कहते हैं कि दर्द-ए-गम का कोई इलाज नहीं होता है. दूसरे शब्दों में वक्त हर गम की दवा है. लेकिन मैं कहता हूं कि यहां हर गम का इलाज होता है. इसके लिए बस जरूरत है उसे मात देने के हौसले की. विश्वास न हो तो मैं आपको ले चलता हूं गोरखपुर से लगभग 20 मील दूर सीकरीगंज थाने से तीन किलोमीटर पश्चिम में स्थित एक ऐसे गांव में, जहां मातम भी परिहास में बदल जाता है.

यहां मातम पर रोक है

इस गांव का नाम मुंडेरा शुक्ल है. यह गांव भी बाकी गांवों जैसा ही है, लेकिन इसने एक ऐसी परंपरा ईजाद कर ली है, जिससे यह बड़े से बड़ा जख्म भी हंसकर सह लेता है. मैं जो बताने जा रहा हूं उस पर विश्वास करना इतना आसान नहीं है. यदि मैं आपको यह बताऊं कि इस गांव में मृत्यु जैसे सबसे बड़े दुख पर भी विजय पा ली गई है तो आप क्या कहेंगे. लेकिन यह सच है.

यह बहुत पुरानी परंपरा है

यहां मातम पर रोक है

कहने को यह एक छोटा-सा गांव है लेकिन यह गांव शिक्षा की अलख जगा रहा है. यानि इसी गांव का इंटर कॉलेज एक बड़े इलाके की शान बना हुआ है. इस गांव ने कई अफसर भी दिए हैं. और इसी गांव ने यह परंपरा बनाई है कि मृत्यु को हम मातम की तरह नहीं मनाएंगे बल्कि उसे एक ऐसा रूप देंगे जिससे लोगों को इस गम से बाहर निकलने का आसान रास्ता मिल सके.

गांव के ही सबसे बुजुर्ग और रजिस्ट्री विभाग से रिटायर्ड सब रजिस्ट्रार गंगाशरण शुक्ल कहते हैं कि माता-पिता की जिंदगी में संतान के विछोह से बड़ा कोई गम नहीं हो सकता. ठीक ऐसे ही एक नवविवाहिता के लिए अपने पति को खो देने से बड़ी पीड़ा और यातना क्या हो सकती है. लेकिन इस गांव ने इसी पीड़ा से मुक्ति के लिए यह मार्ग निकाला है.

वह बताते हैं कि उनका गांव 250 साल पुराना है. साथ ही यह विश्वास भी जताते हैं कि उसी के आसपास से यह परंपरा चली आ रही है क्योंकि खुद उनकी आयु 82 साल है और जब से उन्होंने होश संभाला है तब से इसे देखते चले आ रहे हैं. खुद उनके पिता और ग्रैंडफादर ने भी ऐसा ही कुछ बताया था.

ढेला मार स्पर्धा हो जाती है शुरू

यहां मातम पर रोक है

गांव में जब भी किसी की मृत्यु होती है तो अंतिम संस्कार के लिए शव को ले जाते समय अचानक ढेला मार स्पर्धा शुरू हो जाती है. यह सब बड़े सुनियोजित तरीके से होता है. गांव के ही एक अन्य ऐजेड पर्सन देवीशंकर बताते हैं कि जैसे ही शव गांव से निकलता है, अंतिम यात्रा में शामिल गांव का कोई न कोई बुजुर्ग अचानक एक ढेला उठाकर किसी के ऊपर फेंक देगा. फिर क्या, देखते ही देखते चारों ओर से ढेलेबाजी शुरू हो जाएगी. इस ढेलेबाजी में यह ध्यान जरूर रखा जाता है कि किसी को ऐसी चोट न आए कि उसे डॉक्टर के पास ले जाना पड़े, बाकी सब ठीक है.

 

सात मील तक चलती है ढेलेबाजी

गांव से सरयू नदी स्थित श्मशान घाट तक की दूरी तकरीबन सात मील की है. गांव से लेकर श्मशान घाट तक ढेलेबाजी का यह खेल चलता है, जिसे देखने के लिए राहगीर भी रुक जाते हैं. इस खेल में गांव का हर बुजुर्ग शामिल होता है. बाकी उम्र के लोग तो होते ही हैं. श्मशान घाट तक डेड बॉडी को लेकर पहुंचे-पहुंचते वे यह तक भूल जाते हैं कि यहां करने क्या आए हैं. कई बार ऐसा हुआ कि लोगों को अंतिम संस्कार करने तक की फिक्र ही नहीं रही. ढेले मारने का यह खेल देर तक चलता रहता है.

