-हर दल की स्थिति एक जैसी, पार्टी में नए जुड़े नेताओं को मिल रही है तरजीह

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PATNA: 'गैरों पे करम, अपनों पे सितम, ऐ जान-ए-वफा ये जुल्म न कर..' आज से 51 साल पहले जब यह गाना फिल्म आंखें के लिए लता मंगेशकर की आवाज में रिकॉर्ड हुआ था, तब शायद ही किसी ने सोचा होगा कि ये पंक्तियां कभी बिहार की राजनीति में भी प्रासंगिक हो जाएंगी. लेकिन, मौजूदा राजनीतिक समीकरण इस गाने पर फिट बैठ रहे हैं. खासकर, उन दलों पर जिन्होंने टिकट बांटने में अपनी पार्टी के नेता-कार्यकर्ताओं से ज्यादा तरजीह उन्हें दी, जो दूसरे दलों को छोड़ कर आए हैं.

जीत ही है पार्टियों का लक्ष्य

दरअसल, बिहार की 40 संसदीय सीटों में से कई सीटें ऐसी हैं, जिनमें 'इम्पोर्टेड नेता' चुनाव लड़ रहे हैं. पार्टियों के समर्पित नेता-कार्यकर्ता, जिन्होंने वर्षो झंडा ढोया, उन्हें दरकिनार कर दिया गया है. यही वजह है कि हर दल में टिकट बंटवारे के बाद रार ठनी है. आए दिन पार्टियों के दफ्तर के बाहर असंतोष की ज्वाला में धधक रहे नेता और कार्यकर्ता अपना फ्रस्ट्रेशन निकालते नजर आ रहे हैं. सबसे पहले बात कांग्रेस पार्टी की. कांग्रेस को सीट शेयरिंग एग्रीमेंट के तहत महागठबंधन में 9 सीटें मिली हैं. यानी, सहयोगी दल 31 सीटों पर लड़ रहे हैं. कांग्रेस ने अपने हिस्से की नौ सीटों में चार पर बाहरी उम्मीदवारों को तरजीह दी है. हालांकि, अभी तक दो सीटों पर नाम की घोषणा नहीं हुई है, लेकिन ऐसा माना जा रहा है कि वाल्मीकिनगर और पटनासाहिब की सीटों पर भी भाजपा से आये दो बड़े नेता चुनाव लड़े हैं. एक शत्रुघ्न सिन्हा, तो दूसरे कीर्ति आजाद. कांग्रेस ने एनसीपी से आए तारिक अनवर को कटिहार से टिकट दिया है. जबकि, कटिहार में ऐसे कई नेता मौजूद हैं, जो चुनाव लड़ने को तैयार थे. वहीं पूर्णिया सीट से कांग्रेस का टिकट हासिल करने में उदय सिंह उर्फ पप्पू सिंह कामयाब रहे. वे बीजेपी छोड़ कर कांग्रेस में आए और आते ही टिकट मिल गया. वैसे, उन्होंने 2014 में बीजेपी की टिकट से ही लोकसभा चुनाव लड़ा था. हालांकि, उनकी मां माधुरी सिंह पुरानी कांग्रेसी रही हैं. माधुरी दो बार कांग्रेस के ही टिकट से पूर्णिया से सांसद रह चुकी हैं.

गठबंधन के कारण हुआ फेरबदल

लोक जनशक्ति पार्टी ने भी आयातित नेताओं को मैदान में उतारा है. लेकिन, यहां फर्क इतना है कि रामविलास पासवान की पार्टी ने अपनी ही सांसद वीणा देवी का क्षेत्र बदल दिया है. वीणा देवी पहले मुंगेर से सांसद थीं. मुंगेर जदयू के खाते में गई, तो वीणा देवी को एडजस्ट करने के लिए वैशाली से उतार दिया गया, जो राजद के वरिष्ठ नेता रघुवंश प्रसाद सिंह से मुकाबला करेंगी. दूसरी ओर, गोपालगंज सीट जदयू के खाते में जाने के बाद भाजपा छोड़कर जदयू आने वाले डॉ आलोक सुमन को टिकट दे दिया गया. गोपालगंज के स्थानीय नेताओं को जदयू में 'आशीर्वाद' नहीं मिला. इससे वहां के कार्यकर्ताओं में थोड़ा उबाल भी देखने को मिला. खास बात यह है कि डॉ आलोक सुमन ने 2013 में ही भाजपा ज्वाइन किया था. पांच साल में उन्होंने पार्टी बदल ली. ऐसे कई अन्य सीट भी है जहां विवाद है.

बिगड़ सकता है कई नेताओं का खेल

ऐसे नेताओं की लिस्ट काफी लंबी है, जिन्होंने दल बदलकर टिकट लेने में कामयाबी पाई है. वहीं जिन सीटों पर राजनीतिक दलों ने 'इम्पोर्टेड' नेताओं को मैदान में उतारा है, वहां स्थानीय कार्यकर्ताओं का रोष देखने को साफ मिल रहा है. आने वाले दिनों में यह रोष बढ़ भी सकता है और कई बाहरी प्रत्याशियों का गणित भी खराब हो सकता है.

शरद के मामले में भी गरमाहट

राजद में भी कुछ ऐसी ही कहानी है. इसका ताजा उदाहरण है शरद यादव को टिकट देना. वे जदयू में थे. नीतीश कुमार के बीजेपी से हाथ मिलाकर सरकार बनाने से असहमत होने पर उन्होंने दल छोड़ दिया था. इसके बाद मधेपुरा से राजद ने उन्हें टिकट से नवाजा. ये सीट भी राजद की ही है. यहां से पिछली बार राजद ने राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव जीत कर संसद पहुंचे थे. उन्होंने पार्टी से टिकट नहीं मिलने पर निर्दलीय ही अपना नामांकन कर दिया है. पप्पू यादव का राजनीतिक सफर भी किसी पार्टी से जुड़कर शुरू नहीं हुआ था, बल्कि 1990 में उन्होंने पहली बार निर्दलीय ही चुनाव लड़ा था और विधायक बने थे.