I am still a learner

Famous neuro phisician Dr KK Sinha shares his desires with i next

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Ranchi : उनसे ट्रीटमेंट कराने के लिए झारखंड ही नहीं, यूपी, बिहार के पेशेंट्स भी रेस लगाए रहते हैं। भीड़ इतनी कि जिन्हें उनका अप्वॉइंटमेंट मिल जाए, वह खुद को खुशनसीब समझता है। झारखंड के मेडिकल प्रोफेशन में सूरज की तरह चमकनेवाले वह डॉक्टर कोई और नहीं, बल्कि डॉ कृष्णकांत सिन्हा हैं, जिन्हें 'केके सिन्हाÓ के नाम से बच्चा-बच्चा जानता है। वह पेशे से तो न्यूरो फिजिशियन हैं, पर उनके पशेंट्स उन्हें हर मर्ज की दवा मानते हैं। फेम ऐसी कि बूटी मोड़ को लोग उनके नाम से 'डॉ केके सिन्हा मोड़Ó भी कहते हैं। नए साल की शुरुआत में डॉ केके सिन्हा नई उम्मीदों के साथ नया सीखने और नया करने की चाहत रखते हैं। उम्र के 83वें पड़ाव पर खड़े डॉ केके सिन्हा ने आई नेक्स्ट से की खास बातचीत। आइए जानते हैं उनकी जिंदगी के अनछुए पहलुओं के बारे में.
इसलिए छोड़ा RIMS
बडग़ाईं स्थित अपने बंगले 'मानसरोवरÓ में सुबह की धूप में पग ब्रीड के अपने कुत्ते चिविली को सहलाते हुए डॉ केके सिन्हा से जब यह पूछा गया कि आपने रिम्स क्यों छोड़ दिया, तो उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा- मैंने पांच मार्च 1976 को आरएमसीएच (अब रिम्स) के प्रिंसिपल को अपना रेजिग्नेशन लेटर सौंपा था। वजह यह थी कि उस दौरान मुझे सैलेरी के रूप में 1600 रुपए मिलते थे और उस समय मेरी फी 20 रुपए थी। उस समय बिहार के चीफ मिनिस्टर बिंदेश्वरी दुबे थे और उन्होंने दरभंगा, पटना और रांची में डॉक्टर्स की प्राइवेट प्रैक्टिस पर रोक लगा दी थी। पर, जितनी मुझे सैलेरी मिलती थी, उतने में मेरे घर का और स्टाफ का गुजारा चलना मुश्किल था। इसलिए, मैंने मजबूरी में रिजाइन कर दिया। उसके बाद मैं प्राइवेट प्रैक्टिस करता रहा। यह सिलसिला आज भी चल रहा है.
Patients का faith ही मेरी पूंजी 
पेशेंट्स के मन में अपने प्रति विश्वास का जिक्र करते हुए डॉ केके सिन्हा कहने लगे- पेशेंट्स का मेरे प्रति विश्वास ही मेरी सबसे बड़ी पूंजी है। अभी मेरी फी 1500 रुपए है, तब भी इतनी भीड़ लगती है कि 12 घंटे प्रैक्टिस करता हूं। अगर फी ढाई हजार रुपए भी कर दूं, तब भी पेशेंट्स आएंगे, क्योंकि मैं बेकार के टेस्ट नहीं लिखता। दवाएं भी दो या ज्यादा से ज्यादा तीन लिखता हूं.
कभी नहीं चलाई bike
डॉ केके सिन्हा ने बताया कि उनके घर में भले ही दो-तीन बाइक्स रखी हों, पर उन्होंने जिंदगी में कभी भी बाइक की सवारी नहीं की। उनकी पहली सवारी एंबेसडर कार की थी। वह कहते हैं कि उन दिनों एंबेसडर कार के लिए महीनों तक लाइन लगानी पड़ती थी, तब कार मिलती थी। कार खरीदने का वाकया बताते हुए डॉक्टर सिन्हा ने कहा- 1962 में जब मैंने पटना के एक डीलर के यहां से कार खरीदी, तो इसके लिए 14,000 रुपए मैंने इंग्लैंड से पहले ही भेज दिए थे। उन दिनों पटना में मेरी पोस्टिंग हुई थी.
सीखना अब भी बाकी है
