पार्टी यदि इन परिणामों को लोकसभा चुनाव के लिए ओपिनियन पोल नहीं मानेगी तो यह उसकी बड़ी गलती होगी.

चुनाव का दूसरा बड़ा निष्कर्ष है ‘आप’ के रूप में नए किस्म की राजनीति का उदय हो रहा है, जो अब देश के शहरों और गाँवों तक जाएगा. इसका पायलट प्रोजेक्ट दिल्ली में तैयार हो गया है.

यह भी कि देश का मध्य वर्ग, प्रोफेशनल युवा और स्त्रियाँ ज्यादा सक्रियता के साथ राजनीति में प्रवेश कर रहे हैं. राजनीतिक लिहाज से ये परिणाम भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी के आत्म विश्वास को बढ़ाने वाले साबित होंगे.

अशोक गहलोत और शीला दीक्षित ने सीधे-सीधे नहीं कहा, पर प्रकारांतर से कहा कि यह  केंद्र-विरोधी परिणाम है. सोनिया गांधी का यह कहना आंशिक रूप से ही सही है कि लोकसभा चुनाव और विधान सभा चुनाव के मसले अलग होते हैं. सिद्धांत में अलग होते भी होंगे, पर सोनिया गांधी और राहुल गांधी की रणनीति भी केंद्रीय उपलब्धियों के सहारे प्रदेशों को जीतने की ही तो थी.

अस्पष्ट संदेश

गड्ढे में कांग्रेस और ‘नई राजनीति’ के शिखरसोनिया गांधी ने माना है कि हम जनता तक अपना राजनीतिक संदेश नहीं पहुँचा पाए. सच यह है कि कांग्रेस तय नहीं कर पाई कि उसे संदेश क्या देना था. एक ओर राहुल गांधी कहते हैं कि चमकदार सड़कें, फ्लाई ओवर और ऊँची इमारतें विकास का पर्याय नहीं हैं. हम भरपेट भोजन देकर विकास करेंगे. वहीं कांग्रेस दिल्ली में सड़कों और फ्लाई ओवरों को ही विकास कहती रही.

आर्थिक संवृद्धि और सामाजिक विकास के रिश्ते और सुशासन को कांग्रेस रेखांकित नहीं कर पाई. कांग्रेस को भ्रष्टाचार का प्रतीक भी मान लिया गया. लोकपाल कानून और सिटिजन चार्टर और ह्विसिल ब्लोवर कानून न बन पाने का ठीकरा भी कांग्रेस पर फूटा है. मोटे तौर पर भाजपा और  ‘आप’ यूपीए सरकार को अकुशल, ढुलमुल और फैसले कर पाने में असमर्थ साबित करने में सफल रहे.

सोनिया गांधी ने चुनाव परिणाम को विनम्रता से स्वीकार करते हुए पार्टी की रीति-नीति में बदलाव लाने का संकल्प किया है और यह भी कहा है कि पार्टी अपने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा उचित समय पर करेगी. पर समस्या प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी की नहीं वर्तमान प्रधानमंत्री के ‘मजबूर प्राणी’ बन जाने की है. गठबंधन की राजनीति और सत्ता के दो केंद्र होने के कारण यूपीए सरकार को कदम-कदम पर शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा.

रविवार की शाम कांग्रेस मुख्यालय में सोनिया और राहुल ने कहा कि चार राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणामों को लेकर पार्टी बेहद निराश है और हमें गहरे आत्ममंथन करने की जरूरत है. हार के अनेक कारण रहे हैं जिनमें महंगाई सहित विभिन्न मुद्दे शामिल हैं.

