दो बातों ने कांग्रेस के लिए हालात बिगाड़े हैं. एक तो इस फैसले को लगातार टालने की कोशिश. चुनाव जब सिर पर आ गए हैं तब पार्टी फैसला कर रही है. दूसरे पूर्व मुख्यमंत्री वाइ एस आर रेड्डी के बेटे जगनमोहन रेड्डी के साथ पार्टी ने रिश्ते बुरी तरह खराब कर लिए हैं. यह बात तटीय आंध्र और रायलसीमा क्षेत्र में कांग्रेस के ख़िलाफ़ जाएगी.

सन 2004 के चुनाव में एनडीए की पराजय के दो बड़े केन्द्र थे तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश. इस बार भाजपा कांग्रेस के इस महत्वपूर्ण गढ़ को भेदना चाहती है. भाजपा की कोशिश है कि तेलुगुदेसम या टीडीपी और टीआरएस के साथ मिलकर कांग्रेस को हराया जाए. वह ख़ामोशी के साथ कांग्रेस को इस दलदल में फँसते हुए देख रही है. उसने तेलंगाना का समर्थन किया है और टीडीपी भी इसके साथ नज़र आती है.

तेलंगाना के कांग्रेस नेताओं का कहना है कि अब पार्टी जो कुछ भी हासिल कर सकती है तेलंगाना में ही संभव है. तटीय आंध्र प्रदेश और रायलसीमा में जगनमोहन रेड्डी ने अपने पैर काफी मजबूत कर लिए हैं. वहाँ कुछ मिलना नहीं है. तेलंगाना क्षेत्र में विधानसभा की 294 में से 119 और लोकसभा की कुल 42 में से 17 सीटें हैं. इतना साफ़ लगता है कि नया राज्य बनेगा तो टीआरएस को फायदा होगा. और नहीं भी बना तो उसे लड़ाई जारी रखने का लाभ मिलेगा.

देरी की तोहमत कांग्रेस पर

तेलंगाना क्या 'सेल्फ़ गोल' साबित होगा?

इस मसले में देर से फ़ैसला होने के कारण पैदा हुए असमंजस की तोहमत कांग्रेस पर जाएगी क्योंकि केन्द्र और राज्य दोनों जगहों पर उसकी सरकार है और कोई भी पक्ष उससे खुश नहीं है. तेलंगाना बन भी जाए तो हैदराबाद की खीचतान कायम रहेगी. हैदराबाद के लिए चंडीगढ़ जैसा समाधान भी आसान नहीं होगा, क्योंकि चंडीगढ़ नया शहर था. हैदराबाद एक ऐतिहासिक शहर है.

एक संस्कृति और समाज की पहचान. यहाँ दो भाषाओं के आधार पर राज्य नहीं बन रहा है, बल्कि भूगोल और संस्कृति के आधार पर बन रहा है. तेलंगाना विरोधी कांग्रेस नेताओं का कहना है कि पार्टी तेलंगाना न बनाने का फैसला करे तो उसे तटीय आंध्र (123 विधानसभा और 17 लोकसभा सीटें) में फायदा होगा. उसे इस बात का श्रेय मिलेगा कि तेलंगाना नहीं बनने दिया. यह भी सच है कि प्रदेश में तेलंगाना के विरोध में ज़बरदस्त आंदोलन खड़ा हो गया है.

तेलंगाना बनने पर इसका राजनीतिक नुकसान कांग्रेस को ही उठाना है. मामले को पहले उठाकर और फिर छोड़कर कांग्रेस ने अपने लिए मुसीबत मोल ले ली है. सन 2004 में चुनावी सफलता हासिल करने के लिए कांग्रेस ने तेलंगाना राज्य बनाने का वादा किया था. संयोग से केन्द्र में उसकी सरकार बन गई.

तेलंगाना राष्ट्र समिति इस सरकार में शामिल ही नहीं हुई यूपीए के कॉमन मिनिमम प्रोग्राम में राज्य बनाने के काम को शामिल कराने में कामयाब भी हो गई थी लेकिन 2009 के चुनाव भी हो गए तेलंगाना का पता नहीं. नवम्बर 2009 में के चन्द्रशेखर राव के आमरण अनशन को खत्म कराने के लिए गृहमंत्री पी चिदंबरम ने राज्य बनाने की प्रक्रिया शुरू करने का वादा तो कर दिया, पर सबको पता था कि यह बात सिर्फ मामले को टालने के लिए है. चिदंबरम का वह वक्तव्य जल्दबाजी में दिया गया था.