डॉ केके सिन्हा कहते हैं- मैं उम्र के 83वें पड़ाव पर खड़ा हूं, कब मर जाऊं पता नहीं, क्योंकि मरना तो सबको है। पर, अभी भी मेरी चाहत है कि कुछ नया सीखूं और नया करने की कोशिश करूं क्योंकि, नया सीखना और पढऩा ही अब तक अचीव करने के लिए बाकी रह गया है। मैं आज भी 12 घंटे पेशेंट्स को देखता हूं और पेशेंट्स को देखने से पहले सुबह अपने सŽजेक्ट न्यूरोलॉजी से जुड़ी किताब पढ़ता हूं। पढऩे का अलावा मुझे क्लासिकल म्यूजिक से भी जबर्दस्त लगाव है.
Nature से बहुत लगाव है
डॉ केके सिन्हा कहते हैं- नेचर से मुझे बहुत लगाव है। नेचर से इस लगाव की वजह यह रही कि मेरा गांव मनेर सोन नदी के किनारे है। वहां मैं रोज सोन नदी में डुबकियां लगाकर नहाया करता था। इसलिए, जब रांची आया, तो अपने घर में फूलों की बगिया बनाई और पेड़-पौधे लगाए। मेरे बगीचे में स्पेशली एक रोज गार्डेन है, जिसमें 82 किस्म के गुलाब लगे हैं। मैं वेजिटेरियन हूं और दाल-भात तरकारी मेरा पसंदीदा खाना है। ऐसा इस वजह से भी है, क्योंकि मैंने बीएचयू से 1946-1948 के दौरान आईएसएसी पास की थी और उस समय महामना मदन मोहन मालवीय जी का बीएचयू में बहुत प्रभाव था। उस समय वहां नॉन वेज खाना प्रतिबंधित था.
Teachers का standard घटता गया 
रिम्स के बारे में डॉ केके सिन्हा बताते हैं कि जब रिम्स आरएमसीएच था, उस समय यहां के स्टूडेंट्स का स्टैंडर्ड नीचे था और टीचर्स का स्टैंडर्ड ऊपर। उस समय यहां के सारे प्रोफेसर्स इंग्लैंड से एफआरसीएस और ऐसी ही डिग्रीज लेकर आए फेमस डॉक्टर्स होते थे। वे वहां से डिग्र्रीज लेने के साथ यह भी सीखकर आए होते थे कि स्टूडेंट्स को पढ़ाना कैसे है। उनमें टैलेंट तो होता ही था, सिस्टमेटिक वे में पढ़ाने का बेहतरीन तरीका भी वे जानते थे। पर, समय के बदलाव के साथ धीरे-धीरे हालात भी बदल गए। उसके बाद स्टूडेंट्स का स्टैंडर्ड बढ़ता चला गया और टीचर्स का स्टैंडर्ड घटता चला गया और उसका असर रिम्स में दिख रहा है.
A ‘God’ who doesn’t believe in God
डॉ केके सिन्हा को भगवान में विश्वास नहीं है। वह कहते हैं- कुछ पेशेंट्स कहते हैं कि मैं भगवान हूं या भगवान का अवतार हूं या ईश्वर का ध्यान करता रहता हूं, लेकिन यह सच नहीं है। बचपन में मुझे भगवान पर भरोसा था, पर अब मैं भगवान पर भरोसा नहीं करता। मैं सनातन हिंदू परिवार से हूं और मेरे पिता कृष्णभक्त थे। आठ साल की उम्र में ही मेरा जनेऊ संस्कार हो गया था। घर में हर दिन गायत्री और विष्णु स्तोत्र का पाठ होता था। पर, बाद में भगवान पर से मेरा भरोसा उठ गया। अब मैं मानता हूं कि भगवान एक काल्पनिक चीज है। भगवान के कॉन्सेप्ट का इवॉल्यूशन फियर, ग्रीड और मिस्ट्री ने कराया है.
Profile
-पूरा नाम : डॉ कृष्णकांत सिन्हा
-जिस नाम से फेमस हैं : डॉ केके सिन्हा
-एजूकेशन : एमबीबीएस, दरभंगा मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल से 1948 में, एमडी। एफआरसीपी और एमआरसीपी इंग्लैंड से
-कॅरियर : आरएमसीएच 1962 में ज्वॉइन किया और पांच मार्च 1976 को रिजाइन कर दे दिया, रिम्स गवर्निंग बॉडी के एक्स मेंबर रहे, अब रांची के बूटी रोड स्थित अपने बंगले 'मानसरोवरÓ में ही प्राइवेट प्रैक्टिस कर रहे हैं.
-फेवरेट फूड : वेजिटेरियन, दाल-भात और तरकारी
-म्यूजिक लव : क्लासिकल म्यूजिक से जबर्दस्त लगाव
-नेचर से बहुत लगाव है
-ख्वाहिश: कुछ नया सीखना, कुछ नया करना