‘आप’ से सीखेंगे

गड्ढे में कांग्रेस और ‘नई राजनीति’ के शिखरराहुल गांधी ने कहा कि दोनों प्रमुख पार्टियाँ कांग्रेस और भाजपा परंपरागत तरीके से राजनीति के बारे में सोचती हैं. मैं समझता हूँ हमें जनता के सशक्तिकरण के तरीके से समझने की जरूरत है. इस विषय पर मैं अपनी पार्टी के अंदर कहता रहा हूँ. हम ‘आप’ की सफलता से सीखेंगे. इस नई पार्टी ने बहुत सारे लोगों को जोड़ा जो काम परंपरागत पार्टियों ने नहीं किया.

इसे सेमी फाइनल मानें या न मानें, पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि ये परिणाम जनता के इरादों को व्यक्त करते हैं. कांग्रेस ढलान पर है, और अब उसके रथ की गति को रोकना मुश्किल होगा.

सन 2009 में मिले बेहतर जनादेश का सकारात्मक इस्तेमाल करने में कांग्रेस विफल रही. वह अपने परंपरागत तरीके से वोट बैंक की राजनीति कर रही है, जबकि देश की वस्तुगत स्थितियां बदल रहीं है. दिल्ली के परिणामों के सरसरी तौर पर विश्लेषण से लगता है कि मुसलमान वोटरों ने कांग्रेस के पक्ष में वोट डाला. बावजूद इसके केवल एक वोट बैंक के सहारे ने उसे कहीं का रहने नहीं दिया.

इन चुनाव परिणामों से कांग्रेस के कार्यकर्ता के मनोबल पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा और भाजपा के कार्यकर्ता का उत्साह बढ़ेगा. अब भाजपा को स्थानीय स्तर पर सहयोगी दलों को खोजने में आसानी होगी. नरेंद्र मोदी को अपनी पार्टी के भीतर वैधानिकता मिलेगी और राहुल गांधी के नेतृत्व को लेकर सवाल खड़े होंगे. कांग्रेस के पास कोई विकल्प नहीं है.

छत्तीसगढ़ में उम्मीदें भी धराशायी

गड्ढे में कांग्रेस और ‘नई राजनीति’ के शिखररविवार की शाम तक कांग्रेस को छत्तीसगढ़ में आशा की किरण दिखाई पड़ती थी. तीसरे पहर तक वहाँ से कांग्रेस की बढ़त की खबरें आ रहीं थी, पर अंततः परिणाम सन 2008 के परिणामों को आसपास आकर टिके. भाजपा ने एक सीट कोई और कांग्रेस ने पाई. कांग्रेस का मत प्रतिशत सुधरा है, पर उसके बरक्स भाजपा के मत प्रतिशत में भी सुधार हुआ है. यह सुधार बसपा की कीमत पर हुआ है, जिसके वोटों में कमी आई है.

छत्तीसगढ़ में रमन सिंह की सरकार मामूली बहुमत के सहारे ही चल रही थी. दर्भा नक्सली हमले को देखते हुए उम्मीद थी कि कांग्रेस को सहानुभूति का लाभ मिलेगा. उम्मीद थी कि नक्सल प्रभावित बस्तर इलाके की 12 सीटों पर कांग्रेस की मजबूती उसे सूबे की सरकार चलाने की जिम्मेदारी दिला सकती है. कांग्रेस को वहाँ सफलता भी मिली, पर पूरे सूबे में वह पर्याप्त बहुमत नहीं जुटा पाई.

प्रभावहीन ‘गेम चेंजर’

दुनिया की सबसे बड़ी कल्याण योजना के रूप में प्रचारित खाद्य सुरक्षा और कंडीशनल कैश ट्रांसफर योजनाओं के महत्वपूर्ण पायलट प्रोजेक्ट राजस्थान में शुरू किए गए. केंद्र सरकार का यह ‘गेम चेंजर’ इन चार राज्यों के चुनाव के पहले इसीलिए तो तैयार किया गया था. यूपीए सरकार इस बात पर ध्यान नहीं दे पाई कि उसे लेकर गहरी नाराज़गी जनता के मन में घर कर चुकी है.