श्रीकृष्ण समिति

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इस मसले पर कांग्रेस ने तब तक भी गंभीरता से नहीं सोचा था. इस बीच श्रीकृष्ण समिति बना दी गई, जिसने बजाय समाधान देने के कुछ नए सवाल खड़े कर दिए. इस रपट को लेकर आंध्र प्रदेश के हाईकोर्ट तक ने संदेह व्यक्त किया कि इसमें समाधान नहीं, तेलंगाना आंदोलन को मैनेज करने के बाबत केन्द्र सरकार को हिदायतें हैं.

जिस तेलंगाना राज्य की नींव पड़ने जा रही है उसकी भौगोलिक सीमा में वर्तमान आंध्र प्रदेश के 23 में से 10 जिले आते हैं. इसमें महबूब नगर, नलगोंडा, खम्मम, रंगारेड्डी, वारंगल, मेडक, निजामाबाद, अदिलाबाद, करीमनगर और हैदराबाद शामिल हैं. सन 2009 के लोकसभा चुनाव में तेलंगाना क्षेत्र से कांग्रेस को चुनाव में काफी सफलता मिली थी. प्रदेश के 42 में से 17 सांसद कांग्रेस के हैं, इनमें से 12 तेलंगाना क्षेत्र से हैं.

कांग्रेस की रणनीति है कि ये 12 सीटें तो उसे कम से कम मिल ही जाएं. पहले पार्टी चाहती थी कि आंध्र प्रदेश विधान सभा नया राज्य बनाने का प्रस्ताव पास करे- जैसे उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ की स्थापना में हुआ था. यह संभव नहीं हुआ क्योंकि जितना ताकतवर तेलंगाना आंदोलन है उतना ही ताकतवर राज्य को वृहत् रूप में बनाए रखने का समैक्यांध्रा आंदोलन है. मुख्यमंत्री किरण कुमार रेड्डी ने हमेशा ही खुद को इस एटम बम से अलग करके रखा.

दिक्कत यह है कि यथास्थिति बनाए रखने पर रायलसीमा और तटीय क्षेत्र के लोग तो खुश होंगे, पर तेलंगाना क्षेत्र में कांग्रेस की राजनैतिक शक्ति क्षीण हो जाएगी. कांग्रेस को कुएं और खाई में चुनाव करना है. कांग्रेस की अभी तक की नीति तेलंगाना राज्य समिति के साथ गुप-चुप बात करके इनाम-इकराम देने की थी. पर अब यह विशाल जनांदोलन है. इसमें व्यक्तिगत मानने या न मानने से काम नहीं चलेगा.

चुनौती प्रदेश है आंध्र

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राज्य बनाने का फैसला कर भी लिया गया तो हैदराबाद को लेकर आमराय बनाना मुश्किल होगा. तेलंगाना में एक लहर है और रायलसीमा और तटीय आंध्र प्रदेश में उसके विपरीत संयुक्त आंध्र की लहर है. हैदराबाद संशय में है. कांग्रेस की तरह वह भी नहीं समझ पा रहा है कि इधर जाए या उधर जाए. परंपरा से आंध्र चुनौती पेश करने वाला राज्य है.

आज़ादी के बाद देश का पहला राजनीतिक संकट तेलंगाना के कम्युनिस्ट आंदोलन के साथ खड़ा हुआ था, जो आज आंध्र के बाहर नक्सली आंदोलन के रूप में चुनौती पेश कर रहा है. भाषा के आधार पर देश का पहला राज्य आंध्र ही बना था, पर उस राज्य को एक बनाए रखने में भाषा मददगार साबित नहीं हो रही है. तेलंगाना को अलग राज्य बनाने की माँग देश के पुनर्गठन का सबसे महत्वपूर्ण कारक बनी थी.

