढ़े, अब वह हमारे राष्ट्रपति हैं. अब कोई भी देश का राष्ट्रपति बन सकता है."

इंडोनेशिया में अब तक केवल राजनीतिक घरानों और सेना के उच्च तबके के लोग राष्ट्रपति चुने गए हैं. यह पहला मौका है जब व्यवस्था से बाहर का व्यक्ति इतने ऊंचे पद तक पहुंचा है.

लेकिन विडोडो के आलोचक कहते हैं कि उन्हें राष्ट्रीय राजनीति और अंतरराष्ट्रीय संबंधों का कोई अनुभव नहीं है.

विश्लेषक इस बात की ओर भी इशारा करते हैं कि उनके गठबंधन के पास संसद में सिर्फ 37 प्रतिशत सीटें हैं ऐसे में अपनी नीतियों को लागू करने में उन्हें दिक्कतें आ सकती हैं.

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