आज शिक्षा के क्षेत्र में सबसे बड़ा मुद्दा ग़ैरबराबरी और भेदभाव का है.

भारत की स्कूली शिक्षा में एक नहीं सैकड़ों परतें बिछ चुकी हैं, चाहें वह सरकारी स्कूल व्यवस्था हो या निजी स्कूल व्यवस्था हो.

यहाँ जिसकी जितनी औक़ात है, उसकी उतनी ख़रीदने की क्षमता होती है. इससे यह होता है कि व्यक्ति किस गुणवत्ता की शिक्षा को ख़रीदता है. जिसकी औक़ात नहीं है वह गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से वंचित रह जाता है.

'आपको दर्द होता है कि नहीं'

ये जो दर्द है कि भारतीय समाज इस तरह से परतदार स्कूल व्यवस्था से बाँटा न जाए, तोड़ा न जाए. इस असमानता और ग़ैरबराबरी का दर्द किसी भी पीएचडी प्राप्त मिनिस्टर को आज तक नहीं हुआ.

डिग्री छोड़ो,स्मृति को शिक्षा में असमानता का दर्द होगा?

मेरा सवाल यह है कि क्या  स्मृति ईरानी को यह दर्द होगा? मैं नहीं जानता. मुझे पता नहीं कि दर्द होगा कि नहीं होगा.

इस बात से बिल्कुल फर्क़ नहीं पड़ता कि कोई मंत्री कितना पढ़ा लिखा है. हमने तो पीएचडी प्राप्त डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी को देख लिया, डिग्री प्राप्त दिवंगत अर्जुन सिंह को देख लिया और उससे भी ज़्यादा डिग्री की बातें करने वाले कपिल सिब्बल को देख लिया, तो क्या फर्क़ पड़ा?

हम आम लोगों के बीच में काम करते हैं और सब लोग जानते हैं कि किस तरीके से आज  कॉलेज और यूनिवर्सिटी बेचे जा रहे हैं. पूरा हिंदुस्तान जानता है इस बात को.

शिक्षा सबसे ज़्यादा अनियंत्रित और सबसे ज़्यादा मुनाफ़ाखोरी का धंधा है. पान का धंधा ऐसा नहीं है, शराब का धंधा ऐसा है.

कोई धंधा इतना मुनाफ़ाखोरी का नहीं है क्योंकि इसमें आयकर माफ़ है. इतना समझने के लिए स्मृति ईरानी को कोई डिग्री नहीं चाहिए कि इस धंधे में आयकर माफ़ है.

मैं स्मृति ईरानी से यह नहीं पूछूंगा कि आपके पास डिग्री कौन सी है? मैं तो पूछूंगा कि आपको दर्द है कि नहीं.

'डिग्री से फर्क़ नहीं पड़ता'

मोदी सरकार का तो एजेंडा वहीं है जो कि कांग्रेस सरकार का था. शिक्षा के क्षेत्र में एनडीए की सरकार वाजपेयी के समय में और यूपीए-एक, यूपीए-दो और अब, इन सबका एजेंडा एक ही है.

क्या स्मृति ईरानी इस एजेंडे को चुनौती देंगी या नहीं देंगी? अगर नहीं देंगी तो हमें फर्क़ नहीं पड़ता कि कौन सी डिग्री लेकर आती हैं.

हमने भाजपा, कांग्रेस और अन्य पार्टियों के घोषणापत्र पढ़े हैं और इनके घोषणापत्र सभी पुरानी नीतियों को आगे बढ़ाने वाले हैं.

केवल वामपंथी पार्टियों ने चुनौती दी है कि हम शिक्षा को बाज़ार में नहीं बेचेंगे. हम शिक्षा में बराबरी लाएंगे. ये तो संविधान के शब्द हैं जो राजनैतिक पार्टियों के घोषणापत्र से ग़ायब हो गए हैं.

आज जो 100 आदिवासी बच्चे दाख़िला लेते हैं. उनमें से केवल छह फ़ीसदी आदिवासी बच्चे 12वीं पार करते हैं, केवल आठ फ़ीसदी दलित बच्चे 12वीं पास करते हैं, केवल नौ फ़ीसदी मुस्लिम बच्चे 12वीं की पढ़ाई पार करते हैं, केवल 10 फ़ीसदी ओबीसी बच्चे 12वीं पार करते हैं.

अभी तक ये जो ग़ैरबराबरी का एजेंडा रहा है यह तो हर एक पार्टी का रहा है. मैंने तो किसी पार्टी के नेता से, चाहे वह दलित लोगों का नेता क्यों न हो उनसे कभी यह दर्द नहीं सुना, कभी यह तकलीफ़ नहीं सुनी. शिक्षा के मूलभूत सवालों को समझने के लिए कोई डिग्री और सर्टिफ़िकेट नहीं चाहिए.

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