ऐसी है जानकारी
अब अगर ये कहा जाए कि बिहार के चुनाव नतीजों पर पूरे देश की निगाहें टिकी थीं, तो गलत नहीं होगा। अब साफ है कि अगले साल पश्चिम बंगाल में चुनाव होने वाले हैं और उसके बाद तैयारी होगी उत्तर प्रदेश की। यहां बिहार के फैसले के संदर्भ में इस बात को जानना जरूरी होगा कि महागंठबंधन की जीत व एनडीए की हार के मायने आखिर क्या हैं।
 
आखिर में पलटा पासा
चुनाव को लेकर पूरे अभियान का नेतृत्व नरेंद्र मोदी ने हर तरह से आगे से आगे बढ़कर किया। उनके इस अभियान में उनकी मदद अमित शाह और भाजपा के दूसरे अन्य बड़े नेताओं ने की। वहीं नीतीश कुमार और लालू प्रसाद की जोड़ी ने इसका जवाब 1990 के दशक के सामाजिक न्याय के मुद्दे को फिर से उठाकर बखूबी दिया है। 2014 के लोकसभा चुनाव के उलट विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार और लालू प्रसाद आखिर में एक होकर लड़े। उनकी ये जोड़ी अपने आप में एक अनूठा मामला था।
 
सामाजिक न्याय का मुद्दा अभी भी जीवित
अब बात करें चुनाव में एक-दूसरे के खिलाफ उतरे दोनों नए राजनीतिक गंठबंधनों की, तो इनकी परीक्षा अभी होनी बाकी थी। अब इसे संयोग ही कहेंगे कि यह साल बिहार में सामाजिक न्याय के विजय का रजत जयंती वर्ष रहा। अब यहां इससे भी बड़ी आश्चर्य करने वाली बात ये है कि क्या 25 सालों के बाद भी बिहार के मतदाताओं के बीच सामाजिक न्याय का मुद्दा अभी जीवित है। बड़ी बात ये है कि वह भी तब, जब इस दौरान कई राजनीतिक बदलाव हो चुके हैं। वहीं महागंठबंधन की जीत की पृष्ठभूमि पर गौर करें तो अब यह देखने की जरूरत है कि आखिर किन कारणों से उसको सफलता मिली।
 
इससे होता है प्रभावित
दोनों गंठबंधनों की ओर से बिहार के युवा मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने की पूरी कोशिश की गई। वहीं ये जाहिर सी बात है कि यह कोशिश जाति और वर्ग से ऊपर उठकर की जानी थी। करोड़ों मतदाओं में से करीब 3.8 करोड़ (56}) की मतदाताओं की उम्र 18-40 साल के बीच बताई गई। इसमें से 1.8 करोड़ की उम्र 30 वर्ष से कम है। वहीं करीब 24.13 लाख ऐसे वोटर हैं जो पहली बार अपने मताधिकार का इस्तेमाल कर रहे थे। राष्ट्रीय स्तर पर गौर करें तो यह वर्ग बाजार से प्रभावित होता है, राष्ट्रीय और वैश्विक दोनों तरह की बाजार से। अब यहां किसी बड़े उदाहरण को लें तो कह सकते हैं कि अंतरराष्ट्रीय बाजार का उनका ज्ञान ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ और ‘कभी खुशी कभी गम’ सरीखी फिल्मों के माध्यम से होता है। इन फिल्मों की शूटिंग विदेशों में भी हुई है। नरेंद्र मोदी का बार-बार विदेश दौरा और वहां के अमीर अप्रवासियों संग मिलना-जुलना ऐसी फिल्मों की एक कड़ी की तरह सामने आती है।
 
दानापुर और पटना के जिक्र ने निभाई भूमिका
वहीं अब अगर बात करें बिहार के संदर्भ में तो युवा वोटरों में सामाजिक न्याय और अन्याय के खिलाफ लड़ने का जज्बा होता है। जैसा नीतीश कुमार और लालू प्रसाद ने कहा। इसके अलावा, यहां के युवा दिनेश लाल यादव की फिल्म ‘निरहुआ रिक्शावाला’ और भोजपुरी फिल्मों में केसरी लाल यादव के गानों से ज्यादा प्रभावित होते हैं। इन फिल्मों की खासियत ये है कि इनमें दानापुर और पटना का जिक्र पेरिस और डेनमार्क जैसे नामों से ज्यादा है।

मोदी और शाह को किया गया ओवर प्रोजेक्ट  
याद दिला दें कि बिहार में इससे पहले कभी भी क्षेत्रीय पहचान का सवाल नहीं उठा था। हालांकि 2015 के विधानसभा चुनाव में इस मुद्दे पर खूब हल्ला मचा। हालांकि बिहारी डीएनए के इर्द-गिर्द का आंदोलन फेल करने के बावजूद भी 'बिहारी-बाहरी' के स्लोगन की सफलता हर मायने में निर्णायक रही। अब ऐसा इसलिए क्योंकि प्रचार में नरेंद्र मोदी और अमित शाह को ओवर प्रोजेक्ट किया गया।
 
मतदाताओं को याद आया विकास
अगला अहम कारण साबित हुआ महागंठबंधन की ओर से सीएम कैंडिडेट को घोषित करना और एनडीए का नहीं करना। साल 2014 के संसदीय चुनाव में और उसके बाद महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा को सत्ता विरोधी लहर का खूब फायदा मिला। ऐसे में यहां के मतदाताओं को बिजली के क्षेत्र में हुए कुछ बड़े सुधार याद हैं, ग्रामीण इलाकों में भी 15 से 20 घंटे तक बिजली रहती है।

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नहीं बनी बात विकास पैकेज की
अब वहीं बात करें बिहार के विकास पैकेज की, तो इसकी घोषणा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने की थी। फिलहाल उनका पैकेज भी नीतीश कुमार के विकास को नहीं ढक पाया। बिहार जैसे ऐतिहासिक रूप से पिछड़े राज्य के लिए मिले पैकेज में सशक्त बनाने की क्षमता होनी चाहिए, यह भी तभी संभव है जब पैकेज का बहुत बड़ा हिस्सा भौतिक और सामाजिक संरचना के विकास में लगाया जाए।

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महिलाओं, दलितों व अति पिछड़ों का मिला समर्थन
बिहार को विशेष दर्जा देते हुए इसे हर तरह से सशक्त बनाया जा सकता था। इसकी घोषणा प्रधानमंत्री की ओर से की गई थी। बीते एक दशक में सार्वजनिक निवेश की बदौलत बिहार ने 10 फीसदी विकास दर हासिल की। अब इसके बाद विशेष दर्जा मिलने के बाद बिहार में निजी क्षेत्र में भी निवेश की संभावनाएं साथ में बढ़तीं ही। इस महागंठबंधन को बिहार की महिलाओं, दलितों व अति पिछड़ों का बेहतरीन और बड़ी संख्या में समर्थन मिला। इनको समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए नीतीश कुमार ने 2005 से ही कई कार्यक्रम चलाए गए।

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