नहीं मिल रही सस्ती दवा
रिम्स में अपनी वाइफ को दिखाने आए हिन्दपीढ़ी के मोहम्मद राशिद ने बताया कि न्यूज पेपर्स में पढ़ा था कि दवाएं सस्ती हो गई हैैं, लेकिन दुकानों सस्ती दवाएं मिल ही नहीं रहीं। ऐसे में डॉक्टर की लिखी महंगी दवा खरीदना मजबूरी है। जून के बाद दवा कंपनियों को सस्ती दवाएं बनाने और मार्केट में सप्लाई करने का निर्देश जारी किया गया था। लेकिन फार्मा कंपनियां इस ऑर्डर का पालन ही नहीं कर रही हैैं।

प्राइस कम तो दवाएं बनानी बंद
झारखंड केमिस्ट एंड ड्रगिस्ट एसोसिएशन के अमर सिन्हा ने बताया कि पहली बात तो ये है कि फार्मा कंपनियों ने सभी दवाओं की प्राइसकम नहीं की है और जिनकी प्राइस कम की हैैं, उन्हें बनाना बंद कर दिया है। उनके पास जब तक रॉ मैटेरियल है, तब तक वे दवाएं बना रही हैैं। जब ये खत्म हो जाएगा तो वे रॉ मैटेरियल नहीं मंगाएंगी और दवाएं नहीं बनाएंगी। उनका कहना है कि जब ज्यादा कीमत में रॉ मैटेरियल मिल रहा है, तो कम रेट में दवाएं कैसे बेचेंगे? ऐसी हालत में मार पेशेंट्स पर पड़ेगी।

कम आ रही हैं दवाएं  
बरियातू स्थित बालाजी मेडिकल हॉल के दिनेश कुमार सिंह ने बताया कि रेट घट रहा है, तो मार्केट में दवाएं आनी कम हो गई हैैं। सभी नई दवाएं आई भी नहीं हैैं, इसलिए मजबूरी में कस्टमर को ओल्ड रेट में दवाएं दी जा रही हैं। मार्केट में सस्ती दवाएं नहीं मिलने से उन पेशेंट्स को प्रॉब्लम हो रही है, जिन्हें गंभीर बीमारी है।

पांच साल लगा सस्ता होने में
फार्मा एक्सपट्र्स का कहना है कि नेशनल फार्मास्यूटिकल प्राइसिंग अथॉरिटी को दवाओं के प्रोडक्शन मेें प्रयोग होनेवाले रॉ मैटेरियल, दवाओं की पैकेजिंग, प्रोडक्शन कॉस्ट और टैक्स के टोटल कॉस्ट का हिसाब पता करने का जिम्मा सौंपा गया था। उसका मकसद फार्मा कंपनियों के मार्जिन का पता लगाना था। इसके बाद करीब 348 सॉल्ट की लिस्ट बनाई गई और उनकी प्राइसकम की गई। इसके बाद दवाओं को सस्ता करने के लिए पीएम ऑफिस में फाइल भेजी गई। इस प्रॉसेस में पांच साल लग गए।