दिल्ली में भाजपा को पूर्ण बहुमत नहीं मिला, पर इन परिणामों को 4-0 मानने से इनकार नहीं किया जा सकता. राजस्थान में ‘सूपड़ा साफ’ शब्द भी हल्का पड़ेगा. भाजपा ने भी इसकी कल्पना नहीं की थी. तीन चौथाई का बहुमत स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अच्छा लक्षण नहीं है.

‘मैंगो मैन’ और उसकी टोपी

गड्ढे में कांग्रेस और ‘नई राजनीति’ के शिखरगांधी टोपी स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अंग्रेजों के प्रतिरोध का प्रतीक थी. स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रीय राजनीति में यह टोपी राजनेताओं के सिर पर लंबे समय तक रही. कांग्रेस की सफेद, समाजवादी पार्टियों की लाल और हरी, जनसंघ/भाजपा की केसरिया.

अस्सी के दशक में जब राजनीतिक नेताओं ने धोती-कुर्ता छोड़कर सफारी सूट अपनाया तो यह टोपी छूट गई. सन 2010 में अचानक अन्ना हजारे नाम का नेता राष्ट्रीय मंच पर प्रकट हुआ. उसके सिर पर यह सफेद टोपी थी. इस टोपी ने  ‘मैं हूँ अन्ना’ के नारे के साथ आंदोलनकारियों के सिर पर जगह बना ली.

जब आम आदमी पार्टी बनी तो उसने इस टोपी को अपनाया. सिर्फ नारा बदल गया. अब सिर पर लिखा है ‘मैं हूँ आम आदमी.’ लंबे समय तक ‘आम आदमी’ या ‘मैंगो मैन’ मज़ाक का विषय बना रहा. अब यह मज़ाक नहीं है. टोपी पहने मैंगो मैन राजनीतिक बदलाव का प्रतीक बनकर सामने आया है. आने वाले कुछ हफ्तों में देश के बड़े शहरों में इन टोपियों की खपत अचानक बढ़ जाए तो आश्चर्य नहीं होगा. चार राज्यों के चुनाव परिणाम का सबसे परिणाम होगा शहर-शहर ‘आप’ की शाखाएं.

व्यवस्था के अंतर्विरोध

"‘आप’ आंदोलन के पीछे ‘अरब-स्प्रिंग’ से लेकर ‘ऑक्यूपेशन वॉल स्ट्रीट’ तक के तार जुड़े हैं. भारतीय नाराज़गी के वैश्विक संदर्भ हैं या नहीं, अभी कहना मुश्किल है. पर व्यवस्था के अंतर्विरोध इसने उजागर किए हैं."

‘आप’ आंदोलन के पीछे ‘अरब-स्प्रिंग’ से लेकर ‘ऑक्यूपेशन वॉल स्ट्रीट’ तक के तार जुड़े हैं. भारतीय नाराज़गी के वैश्विक संदर्भ हैं या नहीं, अभी कहना मुश्किल है. पर व्यवस्था के अंतर्विरोध इसने उजागर किए हैं.

मोटे तौर पर कांग्रेस, भाजपा और ‘आप’ तीनों के लिए ये परिणाम कुछ न कुछ सोचने के लिए छोड़ गए हैं. क्षेत्रीय क्षत्रपों के लिए भी यह विचार का समय है. यदि उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे पारंपरिक राजनीति के गढ़ों में जाति और संप्रदाय से मुक्त किसी नई ताकत का जन्म होगा तो उसका स्वरूप कैसा होगा? पर उससे पहले सवाल है कि क्या ये इलाके इस किस्म की राजनीति के लिए तैयार हैं?

देखना यह भी होगा कि ‘आप’ का नेतृत्व अपने आंदोलनकारी खोल से बाहर कैसे निकलेगा. यह पहला मौका नहीं है, जब किसी आंदोलन से निकली पार्टी को राजनीतिक सफलता मिली है. ‘आप’ के नेतृत्व और कार्यकर्ताओं के राजनीतिक प्रशिक्षण और परिपक्वता की जरूरत भी होगी.

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