- शहर में बाल मजदूरी से जुड़ें हैं करीब 25 हजार से ज्यादा बच्चे

- जितने हाथ उतनी कमाई की मानसिकता से मुसीबत में बचपन

BAREILLY: बच्चों को उनक हक दिलाने के नाम पर कई विभाग है। सिस्टम है। सरकार है। योजनाएं हैं, बजट है। इन सबके बावजूद बचपन से उसकी खिलखिलाहट छिन रही है। तमाम कोशिशों और दावों के बीच बचपन आज भी तिलमिला रहा है। कहीं पर पर मांझे में उलझा हुआ है तो कहीं पर गैराज में फंसा हुआ है। आर्थिक तंगी से जूझ रहे परिवार के साथ वह दो वक्त की रोटी के लिए संघर्ष करने में ही बचपन निकलता चला जा रहा है। व‌र्ल्ड डे अगेंस्ट चाइल्ड लेबर के मौके पर शहर के 'बचपन' की हकीकत को जाना, जो पेट भरने के लिए चाय की दुकानों, हथकरघों और फुटपाथ पर काम कर रहे हैं। आप भी पढि़ए।

25 हजार से ज्यादा बाल मजदूर

सिटी में सबसे ज्यादा बाल मजूदर मांझा व्यवसाय से जुड़े हुए हैं। अनुमान के मुताबिक जिनकी संख्या करीब 8 हजार से ज्यादा है, जो सुबह से शाम तक मांझा के धागों में ही उलझे रहते हैं। इसके बदले उन्हें केवल 60-100 रुपए मजदूरी मिलती है। दूसरे नम्बर पर जरी जरदोजी कारोबार है, जिसमें करीब 6 हजार बच्चे मजदूरी कर रहें हैं। इन बच्चों को 12 घंटे काम करने पर 40 से 80 रुपए मिलते हैं। शहर के बाकरगंज, हुसैनबाग, ईदगाह, इमामबाड़ा, कल्लू मियां की तकिया, स्वालेनगर, पुराना शहर, शहामत गंज, चमन की मठिया व अन्य जगहों पर काम कर रहे हैं। इसके अलावा करीब 5 हजार से ज्यादा बच्चे गैराज और ऑटोमोबाइल सर्विस की दुकानों में, 3 हजार बच्चे ढाबों, होटलों व चाय की दुकान पर और 2 हजार बच्चे विभिन्न दुकानों समेत ठेलों पर काम कर रहे हैं।

नहीं हुआ कभी कोई एक्शन

वर्ष 2006 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी शहर में बाल श्रम को रोकने के लिए कोई कार्यवाही नहीं की गई। छिटपुट कार्यवाहियों के बाद प्रशासन ने आंखें बंद कर लीं, क्योंकि दुकानों, लघु उद्योगों एवं अन्य जगहों पर जहां बाल मजूदर मिलने की संभावना थी वहां तख्ती लगा दी गई। जिस पर 'बाल मजदूरी अभिशाप है' लिखा हुआ था। इसके अलावा प्रशासन की ओर से बाल मजदूरी के परिप्रेक्ष्य में मांग गई सूचना में कहीं भी बाल मजदूर न होने की पुष्टि नहीं हो सकी। ऐसे में बरेली जिले में कागजों पर बाल मजदूरी नगण्य रही। जबकि सच्चाई कहीं इतर है। प्रशासन व पुलिस की ओर से कहीं भी छापेमारी अथवा अन्य कोई एक्शन नहीं लिया गया।

यह है नियम

0-6 वर्ष तक के बच्चों के लिए महिला एवं बाल विकास विभाग उत्तरदायी है। 6-14 वर्ष तक के बच्चों के लिए शिक्षा विभाग की जिम्मेदारी तय की गई है। बालश्रम अधिनियम 1986 में संशोधन हुआ। जिसमें घरों, ढाबों और होटलों में भी बच्चों का काम पर रखा जाना दंडनीय अपराध हो गया। हालांकिं, 13 मई 2015 में खतरनाक उद्योगों में काम करने के अलावा पेरेंट्स के मनमुताबिक या पारिवारिक किसी भी बिजनेस में बच्चों के काम करने को सुप्रीम कोर्ट ने मंजूरी दे दी है।

