PATNA : विधानसभा चुनाव ख्0क्भ् कई मायने में ऐतिहासिक रहा। कई चीजें पहली बार हुई। कई घटनाएं ऐसी हुई जिसकी उम्मीद बिहार की अवाम को नहीं थी। छह वाम दल भी पहली बार ही बिहार विधानसभा चुनाव में एक साथ मैदान में थे। विभिन्न वाम दलों के राष्ट्रीय स्तर के कामरेड कैंपेन करने भी बिहार विधानसभा चुनाव में पहुंचे। देश के बाहर वामपंथी भी इसके लिए इस चुनाव को याद करेंगे। साथ ही इसके लिए तो अवश्य याद करेंगे कि इतनी बड़ी युनिटी और एलायंस के बाद भी वामदल बड़ी सफलता हासिल करने से वंचित रह गए। चुनाव के परिणाम आने के बाद पटना के प्रगतिशील चिंतकों ने कहना शुरु कर दिया कि अब वाम को इस पर विचार करना होगा कि उन्होंने इतने दिनों में लोगों में किस स्तर की राजनीतिक चेतना का विकास किया है।

कुल जमा तीन सीट ही हाथ लगे

लंबी कोशिश के बाद इस बार के चुनाव में छह वम दल भाकपा माले, भाकपा, माकपा, आरएसपी, एसयूसीआई और फारवर्ड ब्लॉक एक साथ चुनावी मैदान में थे। इसमें से तीन बड़ी वाम पार्टियां सीपीआई एमएल 98, सीपीआई क्0क् और सीपीएम ब्फ् सीटों पर चुनाव लड़ रही थी। लेकिन तमाम कोशिशों के बाद भी वाम दल बेहतर प्रदर्शन नहीं कर सके। वाम गठबंधन को इस चुनाव में मात्र तीन सीट बलरामपुर, तरारी और दरौली हाथ लगी। इसके पीछे एक कारण यह भी रहा कि वाम दल एक साथ आने के बाद भी एक दूसरे को इलेक्ट्रल गेन नहंी दे सके। भाजपा के खिलाफ पनपे आक्रोश को भुनाने में वाम गठबंधन कामयाब नहीं रही।

तीन सीटों से माले ही हुई पुनर्वापसी

वाम गठबंधन ने जो तीन सीट जीती हैं। ये तीनों उम्मीदवार भाकपा माले के हैं। इनमें से बलरामपुर से महमूद आलम, दरौली से सत्यदेव राम और तरारी से सुदामा प्रसाद ने जीत हासिल की है। तरारी की जीत को राजनैतिक विश्लेषक माले की बड़ी जीत बता रहे हैं। भोजपुर जिला का यह सीट माले के लिए काफी अहम माना जा रहा था। विश्लेषकों का मानना है कि भोजपुर माले के संघर्ष की धरती है। यहां से इसके कई विधायक और सांसद तक रह चुके हैं। ऐसे में एक सीट भी आना बड़ी जीत मानी जायेगी। इस जीत का ऐसे भी देखा जा सकता है कि माले अपने पुराने बेल्ट में खुद को रिगेन कर रही है।

इलेक्ट्रल फायदा नहीं दे पाए एकदूसरे को

सीपीआई और सीपीएम एक भी सीट लाने में सफल नहीं रही। इसके कई मायने लगाए जा रहे हैं। जबकि लालू के शासनकाल में सीपीआई और सीपीएम बेहतर प्रदर्शन कर चुकी है। पिछले विधानसभा में सीपीआई के बेगूसराय से एक प्रतिनिधि हुआ करते थे इस बार तो पत्ता ही साफ हो गया है। इसका सीधा सीधा एक मतलब तो निकलता है कि वाम दल एक दूसरे को इलेक्ट्रल फायदा नहीं दे सके। जिन तीन जगहों से माले के उम्मीदवार जीते भी हैं वहां अन्य वाम दलों की उपस्थिति नगण्य है। हार का एक कारण यह भी माना जा रहा है कि वाम दल पंद्रह से अधिक सीटों पर फ्रेंडली लड़ रहे थे। इससे नुकसान तो हुआ ही जनता के बीच मैसेज भी गलत गया।

इतने दिनों में नही चला संयुक्त कैंपेन

वाम गठबंधन की युनिटी और आपस के मतभेदों को अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि चुनावी अभियान में एक भी कैंपेन ऐसा नहीं था जो सभी वाम दलो ंने एक साथ्ज्ञ किया हो। इन दलो ंने अलग अलग संयुक्त लिस्ट जारी किया, अपने अपने मेनिफेस्टो अलग अलग जारी किए, साथ ही भी विभिन्न वाम दलेां के नेता एक साथ किसी चुनावी सभा को संबोधित तक नहंी किया। इन तात्कालिक कारणों के अलावा कई ऐसे कारण भी हैं जो लंबे समय से इनके जनाधार को खोखला कर रही है।

वाम के बड़े नेताओं का बिहार की जनता में अपील नहंी है। इस बात को समझना होगा। वाम दलों को अपने समाज से पॉपुलर लीडर बनाना होगा। माले ने अपनी जोरदार वापसी की है। इसके पॉजीटिव इंपैक्ट पड़ेंगे। वाम दलों को इस बात पर विचार करना होगा कि उन्होंने अबतक जनता के राजनैतिक चेतना का विकास किया भी है कि नहीं। वाम दल इस परिणाम से सबक लें और संघर्ष के लिए तैयार रहें।

महेंद्र सुमन, राजनैतिक विश्लेषक