लड़कियां ही लावारिस क्यों?

-लड़कियां ही क्यों मिलती हैं हमेशा लवारिस

-एक साल में चाइल्ड लाइन को मिलीं 66 लड़कियां

piyush.kumar@inext.co.in

ALLAHABAD: एक मां से पूछिए बेटी का दर्द क्या होता है। बिना बेटी के जिन्दगी कैसे अधूरी रहती है। मां को पता है कि बेटी जिन्दगी को कैसे खुशहाल बनाती है। एक पिता से पूछिए कि उसका ख्याल कौन रखता है। यकीनन इन सभी सवालों का जवाब बेटी ही है। घर में बेटी की अहमियत पर सुरेंद्र चतुर्वेदी ने ठीक ही कहा है-

नसीबों की शाखाओं पे खिलती हैं बेटी

मुकद्दर भला हो तो मिलती है बेटी

कभी बन के मैना, कभी बन के कोयल

घरों-आंगनों में उछलती है बेटी

जमा करती सर्दी में,बारिश में बहती

अगर गर्मियां हो तो पिघलती है बेटी

जलें ना जलें हैं चरागां तो बेटे

मगर हो अंधेरा तो जलती है बेटी

बेटी का इतना महत्व होने के बाद भी जन्म लेते ही आज सड़कों और नालियों में उन्हें फेंक दिया जाता है। बेटों की अपेक्षा बेटियां ही ज्यादा लावारिस हालत में मिलती हैं। कम से कम चाइल्ड लाइन के आंकड़े तो यही कहते हैं।

एक बेटी की है चाहत

लूकरगंज की रहने वाली अर्चना अग्रवाल आज एक बेटी पाने के लिए परेशान हैं। बेटी क्या होती है, उसकी तड़प क्या होती है यह अर्चना से बेहतर और कोई समझ नहीं सकता.अर्चना भी मां थीं। लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था.आज भगवान ने उनकी कोख सूनी कर दी है। वह एक बेटी के लिए परेशान हैं। जब भी उन्हें पता चलता है कि कोई लावारिस बेटी मिली है तो वह परेशान हो जाती हैं। न्यूज पेपर में खबर पढ़ने के बाद चाइल्ड लाइन से लेकर प्रशासनिक आफिसर तक उस बच्ची को पाने के लिए हर संभव प्रयास करती हैं। अर्चना की मानें तो प्रशासन ने गोद लेने से पहले कुछ ऐसी शर्ते लगा दी हैं जो उनकी राह में रुकावट बन गई है। बावजूद इसके अब वह हर हाल में बेटी गोद लेना चाहती हैं.उन्होंने इसके लिए संबंधित विभाग से रजिस्ट्रेशन भी करा लिया है लेकिन विभाग के लोगों का कहना है कि अभी नंबर नहीं आया है।

हर जगह मिलती है लावारिस

अगर हम चाइल्ड लाइन की बात करें तो यहां पर हमेशा ही लावारिस बच्चे की मिलने की सूचना आती रहती है। इनमें ज्यादातर लड़कियां होती हैं। कुछ नालियों के किनारे तो कुछ सार्वजनिक स्थानों तो कुछ सड़कों पर लावारिस हालत में मिलती हैं। चाइल्ड लाइन के आंकड़े के मुताबिक पिछले एक साल में म्म् बेटियां मिली हैं। चाइल्ड लाइन की टीम जगह-जगह से लावारिस हालत में मिले बच्चों को अपने यहां शरण देती है। ये वो बेटियां होती हैं जो मजबूरीवश घर से निकली होती हैं। इनमें कुछ नवजात होती हैं जिनके बारे में कुछ भी पता लगाना आसान नहीं होता। क्योंकि वे बोल भी नहीं पाती हैं। कई बार पैरेंट्स अपनी बेटियों को इसलिए सड़क पर छोड़ देते हैं क्योंकि वह फिजिकली हैंडीकेप्ट है। ऐसे में चाइल्ड लाइन को भी कड़ी मशक्कत करनी पड़ती है उनकी केयरिंग के लिए। यही नहीं मेंटली हैंडीकैप्ट लड़कियां भी इस तरह लावारिस छोड़ दी जाती हैं।

मानसिकता नहीं बदली है

हम पढ़े-लिखे इंटलेक्चुअल कहे जाते हैं। लेकिन समाजिक रूप में ऐसा है क्या, हकीकत यह है कि जेहनी तौर पर लोग आज भी वैसे ही हैं। उनकी मानसिकता नहीं बदली है। आज भी लोग लड़कियों को बोझ समझते हैं। जन्म के समय ही पहले लोग लड़कियों मार देते हैं, लेकिन अब मार नहीं पाते तो उसे लावारिस छोड़ देते हैं। कई बार अवैध बच्चा होने पर उसे लावारिस छोड़ देते हैं। घरों में लड़कियों के साथ सौतेला व्यवहार किया जाता है। लड़कियां उपेक्षा की शिकार होती है। उनके खाने पीने और गिफ्ट आदि दिलाने में भी सौतेला व्यवहार किया जाता है। जबरदस्ती उनसे काम कराया जाता है। कई इस तरह के कारणों से भी लड़कियां घर छोड़ कर भाग निकलती है।

शिखा श्रीवास्तव

मनोवैज्ञानिक

पिछले एक साल में म्म् लड़कियां मिली हैं, जिसमें नवजात बच्चियों से लेकर कुछ बड़ी लड़कियां तक शामिल हैं। लड़कियों के मिलने पर उन्हें विशेष ध्यान दिया जाता है।

अजीत सिंह

डायरेक्टर चाइल्ड लाइन