खेल भी चलता है और संस्कार भी

एक ओर ढेले मारने का खेल चलता रहता है, तो दूसरी और अंतिम संस्कार हो रहा होता है. अंतिम संस्कार के दौरान के बोझिल और लगभग तोड़ देने वाले पलों का अहसास यहां के लोगों को कभी नहीं हुआ. चिता को मुखाग्नि देने से लेकर लौटने तक एक जैसा ही माहौल रहता है.

यहां मातम पर रोक है

ताकि डिप्रेशन में न चला जाए यह गांव

ब्रम्हदेव शुक्ल की मानें तो गांव के बसने के कुछ समय बाद ही कई बार अकाल मौतों का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ कि लगा सब तबाह हो जाएगा. एक ओर मौतों का तांडव तो दूसरी ओर उसके भयानक साइड इफेक्ट यानि जो बच जाते थे वे उस आपदा के दुष्प्रभाव से बाहर नहीं निकल पाते थे. वह बताते हैं कि ऐसा सुना गया है कि उसी पर विजय पाने के लिए गांव के सबसे चुहलबाज बुजुर्ग ने यह परंपरा शुरू की थी. वह मानते हैं कि इससे यह गांव आज हर दुख को सहने के लिए तैयार रहता है. विपदाओं में यह गांव कभी नहीं टूटा.

देवीशंकर शुक्ल

उम्र-78 वर्ष    

पेशा-रिटायर्ड प्रिंसिपल

पहली बार तो मुझे भी यह विचित्र लगा था. अपने चाचा की शव यात्रा में गया था. वहां अचानक ढेलेबाजी शुरू हो गई. उसमें बाहर से बहुत से लोग शामिल हुए थे. यह दृश्य जब उन लोगों ने देखा तो उन्हें लगा कि यहां आपस में झगड़ा होने लगा है इसलिए वे लोग डरकर भागने लगे. तब उन्हें पूरा किस्सा बताया गया.

डॉ. विनोद

उम्र 58 वर्ष

पेशा- आयुर्वेद के चिकित्सक

मैं पहली बार 18 वर्ष की आयु में शवयात्रा में शामिल हुआ था. जैसे ही हम लोग गांव से निकले अचानक ढेलेबाजी शुरू हो गई. कुछ देर तक मैं समझ ही नहीं पाया. और फिर क्या था मैं भी उसी में शामिल हो गया. जब मैं घर लौटा तो ऐसा लगा ही नहीं कि हम किसी का अंतिम संस्कार करके आ रहे हैं. मैंने आज तक ऐसा कोई अंतिम संस्कार नहीं देखा, जिसमें इस परंपरा को निभाया न गया हो.

रमाकांत

एज-53, फार्मर

मैं पहली बार 13 साल की उम्र में अंतिम संस्कार में गया था. पहले तो मैं रो रहा था लेकिन जब ढेला मार स्पर्धा शुरू हुई तो मैं भूल गया कि कुछ देर पहले अपने करीबी की मौत से बेहाल था. यह परंपरा हमें उस बड़े गम से बाहर निकालती है. नहीं तो जीवन सामान्य होने में ज्यादा समय लगता है. बाद में ढेलेबाजी में मैं अपने ग्रुप का लीडर बन गया.

केदारनाथ

उम्र-44 वर्ष, लेक्चरार

इस परंपरा को नई पीढ़ी ने भी अपना लिया है. बाहर से आने वाले को निश्चित ही यह अजीब लगता है. मैं तो मानता हूं कि ऐसे अवसर को आप परिहास में बदल दें इससे बड़ा अध्यात्म और क्या हो सकता है कि व्यक्ति सुख और दुख में समान बना रहे. मैं तो कहता हूं कि आगे भी इसका निर्वहन होना चाहिए.

सौरभ

उम्र 24 साल, स्टूडेंट

मैं अपने ग्रैंडफादर की अंतिम यात्रा में ढेलेबाजी में शामिल हुआ था. मैं मानता हूं कि इस परंपरा में कोई बुराई नहीं है और इसे जारी रखना चाहिए. इसने मौत के भय को हमसे दूर कर दिया है. यही हमारी और इस गांव की सबसे बड़ी ताकत है. यह गांव इसीलिए सबसे ज्यादा चर्चित है. सैकड़ों मील तक लोग इस बारे में जानते हैं.

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