आईबीएम कंपनी द्वारा किए गए इस सर्वेक्षण में सफ़र के लिहाज़ से दिल्ली को सातवां सबसे बुरा शहर बताया गया है। सर्वेक्षण में सबसे बुरा शहर मैक्सिको सिटी, फिर चीन के शेनज़ेन और बीजिंग, उसके बाद अफ्रीका के नैरोबी और जोहानसबर्ग और फिर भारत के बंगलौर और दिल्ली हैं।

चौड़ी सड़कों, बड़े फ्लाई ओवरों और मेट्रो रेल की सुविधाओं वाली राजधानी दिल्ली के, इस फ़ेहरिस्त में इतने ऊंचे पायदान पर होने की वजह जानकार ख़राब तरीक़े से बनाई गई योजनाएं बताते हैं।

दिल्ली में और जगह नहीं

देश के सबसे विकसित शहर दिल्ली में दूसरे बड़े शहरों, मुंबई और चेन्नई के मुक़ाबले बेहद चौड़ी सड़कें हैं और राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन की बदौलत कई फ़्लाईओवर और अंडर पास भी बने हैं।

लेकिन परिवहन से जुड़े मुद्दों पर शोध करने और सरकार को सलाह देने वाली संस्था इंडियन फाउंडेशन ऑफ ट्रान्सपोर्ट रिसर्च एन्ड ट्रेनिंग के संयोजक एसपी सिंह कहते हैं कि अब दिल्ली में और जगह नहीं है।

सिंह के अनुसार, “दिल्ली में कारों की संख्या सड़कों की चौड़ाई को नज़र अंदाज़ कर बढ़ती चली गई है, अब घरों के बाहर पार्किंग की जगह नहीं है और एक ही जगह जाने के लिए चार लोग अपनी अलग-अलग कारें ले जाते हैं, इन सब पर अंकुश लगाना होगा.”

निजी वाहनों की बढ़ती संख्या से बढ़ी ट्रैफ़िक समस्या से निपटने के लिए ही दिल्ली सरकार ने सार्वजनिक परिवहन को बेहतर बनाने के प्रयास शुरू किए थे। इनमें प्रमुख था शहर के अलग-अलग इलाकों को मेट्रो रेल और बसों के लिए विशेष रास्तों (बीआरटी कॉरिडोर) के ज़रिए जोड़ना, लेकिन सड़कों पर चलना अब भी परेशानी का सबब बना हुआ है।

शहरों के निर्माण पर तकनीकी शिक्षा देने वाले स्कूल ऑफ प्लानिंग एन्ड आर्किटेक्चर के निदेशक एके शर्मा कहते हैं कि इसकी वजह अलग-अलग परिवहन के बीच तालमेल की कमी है।

शर्मा कहते हैं, “मेट्रो रेल सब जगह नहीं पहुँचती और जहाँ है वहां फ़ीडर वाहनों की सुविधा पूरी नहीं है, बसों की हालत ख़स्ता है और कम शोध के साथ लाया गया बीआरटी कॉरिडोर एक सफल परीक्षण नहीं साबित हुआ.”

कड़वे अनुभव

दिल्ली वालों की मानें तो अपने वाहन पर हों या ऑटो पर, बस से या मेट्रो से चलें, देश की राजधानी में सफ़र करना सुखद नहीं दुखद अनुभव है।

कनॉट प्लेस में काम करने वाले मनसिमरन सिंह कहते हैं, “दिल्ली में सफ़र करना तो अत्याचार जैसा है, दो-तीन किलोमीटर पार करने में ही आधा-पौना घंटा लग जाता है.”

मेट्रो में सफर करने वाली दीक्षा कहती हैं, “मेट्रो अगर थोड़ी भी देरी से चले तो ऐसी भीड़ हो जाती है, महिलाओं के डिब्बे में भी भेड़-बकरियों जैसे दबकर बहुत बुरा लगता है.”

लेकिन परिवहन तंत्र के बुनियादी ढाँचे की ख़ामियों से परेशानी शारीरिक ही नहीं मानसिक भी होती है।

आईबीएम के सर्वेक्षण के मुताबिक घर से दफ़्तर या स्कूल-कॉलेज का सफर अगर परेशानी भरा हो तो इससे झल्लाहट और गुस्से की प्रवृति को बढ़ावा मिलता है।

पिछले महीनों में दिल्ली में ट्रैफिक में रास्ता नहीं दिए जाने पर पिस्तौल से गोलियां चलाने, बद्तमीज़ी करने या मारपीट करने की वारदातें आम होती जा रही हैं।

हालांकि आईएफटीआरटी के संयोजक एसपी सिंह का कहना है कि ये बदलते समाज का आईना ही है। हमारी बेसब्री, काम का दबाव और बदलते मूल्य ही सड़क पर हमें आपे से बाहर कर देते हैं।

लेकिन बड़े शहरों में बेहतर आयाम की तलाश में बढ़ती जनसंख्या का अगर यही बदलता परिवेश है तो इसके मुताबिक नए नियम, योजनाओं और क़ायदों के बारे में सोचना अब बेहद ज़रूरी होगा।

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