BAREILLY:

मिट्टी के बर्तनों की कम डिमांड होने से कुम्हारों का पारम्परिक व्यवसाय से जीवन गुजर-बसर नहीं हो रहा है। एक आस दिवाली पर दीयों की बिक्री से रहती है, लेकिन आधुनिक दौर में दीयों के बाजार को झालर और कैंडल ने निगल लिया है, जिसके चलते कमाई की एकमात्र उम्मीद भी धुंधली नजर आ रही है। हालांकि, देसी दिवाली मनाने को लेकर लोगों में बढ़ रहे जोश से कुम्हारों के चाक ने भी रफ्तार पकड़ ली है। बड़ी संख्या में दीये, पुरवा, ढकनी, हंडिया बनाकर तैयार कर रहे हैं।

 

गांव से शहर पहुंचे दीये बेचने

श्यामगंज पुलिस चौकी के सामने मिर्ची वाले मोड़ पर दीये, ढकनी का ढेर लगा कर बेचने के लिए बैठे हुए हृदेश, वीरेंद्र कुमार, कपिल कुमार और परवेश के परिवार की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। इन कुम्हारों का घर देवरनियां और मुडि़या में है, जो कि दिवाली पर दीयों की बिक्री करने के लिए शहर पहुंचे हुए हैं। इंटर करने वाले हृदेश ने बताया कि उनके घर में यह काम वर्षो से चला आ रहा है। कभी-कभी घर का खर्चा चलाना भी मुश्किल हो जाता है। ऐसे में उनके सामने मजदूरी करने का ही एक ऑप्शन बचता है।

 

अब तो मिट्टी भी नहीं मिलती

वीरेंद्र, कपिल और परवेश ने बताया कि अब तो गांव में दीये बनाने के लिए मिट्टी भी नहीं मिलती है। दीये, ढकनी और पुरवा तैयार करने के लिए चिकनी मिट्टी की जरूरत पड़ती है, लेकिन लोगों ने अब तो तालाब पाट कर घर बना लिया है। ऐसे में उन्हें मिट्टी खरीदनी पड़ती है। एक हजार रुपए में एक डल्ला मिट्टी मिलती है। जबकि, क्00 दीये तैयार करने में ख् से फ् घंटे का समय लग जाता है।

 

फिर भी करते हैं मोलभाव

कुम्हारों का कहना है कि मिट्टी के दीये क्0 में ख्भ् दिए जा रहे हैं। फिर भी लोग हैं कि मोलभाव कर रहे हैं। दाम कम नहीं करने पर वह दीये लेने से मना कर देते हैं। ऐसे में मजबूरन दाम कम करने पड़ते हैं। जबकि इलेक्ट्रिकल दीयों से सस्ते मिट्टी के दीये हैं।