 

इसलिए छोड़ा RIMS

बडग़ाईं स्थित अपने बंगले 'मानसरोवरÓ में सुबह की धूप में पग ब्रीड के अपने कुत्ते चिविली को सहलाते हुए डॉ केके सिन्हा से जब यह पूछा गया कि आपने रिम्स क्यों छोड़ दिया, तो उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा- मैंने पांच मार्च 1976 को आरएमसीएच (अब रिम्स) के प्रिंसिपल को अपना रेजिग्नेशन लेटर सौंपा था। वजह यह थी कि उस दौरान मुझे सैलेरी के रूप में 1600 रुपए मिलते थे और उस समय मेरी फी 20 रुपए थी। उस समय बिहार के चीफ मिनिस्टर बिंदेश्वरी दुबे थे और उन्होंने दरभंगा, पटना और रांची में डॉक्टर्स की प्राइवेट प्रैक्टिस पर रोक लगा दी थी। पर, जितनी मुझे सैलेरी मिलती थी, उतने में मेरे घर का और स्टाफ का गुजारा चलना मुश्किल था। इसलिए, मैंने मजबूरी में रिजाइन कर दिया। उसके बाद मैं प्राइवेट प्रैक्टिस करता रहा। यह सिलसिला आज भी चल रहा है।

Patients का faith ही मेरी पूंजी 

पेशेंट्स के मन में अपने प्रति विश्वास का जिक्र करते हुए डॉ केके सिन्हा कहने लगे- पेशेंट्स का मेरे प्रति विश्वास ही मेरी सबसे बड़ी पूंजी है। अभी मेरी फी 1500 रुपए है, तब भी इतनी भीड़ लगती है कि 12 घंटे प्रैक्टिस करता हूं। अगर फी ढाई हजार रुपए भी कर दूं, तब भी पेशेंट्स आएंगे, क्योंकि मैं बेकार के टेस्ट नहीं लिखता। दवाएं भी दो या ज्यादा से ज्यादा तीन लिखता हूं।

कभी नहीं चलाई bike

डॉ केके सिन्हा ने बताया कि उनके घर में भले ही दो-तीन बाइक्स रखी हों, पर उन्होंने जिंदगी में कभी भी बाइक की सवारी नहीं की। उनकी पहली सवारी एंबेसडर कार की थी। वह कहते हैं कि उन दिनों एंबेसडर कार के लिए महीनों तक लाइन लगानी पड़ती थी, तब कार मिलती थी। कार खरीदने का वाकया बताते हुए डॉक्टर सिन्हा ने कहा- 1962 में जब मैंने पटना के एक डीलर के यहां से कार खरीदी, तो इसके लिए 14,000 रुपए मैंने इंग्लैंड से पहले ही भेज दिए थे। उन दिनों पटना में मेरी पोस्टिंग हुई थी।

सीखना अब भी बाकी है

डॉ केके सिन्हा कहते हैं- मैं उम्र के 83वें पड़ाव पर खड़ा हूं, कब मर जाऊं पता नहीं, क्योंकि मरना तो सबको है। पर, अभी भी मेरी चाहत है कि कुछ नया सीखूं और नया करने की कोशिश करूं क्योंकि, नया सीखना और पढऩा ही अब तक अचीव करने के लिए बाकी रह गया है। मैं आज भी 12 घंटे पेशेंट्स को देखता हूं और पेशेंट्स को देखने से पहले सुबह अपने सŽजेक्ट न्यूरोलॉजी से जुड़ी किताब पढ़ता हूं। पढऩे का अलावा मुझे क्लासिकल म्यूजिक से भी जबर्दस्त लगाव है।

