भारतीय कॉफ़ी बोर्ड का अनुमान है कि आने वाले कुछ वर्षों में कॉफ़ी निर्यात करने वाला भारत कॉफ़ी आयात करने लगेगा। अंतरराष्ट्रीय कॉफ़ी संगठन के अनुसार वर्ष 2010 भारतीय एक लाख टन से भी अधिक कॉफ़ी गटक गए।

इतिहास

किस्सा है कि इथोपिया में सैकड़ों बरस पहले एक गड़रिये ने अपनी बकरियों को एक पौधे के पत्ते ख़ा कर झूमते देखा तो उसने भी उस पौधे के पत्ते खाए और बीज चखे।

अब चाहे इसे बकरियों की देन कहिए या उस गड़रिये की या अरब व्यापारियों की जो इसे दुनिया भर में ले गए और मसालों के बदले भारत में दे गए, या फिर दक्षिण भारत के एक फ़कीर हज से लौटते हुए इसे अपनी शिष्यों के लिए लाए लेकिन यह तय है कि कॉफी भारत में छठवीं-सातवीं शताब्दी में आ गई थी।

कहीं इसे कापी कहा गया कहीं इसे कॉफ़ी। लेकिन जैसे प्याली में भरी कॉफ़ी की महक नीचे से ऊपर उठती है वैसे ही कॉफ़ी के ज़ायके ने भी दक्षिण भारत से उत्तर भारत में अपनी जगह बना ली है।

चाय के चाहनेवाले

दशकों से चाय के मज़बूत किले रहे उत्तर भारत में कॉफ़ी के मंदिर यहाँ वहाँ दिखने लगे हैं क्या कारण है? पाकशास्त्री जिग्स कालरा कहते हैं, "चाय की खुशबू भर नहीं होती। कॉफ़ी आप जुबान से तो पीते ही हैं नाक से भी पीते हैं और जब कॉफ़ी ढाली जाती है तब आप उसे कान से भी पीते हैं."

वैसे कालरा की इस बात के अंदाज़ लगाया जा सकता है कि वो ख़ुद चाय या कॉफ़ी में से किसे तरजीह देते होंगे.कालरा के एक मित्र, स्वाद के रसिक और इतिहासकार पुष्पेश पंत कालरा से सहमत नहीं हैं।

पंत कहते हैं, "कॉफ़ी से कहीं अधिक शास्त्र चाय चाय का है चाहे वो जापान में एक पवित्र रिवाज़ की तरह हो या फिर भारत की तुलसी की चाय या दार्जीलिंग चाय, जिसे शैम्पेन के बराबर रखा जाता था। चाय किसी मायने में कॉफ़ी से कम नहीं है."

कालरा कहते हैं कि कॉफ़ी का चलन उत्तर भारत में इसलिए बढ़ा है कि लोग उत्तर से दक्षिण और दक्षिण से उत्तर भारत में अधिक यात्रा करने लगे हैं।

वहीं पंत कहते हैं कि उत्तर भारत में चाय फ़ैशनपरस्ती और दिखावे के चलते बढ़ रही है इसके अलावा बाज़ार की ताकतें और लोगों का बदलता ज़ायका वो कारण हैं जो कॉफ़ी को बढ़ा रहे हैं।

अब कॉफ़ी चाय की लड़ाई पर जिस तरह के तर्क आते हैं उनसे से लगता है इन दोनों के दीवानों के बीच युद्ध छिड़ जाएगा। कॉफ़ी और चाय की लड़ाई में कोई भी हारे कोई भी जीते लेकिन जीत शायद आम आदमी की होगी जिसे ये चीज़ें अधिक सुलभता से सस्ती दरों पर मिलेंगी। इसे कह सकते हैं स्वाद का लोकतंत्र।

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