पोट्टी श्रीरामुलु की आमरण अनशन से मौत के बाद सन 1953 में तेलुगुभाषी आंध्र का रास्ता तो साफ हो गया था, पर तेलंगाना इस वृहत् आंध्र योजना में जबरन फिट किया गया. राज्य पुनर्गठन आयोग की सलाह थी कि हैदराबाद को विशेष दर्जा देकर तेलंगाना को अलग राज्य बना दिया जाए और शेष क्षेत्र अलग आंध्र बने. नेहरू जी आंध्र और तेलंगाना के विलय को लेकर शंकित थे. उन्होंने शुरू से ही कहा था कि इस शादी में तलाक की संभावनाएं बनी रहने दी जाएं. राज्य पुनर्गठन आयोग के अध्यक्ष जस्टिस फजल अली भी तेलंगाना के आंध्र प्रदेश में विलय के पक्ष में नहीं थे.

उनकी रिपोर्ट में तेलंगाना के लोगों की इस भावना को रेखांकित किया गया था. उसमें कहा गया था कि आंध्र और तेलंगाना को अलग प्रदेश बनाएं. तेलंगाना को अलग राज्य बनाने का वर्तमान आंदोलन 1969 में शुरू हुआ था. उसका नेतृत्व कांग्रेस के एम चन्ना रेड्डी ने किया था. उन्होंने कांग्रेस छोड़कर अलग से तेलंगाना प्रजा समिति की स्थापना की लेकिन इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने उन्हें न केवल वापस पार्टी में शामिल किया बल्कि इनाम में आंध्र प्रदेश का मुख्यमंत्री भी बना दिया.

सिर्फ चुनावी वादा

तेलंगाना क्या 'सेल्फ़ गोल' साबित होगा?

चन्ना रेड्डी के बाद तेलंगाना क्षेत्र से आए पीवी नरसिंह राव भी प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. धीरे-धीरे वह माँग दब गई. पर के चंद्रशेखर राव ने सन 2001 में टीडीपी से अलग होकर तेलंगाना राष्ट्र समिति की स्थापना की. सन 2004 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने टीआरएस का समर्थन करते हुए फायदा उठाया. चन्ना रेड्डी के फॉर्मूले पर के चंद्रशेखर को केन्द्र में मंत्री का पद देकर कांग्रेस ने मान लिया कि काम हो गया, पर यहाँ पार्टी गच्चा खा गई.

किरण कुमार रेड्डी काफी पहले घोषणा कर चुके हैं कि तेलंगाना बना तो मैं पद छोड़ दूँगा. पद न भी छोड़ें, पर वे इस फैसले के ख़िलाफ़ हैं. यों भी अभी नहीं तो भविष्य में उनकी जगह किसी और को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाना होगा. किरण कुमार को जगनमोहन को संतुलित करने के लिए लाया गया था. वह काम फौरी तौर पर तो हुआ, पर नया राज्य बनते ही स्थितियाँ बदल जाएंगी.

तेलंगाना के राजनीतिक निहितार्थ को नवम्बर 2011 मे उत्तर प्रदेश के बँटवारे के प्रस्ताव से तुलना करके देखें जहाँ चार राज्य बनाने की मुहिम भी फेल हो गई. उस वक्त उत्तर प्रदेश की विधानसभा ने प्रदेश को चार हिस्सों में बाँटने का प्रस्ताव पास किया था. वह प्रस्ताव भी पूरी तरह चुनाव की राजनीति से जुड़ा था. पर उसका कोई लाभ बसपा को नहीं मिला क्योंकि प्रदेश के विभाजन की माँग जनता की तरफ़ से नहीं थी.

तेलंगाना क्या 'सेल्फ़ गोल' साबित होगा?

पर यही बात आंध्र पर लागू नहीं होती. तेलंगाना का सपना तकरीबन साठ साल पुराना है. उसे 1956 में ही पूरा कर लिया जाता तो आज यह नौबत नहीं आती. बहरहाल समय सबसे बलवान है और राजनीति में यह सबसे बड़ा पहलवान है. तेलंगाना कुछ के लिए उम्मीदों और कुछ के लिए खौफनाक अंदेशों का संदेश लेकर आ रहा है. इसकी इबारत लोकसभा के आने वाले चुनाव में पढ़ने को मिलेगी.

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