Nature से बहुत लगाव है

डॉ केके सिन्हा कहते हैं- नेचर से मुझे बहुत लगाव है। नेचर से इस लगाव की वजह यह रही कि मेरा गांव मनेर सोन नदी के किनारे है। वहां मैं रोज सोन नदी में डुबकियां लगाकर नहाया करता था। इसलिए, जब रांची आया, तो अपने घर में फूलों की बगिया बनाई और पेड़-पौधे लगाए। मेरे बगीचे में स्पेशली एक रोज गार्डेन है, जिसमें 82 किस्म के गुलाब लगे हैं। मैं वेजिटेरियन हूं और दाल-भात तरकारी मेरा पसंदीदा खाना है। ऐसा इस वजह से भी है, क्योंकि मैंने बीएचयू से 1946-1948 के दौरान आईएसएसी पास की थी और उस समय महामना मदन मोहन मालवीय जी का बीएचयू में बहुत प्रभाव था। उस समय वहां नॉन वेज खाना प्रतिबंधित था।

Teachers का standard घटता गया 

रिम्स के बारे में डॉ केके सिन्हा बताते हैं कि जब रिम्स आरएमसीएच था, उस समय यहां के स्टूडेंट्स का स्टैंडर्ड नीचे था और टीचर्स का स्टैंडर्ड ऊपर। उस समय यहां के सारे प्रोफेसर्स इंग्लैंड से एफआरसीएस और ऐसी ही डिग्रीज लेकर आए फेमस डॉक्टर्स होते थे। वे वहां से डिग्र्रीज लेने के साथ यह भी सीखकर आए होते थे कि स्टूडेंट्स को पढ़ाना कैसे है। उनमें टैलेंट तो होता ही था, सिस्टमेटिक वे में पढ़ाने का बेहतरीन तरीका भी वे जानते थे। पर, समय के बदलाव के साथ धीरे-धीरे हालात भी बदल गए। उसके बाद स्टूडेंट्स का स्टैंडर्ड बढ़ता चला गया और टीचर्स का स्टैंडर्ड घटता चला गया और उसका असर रिम्स में दिख रहा है।

A ‘God’ who doesn’t believe in God

डॉ केके सिन्हा को भगवान में विश्वास नहीं है। वह कहते हैं- कुछ पेशेंट्स कहते हैं कि मैं भगवान हूं या भगवान का अवतार हूं या ईश्वर का ध्यान करता रहता हूं, लेकिन यह सच नहीं है। बचपन में मुझे भगवान पर भरोसा था, पर अब मैं भगवान पर भरोसा नहीं करता। मैं सनातन हिंदू परिवार से हूं और मेरे पिता कृष्णभक्त थे। आठ साल की उम्र में ही मेरा जनेऊ संस्कार हो गया था। घर में हर दिन गायत्री और विष्णु स्तोत्र का पाठ होता था। पर, बाद में भगवान पर से मेरा भरोसा उठ गया। अब मैं मानता हूं कि भगवान एक काल्पनिक चीज है। भगवान के कॉन्सेप्ट का इवॉल्यूशन फियर, ग्रीड और मिस्ट्री ने कराया है।

Profile

-पूरा नाम : डॉ कृष्णकांत सिन्हा

-जिस नाम से फेमस हैं : डॉ केके सिन्हा

-एजूकेशन : एमबीबीएस, दरभंगा मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल से 1948 में, एमडी। एफआरसीपी और एमआरसीपी इंग्लैंड से

-कॅरियर : आरएमसीएच 1962 में ज्वॉइन किया और पांच मार्च 1976 को रिजाइन कर दे दिया, रिम्स गवर्निंग बॉडी के एक्स मेंबर रहे, अब रांची के बूटी रोड स्थित अपने बंगले 'मानसरोवरÓ में ही प्राइवेट प्रैक्टिस कर रहे हैं।

-फेवरेट फूड : वेजिटेरियन, दाल-भात और तरकारी

-म्यूजिक लव : क्लासिकल म्यूजिक से जबर्दस्त लगाव

-नेचर से बहुत लगाव है

-ख्वाहिश: कुछ नया सीखना, कुछ नया करना