प्रोफाइल स्टोरी -

केस वन - पैसे कमा रहा हूं

आलम नगर निवासी कबाड़खाने में काम करने वाला 10 वर्षीय गौरव पिछले दो वर्षों से मैकेनिक का काम सीख रहा है। सुबह 8 बजे से गैराज खोलता है और रात 10 बजे अपने घर लौटता है। वह 14 घंटे काम करता है और उसे मिलते हैं माह के 1400 रुपए। वह अभी सीख रहा है, लेकिन जब सीख जाएगा तो उसे दूना यानि 2800 रुपए मेहनताना मिलने लगेगा यानि 26 रुपए प्रतिदिन। जिस दिन काम नहीं, उस दिन पैसा भी नहीं। गौरव ने न तो कभी स्कूल का मुंह देखा है और न ही जीवन के इस चक्रव्यूह में फंसने के बाद इसकी कोई उम्मीद है। लेकिन वह रुपए कमा रहा है। इससे खुश भी है।

केस टू - बनूंगा इंजीनियर

किला पुल के पास ऑटोमोबाइल रिपेयर की दुकान में काम करने वाला अमन इंजीनियर बनना चाहता है। इसीलिए उसने रिपेयरिंग का काम शुरू किया। प्रतिदिन के हिसाब से केवल उसे 40 रुपए ही मिलते हैं, लेकिन उसका ख्वाब पूरा हो रहा है, क्योंकि पेरेंट्स और दुकान मालिक ने उसे ऑटोमोबाइल के काम को ही इंजीनियरिंग बता रखा है। ऐसे में वह प्रतिदिन दिल लगाकर काम करता है। दुकान मालिक ने बताया कि उसकी मां ने उसे काम पर लगवाया है, क्योंकि पिता की मौत के बाद कमाई का जरिया न होने से कुछ रुपए मिलने की उम्मीद है।

केस थ्री - मांझे बनाने में आता है मजा

मैं पतंग उड़ा नहीं पाता, लेकिन मांझा बहुत ही बेहतर बनाता हूं। बाकरगंज में मांझा बनाते हुए आफताब ने बड़े ही भोलेपन से अपनी बात रखी। उसने बताया कि पेरेंट्स की मौत के बाद रुपए कमाने के लिए कुछ तो करना ही था। पिता जी मांझा बनाते थे तो मैं भी साथ जाता था। फिर सीख लिया और अब वही काम कर रहा हूं। हर दिन मांझे पर रंग करते हुए हाथ कट जाता है। खून बहता है, लेकिन वह बिना दवा के ही ठीक हो जाता है। उसने बताया कि बाकरगंज में करीब 6 सौ से ज्यादा बच्चे मांझा का काम कर रहे हैं।

केस फोर - जरी का काम में मन लगता है

ईदगाह में जरी का काम किया जाता है। यही पर एैनुल भी दो साल से काम करता है। उसे 100 रुपए की दिहाड़ी मिलती है। परिवार में एक बहन और तीन भाई हैं। 6 माह पहले पिता का देहांत हो गया था। ऐसे में मां और बहन घरों में बर्तन साफ करती हैं और सभी भाई जरी का काम करते हैं, जिससे परिवार का खर्चा चलता है। उसने बताया कि जरी में रंग-बिरंगे मोतियों व धागों को बारीकी से पिरोना उसे बखूबी आने लगा है। जल्द ही, मालिक उसकी पगार 20 रुपए बढ़ाने वाले हैं।

क्या कहता है मनोविज्ञान

परिवार की आर्थिक तंगी के कारण बच्चे स्कूल की चौखट भी पार नहीं कर पाते। इन्हीं बाध्यताओं के कारण पढाई बीच में ही छोड़ देनी पड़ती है और बाल श्रमिक आजीविका, शिक्षा, प्रशिक्षण और कार्यरत कौशल से वंचित रह जाते हैं। ऐसे में न तो उनका मानसिक विकास हो पता है और न ही बौद्धिक विकास संभव है।

-हेमा टंडन, मनोवैज्ञानिक